फ़ूड हैबिट्स आफ KayasthA; कायस्थों का खाना पीना देख जीभ लपलपकाए, कायस्थ परिवारों में बकरे के गोश्त (मटन) के बिना कोई दावत नहीं
भारतीय भोजन हमें दिखाता है कि कुछ भी खास नहीं है। हम कायस्थ व्यंजनों (कुजीन) में हिंदू और मुस्लिम प्रभावों के साथ-साथ थोड़ा औपनिवेशिक प्रभाव भी देख सकते हैं। जिस तरह हम विविध परंपराओं का मिश्रण हैं, उसी तरह हमारे भोजन में भी विविध प्रभावों का मेल है।
इस खाने में पाककला की विभिन्न परंपराओं को कुशलतापूर्वक और मनोरम अंदाज में मिलाया गया है। लेखिका, आलोचक और इतिहासकार अनूठी विशाल कहती हैं, ‘भारतीय भोजन हमें दिखाता है कि कुछ भी खास नहीं है। हम कायस्थ व्यंजनों (कुजीन) में हिंदू और मुस्लिम प्रभावों के साथ-साथ थोड़ा औपनिवेशिक प्रभाव भी देख सकते हैं। जिस तरह हम विविध परंपराओं का मिश्रण हैं, उसी तरह हमारे भोजन में भी विविध प्रभावों का मेल है।’ अनूठी ने हाल ही में इंडियन एक्सेंट, द लोधी, नई दिल्ली में कायस्थ कुजीन को लेकर एक आयोजन किया, जिसमें मशहूर शेफ मनीष मेहरोत्रा की बनाई कई नई चीजें भी शामिल थीं।
खाद्य इतिहासकार राणा सफवी के मुताबिक, कायस्थ कुजीन लोगों को जोड़ने वाली चीज है। यह एक ऐसी परंपरा है, जो भारत की संस्कृति और खानपान के समावेशी मिजाज को खूबसूरती से दर्शाती है। राणा कहती हैं कि मैं कई कायस्थ मित्रों के साथ रहते हुए बड़ी हुई। उनका भोजन स्वादिष्ट और हमारे जैसा ही है। जब तोड़ने की इतनी बातें खड़ी की जा रही हैं, तो मुझे खुशी है कि हम उन खानों के बारे में बातें करते हैं, जो जोड़ता है। खाना हमें राहत देता है और जोड़ता है। उन्होंने कहा कि किसी दिन कड़वाहट की बजाय हमें कोफ्ता या करेला ही दे दो।
भारत की सामासिक संस्कृति का जश्न
सक्सेना, श्रीवास्तव और माथुर जैसे उपनामों के साथ कायस्थ मुगल शासकों के दरबार में पारंपरिक रूप से मुंशी (कातिब) हुआ करते थे। वे खुद को चित्रगुप्त का वंशज मानते हैं। चित्रगुप्त मृत्यु के देवता यमराज के मुंशी हैं। एक मुंशी का वंशज होने के नाते किसी कायस्थ के लिए सुशिक्षित होना महत्वपूर्ण है। विरासत को सहेजने में लगे अनिलचंद्र कहते हैं कि वे पहले-पहल मध्यकालीन भारत में, अदालत की भाषा फारसी में दस्तावेज लिखते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। विशाल बताती हैं कि कायस्थों का जिक्र सबसे पहले आईन-ए-अकबरी में अदालत के वरिष्ठ अधिकारियों के रूप में मिलता है।
मुस्लिम दस्तरखान ने उनकी उत्सुकता बढ़ा दी, जिसके बाद उन्होंने खाने की कई नई और शानदार चीजें बनाईं। विशाल ने अपनी किताब ‘मिसेज एलसी’ज टेबल : कायस्थ फूड एंड कल्चर’ में बताया है कि जिसे कायस्थ कुजीन कहा जाता है, उसके विकास की कहानी क्या है। नए शासक, जो ज्यादातर मध्य एशिया से आए थे, परिष्कृत स्वादिष्ट व्यंजनों के अभ्यस्त थे। उन व्यंजनों में पिसा हुआ मसाला या ग्रेवी नहीं होती थी। उन्होंने साबुत काली मिर्च, काली इलायची, जायफल और जावित्री का उपयोग अपने व्यंजनों को स्वादिष्ट बनाने के लिए किया, जो कायस्थ रसोई की विशेषता बन गया। उनके केप्तेह या किब्बेह जैसे विशिष्ट व्यंजन ग्रेवी के साथ कायस्थों द्वारा बनाए गए थे।
मध्य एशियाई व्यंजनों का करीने से भारतीयकरण किया गया। विशाल बताती हैं, भरवां करेले जैसे व्यंजन को मध्य एशिया के डोलमास में पहचान सकते हैं। डोलमास शिमला मिर्च में टमाटर और वाइनलीफ (अंगूर के पत्ते) व कीमा भर कर बनाया जाता है। मुगलों ने करेले और लौकी जैसी स्थानीय सब्जियों का इस्तेमाल किया और उनमें डोलमास की तरह कीमा भरवाया। कायस्थों ने कीमा की जगह भुना हुआ प्याज और सौंफ जैसे मसालों का इस्तेमाल किया।
कई कुशल मुंशी तरक्की पाकर वरिष्ठ पदों पर पहुंचे। उन्होंने अनुदान में जमीन और खिताब हासिल किए। इससे खाने के इन शौकीनों के पास ज्यादा पैसा आया। अनिलचंद्र कहते हैं कि दही, घी, खोवा या मावा जैसे डेयरी उत्पाद कायस्थ कुजीन का हिस्सा बन गए। खट्टे-मीठे फल और बादाम व पिस्ता जैसे सूखे मेवे करी और कबाब जैसे व्यंजनों में उदारता पूर्वक इस्तेमाल किए जाने लगे।
महिलाएं, जिनमें ज्यादातर शाकाहारी थीं, नए-नए व्यंजन लेकर आईं। बकौल विशाल, खुद मांस नहीं खाने, लेकिन पुरुषों के लिए उसे पकाने वाली महिलाओं ने मांस जैसे कई व्यंजन तैयार किए। दरअसल वे मांस जैसे स्वाद का लुत्फ लेना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने दाल और सब्जियों से मांस से मिलते-जुलते स्वाद वाले व्यंजन तैयार किए।
कुछ बेहद खास व्यंजन
कायस्थों के लिए खाना बनाना एक प्रतिष्ठित कला थी। इसके लिए एकमात्र जिस कसौटी को स्वीकार किया जाता था, वह थी निपुणता। स्वाद और रंगत में मांस जैसी बनाई गई सब्जियां (मूंग दाल की कलेजी या मछली की तरह पकाई गई अरवी), बादाम पसंदे की तरह मांस के व्यंजन (बादाम और पिस्ता से सजाए गए मांस के टुकड़ों वाली करी), दिल्ली के माथुरों के यहां का खास व्यंजन यखनी पुलाव (चावल में हल्का मसाला डालकर पकाया गया), मुंह में घुल जाने वाला शामी कबाब (पुदीना, प्याज और हरी मिर्च से युक्त मीट वाली पैटी) और कच्चे कीमे के कोफ्ते (ग्रेवी में पका हुआ कीमा) उनके कुछ बेहद खास व्यंजन हैं।
यह क्षेत्रीय खाना नहीं
कायस्थ कुजीन बेजोड़ है, क्योंकि यह क्षेत्रीय खाना नहीं है। यह समुदाय पूरे भारत में फैला हुआ है- दिल्ली और उत्तर प्रदेश-बिहार से लेकर बंगाल और हैदराबाद तक। विशाल कहती हैं, यह एक अखिल भारतीय व्यंजन है, जिसमें मुगल और ब्रिटिश प्रभाव और कुछ स्थानीय-क्षेत्रीय रंगत एक साथ आए हैं।
मीट के बिना कोई दावत नहीं
कायस्थ परिवारों में बकरे के गोश्त (मटन) के बिना कोई दावत नहीं हो सकती। मुगलों की तरह ही कायस्थों ने भी मटन से कई तरह के लजीज व्यंजन बनाए। उनके यहां चिकन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता और मछली को कभी-कभार ही खाने में रखा जाता है। अधिकतर कायस्थ घरों में दो रसोईघर होते थे- एक शाकाहारी भोजन के लिए और दूसरा मांसाहारी भोजन के लिए। दूसरा रसोईघर थोड़ा बाहर होता था। विशाल याद करती हैं कि कैसे कट्टर शाकाहारी होने के बावजूद उनकी बड़ीमा (दादी) दशहरे पर खुद सबसे शानदार मांसाहारी भोजन के साथ आती थीं। उन्होंने बताया, दशहरे पर कलिया (घरेलू अंदाज वाला मीट) और पूरी की दावत जरूर होती थी। रोजाना सुंदरकांड का पाठ करने वाली बड़ीमा इसे शुभ मानती थीं। हालांकि मुस्लिम परिवारों की तरह मीट में टमाटर डालना पाप माना जाता था। खट्टापन लाने के लिए कचरी पाउडर या दही का उपयोग किया जाता था।
शेफ सुगंधा सक्सेना कहती हैं कि कायस्थों को अकसर ‘हिंदुओं के मुसलमान’ कहा जाता था, क्योंकि उनकी और मुस्लिमों की संस्कृति के बीच समानता थी। उनकी दादी गायत्री सक्सेना आगरा की एक कायस्थ थीं। सुगंधा याद करती हैं, उनके खाना पकाने में जबरदस्त मुस्लिम असर दिखता था। वे सुगंध (एसेंस) का इस्तेमाल करती थीं। कुछ करी, कोफ्ता और कबाब में गुलाब और केवडे़ की सुगंध डाली जाती थी। होली के दौरान वह स्कॉच के साथ गुर्दे कपूर (बकरे के गुर्दे से बना) परोसती थीं। उनका खरे मसाला गोश्त (साबुत मसालों के साथ पकाया जाने वाला मटन) और मटन की चटनी समान रूप से पसंद की जाती थी। एक अन्य मुगल प्रभाव था सुल्तानी दाल, जो उड़द की दाल, दूध और केसर से बनती थी। सुगंध ने बताया कि स्वादिष्ट, मलाईदार और सुगंधित, वह एक सच्ची खुशी थी।
गरम मसाले का जादू
सुगंधा के मुताबिक, उनकी दादी के खाने में जो पूर्णता आती थी, वह गरम मसाले के कारण आती थी। उनके रसोईघर में मानक गरम मसाला जैसी कोई चीज नहीं थी। वह बताती हैं कि आज भी हम बाजार से गरम मसाला कभी नहीं खरीदते। गरम मसाला बनाने के लिए हर रेसिपी में मसालों के अलग-अलग अनुपात की आवश्यकता होती है। वह धूप में सुखाया गया होना चाहिए या तवे पर भूना हुआ। यह इस पर निर्भर करता है कि आप कैसा स्वाद चाहते हैं।
नाश्ता सिर्फ शगल नहीं था
नाश्तों की अपनी अलग पहचान थी। वे हमेशा सावधानीपूर्वक तैयार किए जाते थे और आनंद के साथ परोसे जाते थे। सुगंधा बताती हैं कि हर दिन शाम चार बजे से पांच बजे के बीच ज्यादातर घरों में कचौड़ियां तली जाती थीं। आलू-प्याज की कचौड़ी और दाल की कचौड़ी इनमें शामिल थीं, जो अदरक, लहसुन और हरी मिर्च से बनी हरी चटनी के साथ परोसी जाती थीं। यह एक अहम रिवाज था। मेरी दादी पास-पड़ोस की नई नवेली बहुआें को यह सब सीखने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। दिवाली के समय कार्ड पार्टियों के दौरान वह आलू की सब्जी और मेथी दाने की चटनी के साथ बेड़मी पूरियां परोसती थीं। शेफ मनीष मेहरोत्रा कायस्थ कुजीन को ‘परिवार के जमावड़े का खाना’ मानते हैं, जिसमें चटपटी चीजें और कुछ स्कॉच भी होता है। उन्होंने बताया कि दूसरों को दावत वाले व्यंजन पकाने के लिए किसी अवसर की आवश्यकता
हो सकती है, जैसे त्योहार या कोई शादी वगैरह।
मगर कायस्थ परिवार ऐसा नहीं करते। उनका खाना सर्वाधिक रचनात्मक तरीके से तैयार किए गए व्यंजनों में से एक होता है, जो प्रयोग, नवाचार और आधुनिकीकरण की काफी गुंजाइश रखता है।