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फ़ूड हैबिट्स आफ KayasthA; कायस्थों का खाना पीना देख जीभ लपलपकाए, कायस्थ परिवारों में बकरे के गोश्त (मटन) के बिना कोई दावत नहीं

भारतीय भोजन हमें दिखाता है कि कुछ भी खास नहीं है। हम कायस्थ व्यंजनों (कुजीन) में हिंदू और मुस्लिम प्रभावों के साथ-साथ थोड़ा औपनिवेशिक प्रभाव भी देख सकते हैं। जिस तरह हम विविध परंपराओं का मिश्रण हैं, उसी तरह हमारे भोजन में भी विविध प्रभावों का मेल है।

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खाना एक ऐसी चीज हैं, जो हर समुदाय और धर्म के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ती है। सदियों से खाने ने विभिन्न समुदायों को आपस में जोड़ने में मदद की है। बेतुके विवादों के मौजूदा दौर में कायस्थ समुदाय का पारंपरिक खाना भारत की मेलजोल वाली विविधतापूर्ण रसोई का एक सुंदर उदाहरण पेश करता है।
इस खाने में पाककला की विभिन्न परंपराओं को कुशलतापूर्वक और मनोरम अंदाज में मिलाया गया है। लेखिका, आलोचक और इतिहासकार अनूठी विशाल कहती हैं, ‘भारतीय भोजन हमें दिखाता है कि कुछ भी खास नहीं है। हम कायस्थ व्यंजनों (कुजीन) में हिंदू और मुस्लिम प्रभावों के साथ-साथ थोड़ा औपनिवेशिक प्रभाव भी देख सकते हैं। जिस तरह हम विविध परंपराओं का मिश्रण हैं, उसी तरह हमारे भोजन में भी विविध प्रभावों का मेल है।’ अनूठी ने हाल ही में इंडियन एक्सेंट, द लोधी, नई दिल्ली में कायस्थ कुजीन को लेकर एक आयोजन किया, जिसमें मशहूर शेफ मनीष मेहरोत्रा की बनाई कई नई चीजें भी शामिल थीं।
खाद्य इतिहासकार राणा सफवी के मुताबिक, कायस्थ कुजीन लोगों को जोड़ने वाली चीज है। यह एक ऐसी परंपरा है, जो भारत की संस्कृति और खानपान के समावेशी मिजाज को  खूबसूरती से दर्शाती है। राणा कहती हैं कि मैं कई कायस्थ मित्रों के साथ रहते हुए बड़ी हुई। उनका भोजन स्वादिष्ट और हमारे जैसा ही है। जब तोड़ने की इतनी बातें खड़ी की जा रही हैं, तो मुझे खुशी है कि हम उन खानों के बारे में बातें करते हैं, जो जोड़ता है। खाना हमें राहत देता है और जोड़ता है। उन्होंने कहा कि किसी दिन कड़वाहट की बजाय हमें कोफ्ता या करेला ही दे दो।
भारत की सामासिक संस्कृति का जश्न
सक्सेना, श्रीवास्तव और माथुर जैसे उपनामों के साथ कायस्थ मुगल शासकों के दरबार में पारंपरिक रूप से मुंशी (कातिब) हुआ करते थे। वे खुद को चित्रगुप्त का वंशज मानते हैं। चित्रगुप्त मृत्यु के देवता यमराज के मुंशी हैं। एक मुंशी का वंशज होने के नाते किसी कायस्थ के लिए सुशिक्षित होना महत्वपूर्ण है। विरासत को सहेजने में लगे अनिलचंद्र कहते हैं कि वे पहले-पहल मध्यकालीन भारत में, अदालत की भाषा फारसी में दस्तावेज लिखते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। विशाल बताती हैं कि कायस्थों का जिक्र सबसे पहले आईन-ए-अकबरी में अदालत के वरिष्ठ अधिकारियों के रूप में मिलता है।
मुस्लिम दस्तरखान ने उनकी उत्सुकता बढ़ा दी, जिसके बाद उन्होंने खाने की कई नई और शानदार चीजें बनाईं। विशाल ने अपनी किताब ‘मिसेज एलसी’ज टेबल : कायस्थ फूड एंड कल्चर’ में बताया है कि जिसे कायस्थ कुजीन कहा जाता है, उसके विकास की कहानी क्या है। नए शासक, जो ज्यादातर मध्य एशिया से आए थे, परिष्कृत स्वादिष्ट व्यंजनों के अभ्यस्त थे। उन व्यंजनों में पिसा हुआ मसाला या ग्रेवी नहीं होती थी। उन्होंने साबुत काली मिर्च, काली इलायची, जायफल और जावित्री का उपयोग अपने व्यंजनों को स्वादिष्ट बनाने के लिए किया, जो कायस्थ रसोई की विशेषता बन गया। उनके केप्तेह या किब्बेह जैसे विशिष्ट व्यंजन ग्रेवी के साथ कायस्थों द्वारा बनाए गए थे।
मध्य एशियाई व्यंजनों का करीने से भारतीयकरण किया गया। विशाल बताती हैं, भरवां करेले जैसे व्यंजन को मध्य एशिया के डोलमास में पहचान सकते हैं। डोलमास शिमला मिर्च में टमाटर और वाइनलीफ (अंगूर के पत्ते) व कीमा भर कर बनाया जाता है। मुगलों ने करेले और लौकी जैसी स्थानीय सब्जियों का इस्तेमाल किया और उनमें डोलमास की तरह कीमा भरवाया। कायस्थों ने कीमा की जगह भुना हुआ प्याज और सौंफ जैसे मसालों का इस्तेमाल किया।
कई कुशल मुंशी तरक्की पाकर वरिष्ठ पदों पर पहुंचे। उन्होंने अनुदान में जमीन और खिताब हासिल किए। इससे खाने के इन शौकीनों के पास ज्यादा पैसा आया। अनिलचंद्र कहते हैं कि दही, घी, खोवा या मावा जैसे डेयरी उत्पाद कायस्थ कुजीन का हिस्सा बन गए। खट्टे-मीठे फल और बादाम व पिस्ता जैसे सूखे मेवे करी और कबाब जैसे व्यंजनों में उदारता पूर्वक इस्तेमाल किए जाने लगे।
महिलाएं, जिनमें ज्यादातर शाकाहारी थीं, नए-नए व्यंजन लेकर आईं। बकौल विशाल, खुद मांस नहीं खाने, लेकिन पुरुषों के लिए उसे पकाने वाली महिलाओं ने मांस जैसे कई व्यंजन तैयार किए। दरअसल वे मांस जैसे स्वाद का लुत्फ लेना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने दाल और सब्जियों से मांस से मिलते-जुलते स्वाद वाले व्यंजन तैयार किए।
कुछ बेहद खास व्यंजन
कायस्थों के लिए खाना बनाना एक प्रतिष्ठित कला थी। इसके लिए एकमात्र जिस कसौटी को स्वीकार किया जाता था, वह थी निपुणता। स्वाद और रंगत में मांस जैसी बनाई गई सब्जियां (मूंग दाल की कलेजी या मछली की तरह पकाई गई अरवी), बादाम पसंदे की तरह मांस के व्यंजन (बादाम और पिस्ता से सजाए गए मांस के टुकड़ों वाली करी), दिल्ली के माथुरों के यहां का खास व्यंजन यखनी पुलाव (चावल में हल्का मसाला डालकर पकाया गया), मुंह में घुल जाने वाला शामी कबाब (पुदीना, प्याज और हरी मिर्च से युक्त मीट वाली पैटी) और कच्चे कीमे के कोफ्ते (ग्रेवी में पका हुआ कीमा) उनके कुछ बेहद खास व्यंजन हैं।
यह क्षेत्रीय खाना नहीं
कायस्थ कुजीन बेजोड़ है, क्योंकि यह क्षेत्रीय खाना नहीं है। यह समुदाय पूरे भारत में फैला हुआ है- दिल्ली और उत्तर प्रदेश-बिहार से लेकर बंगाल और हैदराबाद तक। विशाल कहती हैं, यह एक अखिल भारतीय व्यंजन है, जिसमें मुगल और ब्रिटिश प्रभाव और कुछ  स्थानीय-क्षेत्रीय रंगत एक साथ आए हैं।
मीट के बिना कोई दावत नहीं 
कायस्थ परिवारों में बकरे के गोश्त (मटन) के बिना कोई दावत नहीं हो सकती। मुगलों की तरह ही कायस्थों ने भी मटन से कई तरह के लजीज व्यंजन बनाए। उनके यहां चिकन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता और मछली को कभी-कभार ही खाने में रखा जाता है। अधिकतर कायस्थ घरों में दो रसोईघर होते थे- एक शाकाहारी भोजन के लिए और दूसरा मांसाहारी भोजन के लिए। दूसरा रसोईघर थोड़ा बाहर होता था। विशाल याद करती हैं कि कैसे कट्टर शाकाहारी होने के बावजूद उनकी बड़ीमा (दादी) दशहरे पर खुद सबसे शानदार मांसाहारी भोजन के साथ आती थीं। उन्होंने बताया, दशहरे पर कलिया (घरेलू अंदाज वाला मीट) और पूरी की दावत जरूर होती थी। रोजाना सुंदरकांड का पाठ करने वाली बड़ीमा इसे शुभ मानती थीं। हालांकि मुस्लिम परिवारों की तरह मीट में टमाटर डालना पाप माना जाता था। खट्टापन लाने के लिए कचरी पाउडर या दही का उपयोग किया जाता था।
शेफ सुगंधा सक्सेना कहती हैं कि कायस्थों को अकसर ‘हिंदुओं के मुसलमान’ कहा जाता था, क्योंकि उनकी और मुस्लिमों की संस्कृति के बीच समानता थी। उनकी दादी गायत्री सक्सेना आगरा की एक कायस्थ थीं। सुगंधा याद करती हैं, उनके खाना पकाने में जबरदस्त मुस्लिम असर दिखता था। वे सुगंध (एसेंस) का इस्तेमाल करती थीं। कुछ करी, कोफ्ता और कबाब में गुलाब और केवडे़ की सुगंध डाली जाती थी। होली के दौरान वह स्कॉच के साथ गुर्दे कपूर (बकरे के गुर्दे से बना) परोसती थीं। उनका खरे मसाला गोश्त (साबुत मसालों के साथ पकाया जाने वाला मटन) और मटन की चटनी समान रूप से पसंद की जाती थी। एक अन्य मुगल प्रभाव था सुल्तानी दाल, जो उड़द की दाल, दूध और केसर से बनती थी। सुगंध ने बताया कि स्वादिष्ट, मलाईदार और सुगंधित, वह एक सच्ची खुशी थी।
गरम मसाले का जादू
सुगंधा के मुताबिक, उनकी दादी के खाने में जो पूर्णता आती थी, वह गरम मसाले के कारण आती थी। उनके रसोईघर में मानक गरम मसाला जैसी कोई चीज नहीं थी। वह बताती हैं कि आज भी हम बाजार से गरम मसाला कभी नहीं खरीदते। गरम मसाला बनाने के लिए हर रेसिपी में मसालों के अलग-अलग अनुपात की आवश्यकता होती है। वह धूप में सुखाया गया होना चाहिए या तवे पर भूना हुआ। यह इस पर निर्भर करता है कि आप कैसा स्वाद चाहते हैं।
नाश्ता सिर्फ शगल नहीं था
नाश्तों की अपनी अलग पहचान थी। वे हमेशा सावधानीपूर्वक तैयार किए जाते थे और आनंद के साथ परोसे जाते थे। सुगंधा बताती हैं कि हर दिन शाम चार बजे से पांच बजे के बीच ज्यादातर घरों में कचौड़ियां तली जाती थीं। आलू-प्याज की कचौड़ी और दाल की कचौड़ी इनमें शामिल थीं, जो अदरक, लहसुन और हरी मिर्च से बनी हरी चटनी के साथ परोसी जाती थीं। यह एक अहम रिवाज था। मेरी दादी पास-पड़ोस की नई नवेली बहुआें को यह सब सीखने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। दिवाली के समय कार्ड पार्टियों के दौरान वह आलू की सब्जी और मेथी दाने की चटनी के साथ बेड़मी पूरियां परोसती थीं। शेफ मनीष मेहरोत्रा कायस्थ कुजीन को ‘परिवार के जमावड़े का खाना’ मानते हैं, जिसमें चटपटी चीजें और कुछ स्कॉच भी होता है। उन्होंने बताया कि दूसरों को दावत वाले व्यंजन पकाने के लिए किसी अवसर की आवश्यकता
हो सकती है, जैसे त्योहार या कोई शादी वगैरह। 
मगर कायस्थ परिवार ऐसा नहीं करते। उनका खाना सर्वाधिक रचनात्मक तरीके से तैयार किए गए व्यंजनों में से एक होता है, जो प्रयोग, नवाचार और आधुनिकीकरण की काफी गुंजाइश रखता है।
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(खुद कायस्थ हूं. कुछ चटोरा और कुछ कभी-कभी रसोई में हाथ आजमा लेने वाला. आमतौर पर शाकाहारी. चार- छह महीने में कभी अपनी लिमिट में मदिरासेवी. पिछले दिनों संभाल कर रखा कायस्थों के खानपान पर केंद्रीत किताब “मिसेज एलसीज टेबल” का रिव्यू हाथ लग गया. फिर हाथ मचल उठा कि कायस्थों के खानपान के बारे में कुछ लिखा जाए. कुछ ज्यादा ही लंबा लिख गया हूं. लिहाजा  किश्तों में इसे पेश करता रहूंगा.)
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बनारस के अर्दली बाजार में काफी बड़ी संख्या में कायस्थ रहते हैं. अगर आप रविवार को यहां के मोहल्लों से दोपहर में निकलें तो हर घर के बाहर आती खाने की गंघ बता देगी कि अंदर क्या पक रहा है. ये हालत पूर्वी उत्तर प्रदेश के तकरीबन उन सभी जगहों की है, जहां कायस्थ अच्छी खासी तादाद में रहते हैं. बात कुछ पुरानी है. अर्दली बाजार में कजिन के साथ घूम रहा था. पकते लजीज मीट की खुशबु बाहर तक आ रही थी. कजिन ने मेरी ओर देखा,  तपाक से कहा, “ललवन के मुहल्लवां से जब संडे में निकलबा त पता लग जाई कि हर घर में मटन पकत बा.”
हकीकत यही है. उत्तर भारत में अब भी अगर आप किसी कायस्थ के घर संडे में जाएं तो किचन में मीट जरूर पकता मिलेगा. पूर्वी उत्तर प्रदेश में कायस्थों को लाला भी बोला जाता है. देशभर में फैले कायस्थों की खास पहचान का एक हिस्सा उनका खान-पान है. संडे में जब कायस्थों के घर जब मीट बनता है तो अमूमन बनाने का जिम्मा पुरुष ज्यादा संभालते हैं. मैने मौसाओं को बखूबी ये काम करते देखा है.
मैं ऐसे घर का हूं, जहां मेरे पिता पक्ष में कोई मीट नहीं खाता. मां पक्ष में नाना पक्के सत्संगी लेकिन नानी को खूब शौक था. जौनपुर के ननिहाल में हर संडे नानी की रसोई हमेशा मुख्य रसोई से परे खिसक जाती थी, बर्तन भी अलग होते थे. क्योंकि उस दिन वो मीट बनाती थीं. वो इसे कैसे बनाती थीं. वो कितना लजीज होता था, ये किस्सा आगे. जिसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के कायस्थों की रसोई और खान-पान के बारे में चर्चा करूंगा.
पिछले शनिवार और रविवार जब मैं किताबों और कागजों से कबाड़ हल्का कर रहा था, तब फ्रंटलाइन में छपा एक रिव्यू हाथ आ गया. जो काफी समय पहले पढ़ने के लिए रखा था. शायद इसलिए, क्योंकि वो उस किताब का रिव्यू था जो कायस्थों के खानपान पर आधारित है. इस की काफी तारीफ तब अखबारों और पत्रिकाओं में आई थी. किताब का नाम है “मिसेज एलसीज टेबल”. इसकी लेखिका हैं अनूठी विशाल. मिसेज एलसी मतलब मिसेज लक्ष्मी चंद्र माथुर. और टेबल यानि उनके लजीज पाकशाला से सजी टेबल.
माना जाता है कि भारत में लजीज खानों की खास परंपरा कायस्थों के किचन से निकली है. कायस्थों में तमाम तरह सरनेम हैं. कहा जाता है कि खान-पान असली परंपरा और रवायतों में माथुर कायस्थों की देन ज्यादा है. खाने को लेकर उन्होंने खूब इनोवेशन किया. कायस्थों की रसोई के खाने अगर मुगल दस्तरख्वान का फ्यूजन हैं तो बाद में ब्रिटिश राज में उनकी  अंग्रेजों के साथ शोहबत भी.हालांकि पूर्वी उत्तर प्रदेश खासकर इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, जौनपुर में रहने वाले श्रीवास्तव भी खुद को कुछ कम नहीं मानते.
मेरे एक बॉस अक्सर मीटिंग कायस्थों के लाजवाब खानपान पर चर्चा करते थे. उनका मानना था कि कायस्थों को अपने बेहतरीन खानपान के कारण होटल जरूर चलाना चाहिए. उनका कहना होता था कि कायस्थ अगर खानपान की पुरानी परंपरा को जीवित कर लें तो उनसे बेहतर ये काम कोई कर ही नहीं सकता.
कहा जाता है कि कायस्थों की जमात तब उभर कर आई, जब मुगल भारत आए. फारसी में लिखा-पढ़ी, चकबंदी और अदालती कामकाज के नए तौरतरीके शुरू हुए. कायस्थों ने फटाफट फारसी सीखी और मुगल बादशाहों के प्रशासन, वित्त महकमों और अदालतों में मुलाजिम और अधिकारी बन गए. कायस्थ हमारी पुरातन सामाजिक जाति व्यवस्था में क्यों नहीं हैं, ये अलग चर्चा का विषय है. इसके बारे में भी कई मत हैं. कोई उन्होंने शुद्रों से ताल्लुक रखने वाला तो कोई ब्राह्मणों तो कुछ ग्रंथ क्षत्रियों से निकली एक ब्रांच मानते हैं.
लेखक अशोक कुमार वर्मा की एक किताब है, “कायस्थों की सामाजिक पृष्ठभूमि”. वो कहती है, “जब मुगल भारत आए तो कायस्थ मुस्लिमों की तरह रहने लगे. उनके खाने के तौरतरीके भी मुस्लिमों की तरह हो गए. वो बीफ छोड़कर सबकुछ खाते थे. मुगलों के भोजन का आनंद लेते थे. मदिरासेवी थे.”
14वीं सदी में भारत आए मोरक्कन यात्री इब्न बबूता ने अपने यात्रा वृत्तांत यानि रिह्‌ला में लिखा, “मुगलों में वाइन को लेकर खास आकर्षण था. अकबर के बारे में भी कहा जाता है कि वो शाकाहारी और शराब से दूर रहने वाला शासक था. कभी-कभार ही मीट का सेवन करता था. औरंगजेब ने तो शराब सेवन के खिलाफ कानून ही पास कर दिया था. अलबत्ता  उसकी कुंवारी बहन जहांआरा बेगम खूब वाइन पीती थी. जो विदेशों से भी उसके पास पहुंचता था. हालांकि अब मदिरा सेवन में कायस्थ बहुत पीछे छूट चुके हैं. लेकिन एक जमाना था जबकि कायस्थों के मदिरा सेवन के कारण उन्हे ये लेकर ये बात खूब कही जाती थी.
“लिखना, पढ़ना जैसा वैसा
दारू नहीं पिये तो कायस्थ कैसा”
वैसे पहले ही जिक्र कर चुका हूं. जमाना बदल गया है. खानपान और पीने-पिलाने की रवायतें बदल रही हैं. हरिवंशराय बच्चन दशद्वार से सोपान तक में लिख गए, ” मेरे खून में तो मेरी सात पुश्तों के कारण हाला भरी पड़ी है, बेशक मैने कभी हाथ तक नहीं लगाया.”.
(अगली कड़ी कल)
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कायस्थ हमेशा से खाने-पीने के शौकीन रहे हैं. लेकिन ये सब भी उन्होंने एक स्टाइल के साथ किया. आज भी अगर पुराने कायस्थ परिवारों से बात करिए या उन परिवारों से ताल्लुक रखने वालों से बात करिए तो वो बताएंगे कि किस तरह कायस्थों की कोठियों में बेहतरीन खानपान, गीत-संगीत और शास्त्रीय सुरों की महफिलें सजा करती थीं. जिस तरह बंगालियों के बारे में माना जाता है कि हर बंगाली घर में आपको अच्छा खाने-पीने, गाने और पढ़ने वाले लोग जरूर मिल जाएंगे, कुछ वैसा ही कायस्थों को लेकर कहा जाता रहा है.
जिस किताब का जिक्र मैने आपसे पहली कड़ी में किया, उसका नाम है मिसेज एलसीज टेबल. अनूठी विशाल की ये किताब तमाम ऐसे व्यंजनों की बात करती है, जिसका इनोवेशन केवल कायस्थों के किचन में हुआ.
मसलन देश में भरवों और तमाम तरह के पराठों का जो अंदाज आप अब खानपान में देखते हैं, वो मुगलों की पाकशाला से जरूर निकले लेकिन उसका असली भारतीयकरण कायस्थों ने किया. मुगल जब भारत आए तो उन्हें भारत में जो यहां की मूल सब्जियां मिलीं, उसमें करेला, लौकी, तोरई, परवल और बैंगन जैसी सब्जियां थीं. उनके मुख्य खानसामा ने करेला और परवल को दस्तरख्वान के लिए चुना, क्योंकि उन्हें लगा कि ये मुगल बादशाह और उनके परिवार को पसंद आएगी. लेकिन उन्होंने एक काम और किया. इन दोनों सब्जियों के ऊपर चीरा लगाकर उन्होंने इसे अंदर से खाली किया और भुना हुआ मीट कीमा डालकर इसे तंदूर में पकाया. बेशक ये जायका लाजवाब था. कायस्थों ने इसे अपने तरीके से पकाया. उन्होंने करेला, बैंगन, परवल में सौंफ, लौंग, इलायची, आजवाइन, जीरे और धनिया जैसे मसालों और प्याज का मिश्रण भरा. कुछ दशक पहले तक किसी और घर में पूरे खड़े मसालें मिलें या नहीं मिलें लेकिन कायस्थों के घरों में ये अलग-अलग बरनियों या छोटे डिब्बों में मौजूद रहते थे. उन्हें हर मसाले की खासियतों का अंदाज था. खैर बात भरवों की हो रही है. खड़े मसालों को प्याज और लहसुन के साथ सिलबट्टे पर पीसा जाता था. बने हुए पेस्ट को कढ़ाई पर भुना जाता था. फिर इसे करेला, बैंगन, परवल, आलू, मिर्च आदि में अंदर भरकर कड़ाही में तेल के साथ देर तक फ्राई किया जाता था. कड़ाही इस तरह ढकी होती थी कि भुनी हुई सब्जियों से निकल रही फ्यूम्स उन्हीं में जज्ब होती रहे. आंच मध्यम होती थी कि वो जले भी. बीच-बीच में इतनी मुलायमित के साथ उस पर कलछुल चलाया जाता था कि हर ओर आंच प्रापर लगती रहे.
दरअसल देश में पहली बार भरवों की शुरुआत इसी अंदाज में कायस्थों के किचन में हुई. हर मसाले के अपने चिकित्सीय मायने भी होते थे. यहां तक मुगलों के बारे में भी कहा गया है कि मुगल पाकशाला का मुख्य खानसामा हमेशा अगर किसी नए व्यंजन की तैयारी करता था तो शाही वैद्य से मसालों के बारे में हमेशा राय-मश्विरा जरूर कर लेता था.
चूंकि कायस्थ दरबारों में बड़े और अहम पदों पर थे लिहाजा मुगलिया दावत में आमंत्रित भी रहते थे. 1526 में बाबर ने जब भारत में मुगल वंश की नींव रखी तो अपने साथ मुगल दस्तख्वान भी भारत ले आया. तकरीबन सभी मुगलिया शासक खाने के बहुत शौकीन थे. जहांगीर तो अपनी डायरियों तक में खानपान का जिक्र करता था. अकबर के समय में उनके इतिहासकार अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी और अकबरनामा में उस दौर के खानपान का भरपूर जिक्र किया है. इब्नबबूता ने भी अपने यात्रा वृतांत में भी इसका जिक्र किया है. ये वो दौर था जब मुगल खानपान में ड्रायफ्रुट्स, किशमिश, मसालों और घी का भरपूर प्रयोग होता था. इसे वो अपने साथ यहां भी लाए थे. यानि कहा जा सकता है कि मुगल पाकशाला के साथ खानों की नई शैली और स्वाद भी आया था. ऐसा नहीं है कि भारत में ये सब चीजें होती नहीं थीं या इनका इस्तेमाल नहीं होता था लेकिन इन सारी ही खाद्य सामग्रियों को लेकर तमाम पाबंदियां और बातें थीं.
कायस्थ मुगल दस्तरख्वान के ज्यादातर व्यंजनों को अपनी रसोई तक ले गए लेकिन अपने अंदाज और प्रयोगों के साथ. फर्क ये था कि कायस्थों ने शाकाहार का भी बखूबी फ्यूजन किया. मांसाहार के साथ भी कायस्थों ने ये काम किया. कवाब से लेकर मीट और बिरयानी तक का बखूबी नया अंदाज कायस्थों की रसोई में मिलता रहा.
बिरयानी की भी एक रोचक कहानी है. कहा जाता है कि एक बार मुमताज सेना की बैरक का दौरा करने गईं. वहां उन्होंने मुगल सैनिकों को कुछ कमजोर पाया. उन्होंने खानसामा से कहा कि ऐसी कोई स्पेशल डिश तैयार करें, जो चावल और मीट से मिलकर बनी हो, जिससे पर्याप्त पोषण मिले. जो डिश सामने आई, वो बिरयानी के रूप में थी. बिरयानी में अगर मुगल दस्तरख्वान ने नए नए प्रयोग किए तो कायस्थों ने बिरयानी के इस रूप को सब्जियों, मसालों के साथ शाकाहारी अंदाज में भी बदला. चावल को घी के साथ भुना गया. सब्जियों को फ्राई किया गया. फिर इन दोनों को मसाले के साथ मिलाकर पकाया गया, बस शानदार तहरी या पुलाव तैयार.
अपने घरों में आप चाव से जो पराठे खाते हैं. वो बेशक मुगल ही भारत लेकर आए थे. दरअसल मुगलों की दावत में कायस्थों ने देखा कि फूली हुई रोटी की तरह मुगलिया दावत में एक ऐसी डिश पेश की गई, जिसमें अंदर मसालों में भुना मीट भरा था. इन फूली हुई रोटियों को धी से सेंका गया था. खाने में इसका स्वाद गजब का था. कायस्थों ने इस डिश को रसोई में जब आजमाया तो इसके अंदर आलू, मटर आदि भरा. ये कायस्थ ही थे. जिन्होंने उबले आलू, उबली हुई चने की दाल, पिसी हरी मटर को आटे की लोइयों के अंदर भरकर इसे बेला और सरसों तेल में सेंका तो लज्जतदार पराठा तैयार था. जब अगली बार आप अगर पराठे वाली गली में कोई पराठा खा रहे हों या घर में इसे तैयार कर रहे हों और ये मानें कि ये पंजाबियों की देन हैं तो पक्का मानिए कि आप गलत हैं. असलियत में ये कायस्थों की रसोई का फ्यूजन है.
बात सरसो तेल और घी की चली है, तो ये भी बताता चलता हूं कि इन दोनों का इस्तेमाल भारतीय खाने में बेशक होता था लेकिन बहुत सीमित रूप मे .
मशहूर खानपान विशेषज्ञ केटी आचार्य की किताब ए हिस्टोरिकल कंपेनियन इंडियन फूड में कहा गया है कि चरक संहिता के अनुसार, बरसात के मौसम में वेजिटेबल तेल का इस्तेमाल किया जाए तो वसंत में जानवरों की चर्बी से मिलने वाले घी का. हालांकि इन दोनों के ही खानपान में बहुत कम मात्रा में इस्तेमाल की सलाह दी जाती थी. प्राचीन भारत में तिल का तेल फ्राई और कुकिंग में ज्यादा इस्तेमाल किया जाता था. उस दौर में कहा जाता था कि गैर आर्य राजा जमकर घी-तेल का इस्तेमाल करके ताकत हासिल करते हैं. प्राचीन काल में सुश्रुत मानते थे ज्यादा घी-तेल का इस्तेमाल पाचन में गड़बड़ी पैदा करता है. सुश्रुत ने जिन 16 खाद्य तेलों को इस्तेमाल के लिए चुना था, उसमें सरसों को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था. इसके चिकित्सीय उपयोग भी बहुत थे. (ये आगे भी जारी रहेगा)

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खाना अक्सर पुरानी यादों को जोड़ता है. ये भी कहते हैं कि खाना एक-दूसरे को जोड़ता है. खाना हमारे तौरतरीकों, लिहाज और परंपराओं को जाहिर करता है. कायस्थों का खाना भी ऐसा ही है. हम आज जो खाते-पीते हैं, वो कई कल्चर्स का फ्यूजन है. ये विदेशी व्यापारियों, यात्रियों, बाहर की यात्रा पर गए हमारे लोगों के साथ मुगलिया और ब्रितानी राज की देन माना जाता है. हालांकि इतिहासकारों का मानना है कि जब ग्रीक हमलावर के तौर पर पश्चिमी सीमांत इलाकों तक आए तो उनके खानों का भी भारत में फ्यूजन हुआ. हर खाने, मसालों, सब्जियों, मिष्ठानों और पेय की अपनी कहानियां हैं. कहना चाहिए कि भारतीय खानपान में फ्यूजन का तड़का डालने का काम कायस्थों ने काफी कुछ किया.
कायस्थ पहले तो लंबे समय तक कई राज्यों और रियासतों के शासक रहे. मुगल और अंग्रेज राज आया तो उन्हें महत्वपूर्ण ओहदों और पोजिशन मिलीं.  उनकी रसोई भी उसी तरह समृद्ध होती गई. उन्होंने तमाम खाने को नए रंग-रूप दिया. राजस्थान से लेकर उत्तर भारत और बंगाल, असम से लेकर हैदराबाद तक फैले कायस्थों ने तमाम तरह खानों को विविधता दी. मुगल जब भारत आए तो वो ग्रेवी वाले खानों की बजाए स्टफ्ड खाना खाते थे. लेकिन उनके व्यंजनों को मांसाहार से लेकर शाकाहार में ग्रेवी के साथ मिश्रित करने का काम कायस्थों ने किया.
केटी आचार्या की किताब “ए हिस्टोरिकल कंपेनियन इंडियन फूड” कहती है, “वर्ष 1126 से 1138 तक हैदराबाद से 160 किलोमीटर दूर बीदर रियासत के राजा सोमेश्वर को मीट खाने का बहुत शौक था. मीट को हल्दी, लहसुन के पेस्ट के साथ मेरीनेट करने का काम उसी ने शुरू करवाया था. राजा सोमेश्वर काफी विद्वान था. उसने तब 100 अध्यायों की एक किताब लिखी थी, जिसमें प्रशासन से लेकर ज्योतिष और पाक कला के बारे में लिखा गया था. सोमेश्वर मछली, क्रैब और भेड़ (पोर्क भी) को भुनवाता और सरसों तेल से उन्हें फ्राई कराता था. हालांकि मैं साफ कर दूं कि भारत में मसालेदार करी या ग्रेवी का इतिहास ईसा से 2000 साल पहले मिलता है.
मैं कायस्थ कुजीन पर किताब” मिसेज एलजी टेबल” लिखने वाली अनूठी विशाल का एक इंटरव्यू पढ़ रहा था, जिसमें उन्होंने बताया कि किस तरह कायस्थों ने कोफ्ते और अन्य व्यंजनों को ग्रेवी से जोड़ा. फिर बिरयानी, कबाब, कोफ्ता और हलवा जैसे व्यंजनों का देशीकरण करने के ना जाने कितने तरीके अपनाए. इनके विविध रूप और कैसे आते चले गए. उसके बारे में आगे बताऊंगा. हलवा मूल रूप से फारस की देन है. 07वीं शताब्दी में इसका पहली बार जब जिक्र हुआ तो इसे हलवन कहा जाता था. फिर 09 सदी में इसे खजूर और दूध मिलाकर बनाने का उल्लेख मिलता है. लेकिन जब ये मुगलों के साथ भारत आय़ा तो इसे आटा से लेकर सूजी, बेसन, मूंग दाल, आलू, कद्दू, शकरकंदी और कई तरह के ड्राइफ्रूट्स, दूध मिलाकर बनाया गया. जिसमें कायस्थों ने खास भूमिका अदा की. इसमें सामग्री को भूनने, घी, तेल और पानी की संतुलित मात्रा में मिलाने के साथ उचित समय पर दूध मिलाने का पूरा खास तरीका था. तब आजकल की तरह गैस के चूल्हे नहीं थे. तब आमतौर पर लकड़ी के चूल्हों का इस्तेमाल होता था. इन चूल्हों में तापमान को नियंत्रित करने के अपने तौरतरीके थे. पीतल और कांसे के बर्तनों के साथ मिट्टी के बर्तनों का अपना महत्व था.
किचन में आजकल की तरह ज्यादा उपकरण नहीं थे. मसालों की पिसाई सिलबट्टों पर होती थी. सील को समय समय पर छेनी से टांका जाता था. इसका अलग विज्ञान था. ताकि उस पर मसाला पुख्ता तरीके से पिसा जा सके. लोहे से लेकर पत्थर के खल-मूसर थे, जिसमें खड़े मसाले से लेकर नमक, गुड़ और अन्य खानपान की सामग्रियों को कूटा जाता था. रोज हाथ की पत्थर की चक्की का इस्तेमाल होता था. हर रसोई में कम से कम पत्थर के बने ये उपकरण होते ही होते थे. दूध और अन्य सामग्रियों को ओटने के लिए बड़ी-बड़ी मथनियां हुआ करती थींं. पानी मिट्टी के घड़ों से लेकर पीतल और कांसे के पात्रों में रखा जाता था. तेल और घी को आमतौर पर चीनी मिट्टी के मर्तबान में रखा जाता था.
कायस्थ खान-पान में ये सब इसलिए कर पाए, क्योंकि हिंदू जाति संरचना के बीच एक ऐसे वर्ग के तौर पर उभरे थे, जो अपने परिवेश से लेकर खानपान, रहन-सहन और कल्चर को लेकर काफी लिबरल और प्रयोगवादी दृष्टिकोण के थे. अक्सर वो उलाहनाओं का भी शिकार हुए. हालांकि वो इस लेख का विषय नहीं है.
कोई खानपान तभी आगे बढ़ पाता है, जबकि उसमें जायजा, लज्जत, स्वाद और खास स्टाइल हो. साथ ही वो प्रयोगों की यात्रा से भी बावस्ता होता रहे. कायस्थों की रसोई इस मामले में हमेशा आगे रही. कई बार कायस्थों ने मुगलों को भारतीय खाने को लेकर सुझाव भी दिए. औरंगजेब अपने पूर्ववर्ती मुगल शासकों की तरह मांसाहार को कम पसंद करता था. उसे शाकाहार ज्यादा पसंद था. उसे उसके दरबारी कायस्थों ने खास पंचमेल दाल से रू-ब-रू कराया. कुबोली की किताब रुकत-ए-आलमगीरी खासतौर पर इसका जिक्र करती है. औरंगजेब को शाकाहारी ड्रायफ्रूट्स वाली बिरयानी पसंद आती थी. साथ ही वो पंचमेल दाल, जो राजस्थानी रसोई से निकलकर आई थी. माथुर मानते हैं कि ये दाल खासतौर पर उनके किचन में पहले आजमाई गई थी. अबुल फजल आइने अकबरी में लिखते हैं कि अकबर के राज में खानपान पर एक पूरा मंत्रालय ही बना दिया गया था, जिसमें कायस्थ भी थे.

 

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कहा जाता है कि जिन दिनों अंग्रेजों के जमाने में दिल्ली देश की राजधानी के तौर पर एक बड़ा शहर बन रहा था,तब राजस्थान के कुछ माथुर यहां आकर बसे. जिन्होंने कायस्थ खानपान से दिल्ली को परिचित कराया.
महेश्वर दयाल की किताब “दिल्ली जो एक शहर था” में कहा गया, “दिल्ली के कायस्थ घरों में बड़ा उम्दा खाना बनता था. दिल्ली के माथुर कायस्थों के यहां गोश्त की एक किस्म बड़ी स्वादिष्ट बनती थी, जिसे शबदेग कहा जाता था. गोश्त को कई सब्जियों में मिलाकर और उसके अंदर कई खास मसाले डालकर घंटे घीमी आंच पर पकाया जाता था. मछली के कोफ्ते और अदले, पसंदे रोज खाए जाते थे.”
ये किताब कहती है, “कायस्थों के घरों में अरहर, उड़द और मसूर की दाल भी बहुत उम्दा बनती थी. अरहर और उड़द की दाल में एक – एक दाना अलग अलग नजर आता था. कायस्थ घरों में बेसन के टके-पीसे भी सब्जी के तौर पर बनाए जाते थे. बेसन का एक गोल रोल सा तैयार करके उसे उबालकर उसके गोल-गोल रोल सा तैयार करके उसके गोल-गोल टके पीसे काटकर उसकी रसेदार सब्जी बनाते थे. उसे इतना स्वादिष्ट समझा जाता था कि यहीं से वो कहावत मशहूर हुई, ये मुंह और मसूर की दाल.”
“दिल्ली का असली खाना” में प्रीति नारायण का कहना है, “माथुरों ने बकरे के मांग और जिगर की तर्ज पर शाकाहारी व्यंजन तैयार किए. दाल को भिगोकर उसकी पीठी तैयार की जाती थी, जिससे दाल की कलेजी और दाल का कीमा बनाया जाता था. किसी भी सब्जी से कोफ्ते तो कच्चे हरे केले से केले का पसंदा बनाया जाता था.”
विनोद दुआ के खान-पान से संबंधित एक टीवी प्रोग्राम में मैने देखा था कि उन्होंने दिल्ली के सिविल लाइंस में रहने वाले माथुर कायस्थों की पाकशाला आनंद लेते हुए उन्होंने उनके कई खास व्यंजनों की नुमाइश की. जिसमें आलू के कुल्ले (स्टफ्ड आलू), शामी कबाब, मटन कोफ्ता और चने की दाल के व्यंजन थे.
“दिल्ली शहर दर शहर” पुस्तक में निर्मला जैन लिखती हैं, “दिल्ली में कुछ जातियों को छोड़कर बहुसंख्या शाकाहारी जनता की ही थी, इसलिए अधिक घालमेल उन्हीं व्यंजनों में हुआ. मांसाहारी समुदायों में प्रमुखता मुस्लिम और कायस्थ परिवारों की थी. विभाजन के बाद सिख और पंजाब से आनेवाले दूसरे समुदायों के लोग भी बड़ी संख्या में इनमें शामिल हुए. सामिष भोजन के ठिकाने मुख्य रूप से कायस्थ और मुस्लिम परिवारों में या जामा मस्जिद के आसपास के गली-बाजारों तक सीमित थे.”
दिल्ली के खास जानकार और नवभारत टाइम्स में लगातार दिल्ली के बारे में कॉलम लिखने वाले और मेरे मित्र विवेक शुक्ला ने मुझको बताया,” दिल्ली में अब भी माथुर कायस्थों की भरमार है. लगभग सभी non वेज खाते हैं.” मेरे एक और मित्र और पत्रकार संजीव माथुर ने मेरे इसी लेखन के दौरान मुझको फेसबुक पर बताया, “मेरे नाना का पुरानी दिल्ली में आज़ादी के समय प्रसिद्ध होटल था. जिसकी यादों के तार भगतसिंह, चंद्र शेखर आजाद,आई एन ए, बाबा साहेब आदि से जुड़े हैं. यही नहीं खान पान और परंपराओं के आपसी रिश्तों पर भी काफी कुछ है”.
इसी तरह फेसबुक पर कायस्थों के खान-पान पर प्रतिक्रिया देते हुए रंजना सक्सेना जी ने कहा, “मैं भी कायस्थ हूं वो भी पुरानी दिल्ली से. आज भी हम अपनी कायस्थ हवेलियो के खाने और कल्चर का लुत्फ उठा रहे हैं. जैसे ताहिरी, टके पैसे, कीमा कोफ्ता, मसरंगी और जच्चा के लिए बनाया जाने वाला हरीरा भी.”
कायस्थ परिवारों में बकरे के गोश्त (मटन) के बिना कोई दावत नहीं हो सकती. मुगलों की तरह ही कायस्थों ने भी मटन से कई तरह के लजीज व्यंजन बनाए. उनके यहां चिकन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था. मछली को कभी-कभार ही खाने में रखा जाता है. अधिकतर कायस्थ घरों में दो रसोईघर होते थे. एक शाकाहारी भोजन के लिए और दूसरा मांसाहारी भोजन के लिए.
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लखनऊ को नफासत और तहजीब की नगरी कहा जाता है. अगर आप कई शहरों में जीवन गुजार चुके हों. उसमें एक शहर लखनऊ भी हो तो आपसे बेहतर उस शहर को कौन समझ सकता है. पुराने शहर की पुरानी हवेलियों से लेकर पहनावा और बोली से लेकर खानपान तक में खास नफासत और अंदाज. वैसे लखनऊ अब भी काफी हद तक अपनी पुरानी बातों को बचाकर रखा भी है. कम से कम खानपान के मामले में.
चाहे लखनऊ के नान वेज की बात करिए या फिर चाट की या फिर हर सीजन के साथ रसोई में बनने वाले खाने और पकते हुए खाने के साथ आने वाले मसालों की गंध की. पुराने लखनऊ की बात करें तो यहां कायस्थों का बड़ा रूतबा था. अवध के हर रंग में उनकी भूमिका रही है.
अवध का मुख्यालय पहले फैजाबाद था. फिर 1722 में नवाब असाफुदौला उसे लखनऊ ले आए. फिर लखनऊ में कल्चर से लेकर कुजीन यानि खानपान पर बहुत काम हुए. नदीम हसनैन की किताब द अदर लखनऊ कहती है कि जब अवध की राजधानी को नवाब असाफुद्दोला लखनऊ लेकर आए तो एक कायस्थ को दीवान बनाया गया, जो बाद में उनका प्रधानमंत्री बना. इनका नाम था राजा टिकैत राय. उनके नाम पर अब भी लखनऊ से लेकर फैजाबाद तक कई जगहें हैं. उन्होंने कई नए मंदिर, घाट, तालाब, मस्जिदें बनवाईं तो हिंदू महत्व की जगहों रेनोवेट किया. टिकैत राय कायस्थ थे. खाने-पीने के शौकीन. दावतें देने वाले. गीत-संगीत में आनंद लेने वाले. उनके और अन्य उच्च पदासीन कायस्थों की पाकशाला से कई व्यंजन निकले, हालांकि लखनऊ के नामवर कायस्थों की बड़ी फेहरिश्त है.
मटन से तैयार होने वाले कई तरह के व्यंजन,  शामी कबाब, सीख कवाब बेशक कायस्थों की किचन की भी शान थे. बगैर इसके उनका खाना ही नहीं होता था. वैसे लखनऊ को कबाब के कई तरह के इनोवेशन का क्रेडिट जाता है. कायस्थों की एक खास आदत थी वो अक्सर मांसाहारी खानों को बनाने के तौरतरीकों को शाकाहार की कसौटी पर जरूर कसते थे. जो रिजल्ट मिलते थे, वो नए व्यंजन की नींव रखते थे. जैसे लखनऊ ने मांसाहार में कई तरह के कबाब दिए उसी तरह लखनऊ के कायस्थों के जरिए कई तरह के शाकाहारी कबाव भी निकले. इसमें चने की दाल को भिगोकर पीसकर उसमें बेसन और मसालों को मिलाकर बनाया कबाब तो इतना लजीज होता है कि अक्सर मीट खाने वाले भी धोखा खा जाते हैं. चने की दाल जब रातभर के बाद सुबह तक गल चुकी होती है, तो उसे हल्का सा उबाल दिया जाता है. इसके बाद उसे पीसते हैं. तब भुने हुए बेसन की हल्की मात्रा के साथ मसाले, नमक आदि मिलाकर टिक्की का शेप देकर हल्की आंच में तवे पर तेल और घी में धीरे धीरे सेंका जाता है तो लजीज वेज कबाब बनते हैं. ये कई तरह के बनते हैं.इसमें सीजनल सब्जियों को शामिल किया जा सकता है. वैसे तो मटर और कटहल के कबाव का भी कोई जोड़ नहीं.
रमेश द्विवेदी की किताब “जिक्र ए फिराक -यूं ही फिराक ने जिंदगी की बसर” में तो उनके कबाब पर फिदा होने की बात को काफी विस्तार से लिखा गया है. शराब और कबाब उनके प्रिय खानपान थे. वैसे वो थे भी कायस्थ ही-असली नाम था रघुपति सहाय
अवधी के कायस्थ व्यंजनों पर हिंदू-मुस्लिम दोनों असर हैं.  आमतौर पर कायस्थ घरों की बहुत सी महिलाएं शाकाहारी थीं लेकिन वो लाजवाब मांसाहारी व्यंजन बनाया करती थीं, लेकिन मांस सरीखे स्वाद को उन्होंने शाकाहारी व्यंजनों में दाल और सब्जियों के साथ उतारा.से.
स्वाद और रंगत में मांस जैसी बनाई गई सब्जियों में अगर नाम लिया जाए तो मूंग दाल की कलेजी या मछली की तरह पकाई गई अरबी के नाम लिया जा सकता है. हालांकि ये सही ही है कि लखनऊ के कायस्थों ने मांसाहारी खाने से ज्यादा दोस्ती की. दशहरे और होली की शाम कायस्थों के यहां खासतौर पर मीट पकाया जाता था.
लखनऊ में मेरे मकान मालिक अमर गौड़ यूं तो बैंक में अफसर थे लेकिन थे पक्के लखनवी. शानदार शख्स. मीट तैयार करने में उनका और भाभीजी का कोई जवाब नहीं था. पहली बार मैने उनके मुंह से सुना कि जब भी बाजार जाइए तो गोल बोटी मीट लेकर आइए. हालांकि गोल बूटी का मतलब अब मैं भूल चुका हूं. लेकिन जब इंदिरानगर में एचएएल के सामने की बाजार में इसको लेने गया और गोलबूटी की डिमांड की तो मीट विक्रेता से अलग तरह से काटपीट करके गोश्त दे दिया. इसे खाने और पकाने दोनों का मजा अलग था. मैने पहली बार लखनऊ में ही कायस्थों को करी, कोफ्ता और कबाव में गुलाब और केवड़े की सुंगध भी डालते देखा. लखनऊ में अब भी नौबस्ता, अमीनाबाद और पुराने लखनऊ के कई मोहल्लों में कुछ कायस्थ परंपरागत व्यंजनों को अपने रेस्तरां या होटलों में परोसते हैं. यहां कायस्थों के यहां बनने वाले बेहतरीन कोफ्ते, पसंदे, फरे और मीट खा सकते हैं.
ये भी कहूंगा लखनऊ के कायस्थों को कटहल खासतौर पर काफी पसंद है. जब कटहल का मौसम आता है तो इसकी सब्जियां राई से लेकर बेसन के साथ मिलाकर बनाई जाती हैं. कभी उन्हें उबालकर लजीज व्यंजन का रूप दे दिया जाता है तो कभी केवल तेल में मसालों के साथ स्टफ्ड करके. अगर कटहल की सब्जी को खड़े मसालों के साथ पकाया जाए, तो शायद अंतर करना मुश्किल हो जाता है कि ये शोरबे वाला मीट है या कटहल. मैने उबले कटहल की बेसन में बनी पकौड़ियां भी यहीं खाईं. कायस्थ महिलाओं ने खासतौर पर शाकाहार में ऐसी पाककला विकसित कर ली थी कि ये व्यंजन भी कुक होने के बाद मीट को मात देते हुए लगें.
कुछ ऐसा ही वैरिएशन गोभी के साथ भी देखा. लखनऊ में मैने एक परिचित और सीनियर कायस्थ के घर गोभी का अनूठा व्यंजन देखा, जो उनकी श्रीमती जी के यहां परंपरागत तौर पर कई पीढियों से बनाया रहा था. गोभी के डंठल निकालकर उसके ऊपरी हिस्से को समूचा उबाल दिया जाता है. जब वो उबल जाती थी. तब उसका पानी निकाल लिया जाता है. फिर बंद बर्तन में तेल और मसालों के साथ बंद करके हल्की आंचे में पकाया जाता है. हालांकि ये डिश काफी डेलीकेसी मांगती है. भाप के साथ मसाला गोभी में जज्ब होता रहता है. फिर करीने से प्लेट में निकालकर अदरक, हरी धनिया औऱ हरी मिर्च के साथ गार्निश करके परोसा जाता है. लोग इसे काटकर अपनी प्लेटों में लेते हैं. यम्मी और लाजवाब.
अनूठी विशाल अपनी किताब, “मिसेज एलसीज टेबल” में कहती हैं कि जाड़ों में लखनऊ में खाने का आनंद बढ़ जाता था.नवंबर में ज्यादातर डायनिंग टेबल पर पत्तीदार सब्जियां मसलन पालक, मेथी, मटर और गोभी के व्यंजन नाश्ते से लेकर लंच और डिनर तक में शोभा बनने लगते थे. गाजर के हलवे की महक आने लगती थी, जिसे खोवे के साथ पकाकर थाली में बिछाकर जब चौकोर काटा जाता था तो ये स्वादिष्ट मिष्ठान की जगह ले लेता था.
तिल और मावा मिलाकर मिठाइयां और लड्डू तैयार होते थे. तब कायस्थ घरों में कुकिंग सीजनल होती थी. हालांकि ये तो अब भी होता है. जाडे़ में खाने का  तौरतरीका बिल्कुल बदल जाता है-खाना गरिष्ठ हो जाता है. कायस्थों के लिए ये जाड़े वाला सीजन बड़ा शानदार होता है. खाने को ज्यादा वैरायटी मिलती है और ज्यादा स्पाइसी डिशेज. जाड़ों में कायस्थों के घरों में इस मौसम में सत्पेता यानि कटे पालक के साथ बनाई गई अरहर या उड़द की दाल खासतौर पर बनने लगती है. माना जाता है कि सत्पेता दाल और गोभी के व्यंजन कायस्थों की रसोई में कोलोनियम प्रभाव में आए. यही सीजन मुंगोड़ियों, बड़ियों के बनने का भी होता था. बहुत सी सीजनल सब्जियों को सूखाकर उसको आगे इस्तेमाल करने का भी. वैसा ये तो पक्का है कि अगर आप लखनऊ में हैं और किसी कायस्थ ने आपको दावत पर आमंत्रित किया है, उसे अगर ये मालूम चल गया कि आप मांसाहारी हैं तो आपकी थाली में वो बड़ी शान से इसके दो-तीन व्यंजन परोसकर मेहमानवाजी करेगा.
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अब बात पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में रहने वाले कायस्थों की बात करते है. जिनके खानों में बहुत समानता देखने को मिलती है. गंगा, यमुना और गोमती जैसी नदियों से उर्वर होने वाले इस इलाके में प्रचुर मात्रा में कृषि है. उपजने वाले तरह तरह की सब्जियां, खाद्यान्न, तिलहन और दलहन. उसका असर इस पूरे क्षेत्र के रिच खानपान पर खूब नजर भी आता है.
मशहूर खानपान विशेषज्ञ और लेखक केटी अचाया ने इंडियन फूड में देश के हर इलाकों के खानपान, कृषि और खानपान के इतिहास की बात की है. उसी किताब में कहा गया है, 16वीं सदी में उत्तर प्रदेश के गंगा के किनारे के इलाकों में जो खाने लोकप्रिय थे, उसमें सत्तू, जौ का आटा ज्यादा प्रचलन में था, दालें खूब होती थीं. लिहाजा उनसे मुंगोड़ी और बड़ियां बनाई जाती थीं. इनका उपयोग सब्जियों के साथ होता था. हालांकि किताब ये भी कहती है कि बेशक खांडवी को आजकल गुजरात का व्यंजन माना जाता है लेकिन असल में ये निकली पूर्वी यूपी और बिहार के ही इलाके से.
लोग आटे का हलवा बनाते थे. आटे और दूध को मिलाकर पतली पतली लिप्सी तैयार करते थे, चावल के आटे से बनने वाला लड़्डू खाया जाता था, जिसे चिरौटा कहा जाता था. हर मौसम में प्रचुर मात्रा में कई तरह की सीजनल सब्जियां, साग आदि पैदा होते थे.
मैं मुख्य तौर पर आज अपने ननिहाल और माता जी के हाथ से बनाए जाने वाले व्यंजनों के बारे में बताऊंगा. उससे पहले एक सदी पहले एक अंग्रेज अफसर के डायरी के पन्ने की बात. उसने डायरी में बिहार के लोगों के खानपान की जानकारी दर्ज की थी. बकौल उसके बिहार में लोग नियमित तौर पर खाने में चावल के साथ गेहू, रागी और जौ के आटे की रोटियां खाते थे. जौ को चावल की जगह भी इस्तेमाल कर लिया जाता था. जब इसे चावल की तरह पकाया जाता था तो इसे बॉथ कहते थे वहीं मुस्लिम इसे कुशका कहते थे. चावल के आटे लड्डूओं की गोल बनाकर उबालकर खाया जाता था. इसे खिरौरा कहते थे. लाई, चिउड़ा और मक्के का दाना भूनकर लावा खाया जाता था. हर गांव में एक भड़भूजा जरूर होता था. त्योहारों में पूड़ी, खासतरह से फ्राई की दाल, दही में डला हुआ फुलवाड़ा खाया जाता था.  अगर इस लिहाज से देखें तो एक सदी में इस पूरे इलाके में खानपान काफी बदल गया है. हालांकि सत्तू का जलवा बरकरार है. सत्तू को भी तरह तरह के व्यंजनों के रूप में खाया जाता है.
अब मैं अपने ननिहाल और मां के हाथों से बनने वाले स्वादिष्ठ खाने की बात करता हूं. खाना अक्सर पुरानी यादों को जोड़ता है. लिस्ट लंबी है- लाजवाब लौकी, कटहल और करेले की सब्जियां, भरवे, लजीज स्पाइसी मटर कीमा यानि निमोना, मसालेदार पतली अरहर दाल वाली खिचड़ी, अंगुली की तरह चाटकर खाने वाली तहरी, फरे, कोफ्ते, तरह-तरह पकौड़ियां और चटनी, मटर और कॉर्न के व्यंजन, बेसन, तेल और मसाले में साथ भुनने के बाद स्वाद की अलग रंगत देने वाली सब्जियां.
नानी कई तरह के मीट बनाती थीं. ननिहाल की रसोईं पहली मंजिल पर जहां थी, उसे दीवारें तीन ओर से घेरती थीं और एक हिस्सा छोटी छत की ओर खुला होता था. इस छोटी छत पर अक्सर दूसरा किचन तब सजता था, जब नानी मीट बनाती थीं. मीट को पहले अच्छी तरह पानी से साफ करके उसे कटे प्याज, नमक, हल्की हल्दी के अलावा करीब आधे से एक चम्मच सरसों के तेल के साथ उबाल लिया जाता था. उबलने के बाद मीट को निकाल लिया जाता था और उबले पानी को अलग रख लिया जाता था. अब एक डेगची में सरसों तेल में ढेर सारा कटा हुआ प्याज छोड़ा जाता था. फिर जब प्याज गुलाबी होने का संकेत देता था तो प्याज-लहसुन के साथ मिलाकर पीसे गए खड़े मसालों के पेस्ट को डाला जाता था. आंच कुछ हल्की हो जाती थी. पेस्ट में देर तक भुनता रहता था. जब ये पूरा पेस्ट तेल छोड़ने लगता था तो मीट को मिलाया जाता था. ऊपर से ढक्कन लगा दिया जाता था. कुछ देर बाद जब ये लगता था कि मसालों और मीट ने आपस गर्मागर्म दोस्ती कर ली है तो फिर उसमें अलग रखा गया मीट का उबला पानी मिला दिया जाता था. ये हल्की आंच में पकता रहता था. करीब 40-50 मिनट या कुछ और समय में तैयार हो जाता था. इसमें अगर सही समय दही मिला दें तो इसका स्वाद कुछ अलग मिलता था. अगर पानी नहीं डालें तो ये मीट अलग स्वाद लिए होता था.
नानी कलेजी, मटन कीमे के साथ अलग अलग डिशेज भी तैयार करती थीं. मछली कम बनती थी. जब बनती तो उसमें सरसों दाने का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता था.मटर कीमे और बेसन को मिलाकर कबाब भी तैयार कर लिया जाता था. ये सभी कुछ बनता था सरसों तेल में. आमतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के कायस्थ घरों में पहले खाना सरसों तेल में ही ज्यादा बनता था. अब बेशक चिकन की बहार हो लेकिन तब मुझको याद नहीं कि कभी भी हमारे यहां चिकन बना हो. इस किचन के बर्तन एकदम अलग होते थे. उन्हें कतई मुख्य किचन के बर्तनों से मिक्स नहीं किया जाता था.
शाकाहार में भी एक से बढ़कर एक व्यंजन थे. हरी मटन के सीजन में सबसे खास दो व्यंजन होते थे. एक निमोना और दूसरी घूघनी. निमोना यानि यानि मटर कीमा. मटर को पीसा जाता है लेकिन इसमें इसके स्वाद को असल करारापन या तड़का बड़ियां देती हैं. ये मसालेदार सूखी बड़ियां कड़ाही पर गर्म सरसों तेल में सबसे पहले डाली जाती हैं. गर्म तेल के साथ वो भुनी जाती हैं फिर उसमें कटे हुए पतले प्याज और मसालों का पेस्ट मिलाकर फिर उन्हें तेल में तब तक आंच दी जाती है जब तक कि पूरा मसाला तेल को अलग नहीं करने लगे. दरअसल तेल के साथ भुने जा रहे मसाले की ये परमानंद वाली स्थिति होती है यानि वो स्थिति जब मसाला सिद्धत्व को प्राप्त कर चुका है और असल कंटेट से मिलने को तैयार हो. हालांकि इस प्रोसेस के अलग तरीके भी हैं. अब इसमें पीसे हुए मटर को डालते हैं. आंच पर इन सबके तालमेल से भुनने-मिलने का सिलसिला तब तक चलता रहा है, जब तक एक खास खुशबु नहीं आने लगे. बस इसी समय में उसमें पानी मिलाते हैं. आंच हल्की की जाती है. इसे ढक दिया जाता है, ताकि भाप बाहर नहीं जाए. पाककला में पकती हुई सामग्री के साथ निकलती भाप को बाहर नहीं निकलने देने का भी एक मतलब होता है. कहा जाता है कि भाप जितना अंदर रहेगी. उतना ही बर्तन में अंदर उमड़-घुमड़कर स्वाद को और लजीज करेगी.
मेरा दावा है कि इस निमोना को अगर आप खाएंगे तो वाह-वाह किए बगैर रह ही नहीं सकते. चावल के साथ खाइए या रोटी के साथ-दोनों में ये बेहद स्वादिष्ट होती है.(आगे भी जारी रहेगा)
अब बात पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में रहने वाले कायस्थों की बात करते है. जिनके खानों में बहुत समानता देखने को मिलती है. गंगा, यमुना और गोमती जैसी नदियों से उर्वर होने वाले इस इलाके में प्रचुर मात्रा में कृषि है. उपजने वाले तरह तरह की सब्जियां, खाद्यान्न, तिलहन और दलहन. उसका असर इस पूरे क्षेत्र के रिच खानपान पर खूब नजर भी आता है.
मशहूर खानपान विशेषज्ञ और लेखक केटी अचाया ने इंडियन फूड में देश के हर इलाकों के खानपान, कृषि और खानपान के इतिहास की बात की है. उसी किताब में कहा गया है, 16वीं सदी में उत्तर प्रदेश के गंगा के किनारे के इलाकों में जो खाने लोकप्रिय थे, उसमें सत्तू, जौ का आटा ज्यादा प्रचलन में था, दालें खूब होती थीं. लिहाजा उनसे मुंगोड़ी और बड़ियां बनाई जाती थीं. इनका उपयोग सब्जियों के साथ होता था. हालांकि किताब ये भी कहती है कि बेशक खांडवी को आजकल गुजरात का व्यंजन माना जाता है लेकिन असल में ये निकली पूर्वी यूपी और बिहार के ही इलाके से.
लोग आटे का हलवा बनाते थे. आटे और दूध को मिलाकर पतली पतली लिप्सी तैयार करते थे, चावल के आटे से बनने वाला लड़्डू खाया जाता था, जिसे चिरौटा कहा जाता था. हर मौसम में प्रचुर मात्रा में कई तरह क सीजनल सब्जियां, साग आदि पैदा होते थे.
मैं मुख्य तौर पर आज अपने ननिहाल और माता जी के हाथ से बनाए जाने वाले व्यंजनों के बारे में बताऊंगा. उससे पहले एक सदी पहले एक अंग्रेज अफसर के डायरी के पन्ने की बात. उसने डायरी में बिहार के लोगों के खानपान की जानकारी दर्ज की थी. बकौल उसके बिहार में लोग नियमित तौर पर खाने में चावल के साथ गेहू, रागी और जौ के आटे की रोटियां खाते थे. जौ को चावल की जगह भी इस्तेमाल कर लिया जाता था. जब इसे चावल की तरह पकाया जाता था तो इसे बॉथ कहते थे वहीं मुस्लिम इसे कुशका कहते थे. चावल के आटे लड्डूओं की गोल बनाकर उबालकर खाया जाता था. इसे खिरौरा कहते थे. लाई, चिउड़ा और मक्के का दाना भूनकर लावा खाया जाता था. हर गांव में एक भड़भूजा जरूर होता था. त्योहारों में पूड़ी, खासतरह से फ्राई की दाल, दही में डला हुआ फुलवाड़ा खाया जाता था.  अगर इस लिहाज से देखें तो एक सदी में इस पूरे इलाके में खानपान काफी बदल गया है. हालांकि सत्तू का जलवा बरकरार है. सत्तू को भी तरह तरह के व्यंजनों के रूप में खाया जाता है.
अब मैं अपने ननिहाल और मां के हाथों से बनने वाले स्वादिष्ठ खाने की बात करता हूं. खाना अक्सर पुरानी यादों को जोड़ता है. लिस्ट लंबी है- लाजवाब लौकी, कटहल और करेले की सब्जियां, भरवे, लजीज स्पाइसी मटर कीमा यानि निमोना, मसालेदार पतली अरहर दाल वाली खिचड़ी, अंगुली की तरह चाटकर खाने वाली तहरी, फरे, कोफ्ते, तरह-तरह पकौड़ियां और चटनी, मटर और कॉर्न के व्यंजन, बेसन, तेल और मसाले में साथ भुनने के बाद स्वाद की अलग रंगत देने वाली सब्जियां.
नानी कई तरह के मीट बनाती थीं. ननिहाल की रसोईं पहली मंजिल पर जहां थी, उसे दीवारें तीन ओर से घेरती थीं और एक हिस्सा छोटी छत की ओर खुला होता था. इस छोटी छत पर अक्सर दूसरा किचन तब सजता था, जब नानी मीट बनाती थीं. मीट को पहले अच्छी तरह पानी से साफ करके उसे कटे प्याज, नमक, हल्की हल्दी के अलावा करीब आधे से एक चम्मच सरसों के तेल के साथ उबाल लिया जाता था. उबलने के बाद मीट को निकाल लिया जाता था और उबले पानी को अलग रख लिया जाता था. अब एक डेगची में सरसों तेल में ढेर सारा कटा हुआ प्याज छोड़ा जाता था. फिर जब प्याज गुलाबी होने का संकेत देता था तो प्याज-लहसुन के साथ मिलाकर पीसे गए खड़े मसालों के पेस्ट को डाला जाता था. आंच कुछ हल्की हो जाती थी. पेस्ट में देर तक भुनता रहता था. जब ये पूरा पेस्ट तेल छोड़ने लगता था तो मीट को मिलाया जाता था. ऊपर से ढक्कन लगा दिया जाता था. कुछ देर बाद जब ये लगता था कि मसालों और मीट ने आपस गर्मागर्म दोस्ती कर ली है तो फिर उसमें अलग रखा गया मीट का उबला पानी मिला दिया जाता था. ये हल्की आंच में पकता रहता था. करीब 40-50 मिनट या कुछ और समय में तैयार हो जाता था. इसमें अगर सही समय दही मिला दें तो इसका स्वाद कुछ अलग मिलता था. अगर पानी नहीं डालें तो ये मीट अलग स्वाद लिए होता था.
नानी कलेजी, मटन कीमे के साथ अलग अलग डिशेज भी तैयार करती थीं. मछली कम बनती थी. जब बनती तो उसमें सरसों दाने का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता था.मटर कीमे और बेसन को मिलाकर कबाब भी तैयार कर लिया जाता था. ये सभी कुछ बनता था सरसों तेल में. आमतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के कायस्थ घरों में पहले खाना सरसों तेल में ही ज्यादा बनता था. अब बेशक चिकन की बहार हो लेकिन तब मुझको याद नहीं कि कभी भी हमारे यहां चिकन बना हो. इस किचन के बर्तन एकदम अलग होते थे. उन्हें कतई मुख्य किचन के बर्तनों से मिक्स नहीं किया जाता था.
शाकाहार में भी एक से बढ़कर एक व्यंजन थे. हरी मटन के सीजन में सबसे खास दो व्यंजन होते थे. एक निमोना और दूसरी घूघनी. निमोना यानि यानि मटर कीमा. मटर को पीसा जाता है लेकिन इसमें इसके स्वाद को असल करारापन या तड़का बड़ियां देती हैं. ये मसालेदार सूखी बड़ियां कड़ाही पर गर्म सरसों तेल में सबसे पहले डाली जाती हैं. गर्म तेल के साथ वो भुनी जाती हैं फिर उसमें कटे हुए पतले प्याज और मसालों का पेस्ट मिलाकर फिर उन्हें तेल में तब तक आंच दी जाती है जब तक कि पूरा मसाला तेल को अलग नहीं करने लगे. दरअसल तेल के साथ भुने जा रहे मसाले की ये परमानंद वाली स्थिति होती है यानि वो स्थिति जब मसाला सिद्धत्व को प्राप्त कर चुका है और असल कंटेट से मिलने को तैयार हो. हालांकि इस प्रोसेस के अलग तरीके भी हैं. अब इसमें पीसे हुए मटर को डालते हैं. आंच पर इन सबके तालमेल से भुनने-मिलने का सिलसिला तब तक चलता रहा है, जब तक एक खास खुशबु नहीं आने लगे. बस इसी समय में उसमें पानी मिलाते हैं. आंच हल्की की जाती है. इसे ढक दिया जाता है, ताकि भाप बाहर नहीं जाए. पाककला में पकती हुई सामग्री के साथ निकलती भाप को बाहर नहीं निकलने देने का भी एक मतलब होता है. कहा जाता है कि भाप जितना अंदर रहेगी. उतना ही बर्तन में अंदर उमड़-घुमड़कर स्वाद को और लजीज करेगी.
मेरा दावा है कि इस निमोना को अगर आप खाएंगे तो वाह-वाह किए बगैर रह ही नहीं सकते. चावल के साथ खाइए या रोटी के साथ-दोनों में ये बेहद स्वादिष्ट होती है.
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पिछली बार मैने कायस्थों के किचन में बनने वाली स्वादिष्ट  तहरी की बात की थी. आज भी बात कायस्थ किचन विविध तरह से चावल के इस्तेमाल और व्यंजनों की होगी. मेरा मतलब ये कतई नहीं है कि मैं जिन इके बारे में लिख रहा हूं कि वो कायस्थों के रहे हैं अपितु उनके किचन में ये सारे खान-पान पसंद किए जाते रहे हैं, उन्हें चाव से खाया जाता रहा है और कई बार नया अंदाज भी दिया जाता रहा है.)
बात अगर चावल की हो रही है तो पिछली कड़ी में चर्चा हुई थी कि किस तरह भारत में जब 9000-10,000 ईसा पूर्व या इससे पहले जब खेती शुरू हुई तो चावल उगाया जाने लगा. हालांकि चावल इससे कहीं ज्यादा पुराना है. ये अनाज वास्तविक तौर पर दुनिया को भारत की देन है.
हमें अगर सबसे अच्छे चावल की बात करनी होती है तो दिमाग में एक ही नाम आता है – बासमती. एक जमाना था जब भारत में महाशाली नाम के चावल की खास किस्म उगती थी, जिसके आगे सारे चावल फेल थे. अगर प्राचीन ग्रंथों या संदर्भों में महाशाली को खंगालें तो वहां इसका नाम जरूर मिल जाएगा. लेकिन हम इसे संभाल कर रख नहीं पाए, ये शनैः शनैः लुप्त हो गया. इस चावल का एक दाना काफी बड़ा होता था.
सातवीं सदी में एक प्रसिद्ध बौद्ध चीनी यात्री जुआन झांग भारत आया. उसने पूरे भारत का भ्रमण किया. गंगा के किनारे की खेती-किसानी देखी. बौद्ध मठों में गया. कई बरस वो भारत में घूमता रहा. फिर जब उसने भारत का यात्रा वृतांत लिखा, तो उसमें महाशाली चावल का जिक्र किया. उसने लिखा, महाशाली चावल का एक दाना ब्लैक बीन (लोबिया के एक दाने सरीखा) जितना बड़ा होता था. जब इसे पकाया जाता था, तो इससे वाली सुगंध और चमक गजब की होती थी. उसका कोई मुकाबला ही नहीं. चावल की इस प्रजाति की खेती केवल मगध में होती थी. इसका उपयोग भी राजे-महाराजे और विशेष लोग करते थे. इसका इस्तेमाल आयुर्वेद में काफी होता था.
रहस्य है कि हमारे इस शानदार चावल की नस्ल कहां और कब लुप्त हो गई. खैर चावल के व्यंजनों पर आते हैं. कायस्थों की रसोई में अगर चावल से बनने वाले तहरी, पुलाव और बिरयानी जैसे लज्जतदार और भीनी-भीनी खुशबु वाले व्यंजनों को जगह मिली तो चावल के समाजवादी व्यंजन खिचड़ी को भी खूब पसंद किया गया.
आमतौर पर अगर आप पूर्वी उत्तर प्रदेश के कायस्थों के घरों में जाएंगे तो वहां दोपहर को पूरा खाना बनता है यानि रोटी, चावल, दाल, सूखी सब्जी, शोरबे वाली सब्जी, अचार आदि. लंच हैवी होता है. रात के खाने में चावल आमतौर पर नदारद रहता है. लेकिन अक्सर रात के खाने में खिचड़ी का मूड भी बन जाता है. फिर जो गर्मा-गर्म खिचड़ी पककर थालियों (अब थालियों की जगह प्लेटें ले चुकी हैं) में आती थीं, उनकी वर्णन ही अलौकिक है.
चावल से बनने वाला एक खास व्यंजन दाल के फरे भी हैं. कहां तो इनको दाल के फरे कहा जाता है लेकिन मुख्य तौर पर इसमें चावल के आटे का इस्तेमाल होता है और अंदर उड़द और चने की पीसी हुई दाल का पेस्ट भरा जाता है. ये काफी हद तक गुझियां के आकार की होती हैं. खास ख्याल रखा जाता है कि चावल के जिस आटे को गूंथा जा रहा है वो ना तो बहुत नरम हो और ना ही बहुत कड़ा. जब चावल के आटे को गूंथ लिया जाता था. तब इनकी छोटी-छोटी लोइयां बनाकर उन्हें छोटी और किंचित थोड़ी मोटी रोटियों की शक्ल दी जाती है. अब इस बेली गई गोलाकार कच्ची रोटी को दोनों ओर से मोड़कर उसमें दाल, मसाले और अनुपातिक नमक का मिला हुआ पेस्ट भरा जाता है. खयाल रखा जाता है कि दाल को कुछ घंटे पानी में भिगोने के बाद ही पिसा जाए, उससे ना केवल बेहतर तरीके से पिसेगी बल्कि बनने में इसका स्वाद भी बेहतर होगा. पहले तो इसको पीसने का काम सिल-बट्टे पर होता था. अब तो उसके लिए किचन में मिक्सी ग्राइंडर आ चुका है. दाल का पेस्ट भी बहुत गीला नहीं होना चाहिए.
जब चावल की गोलाकर आकृतियों में दाल भर जाए तो उसके अंदरूनी किनारों पर पानी लगाकर हाथों से प्रेस करते हुए  चिपका दिया जाता है. चूंकि ये चावल का आटा होता है, लिहाजा पानी से तुरंत चिपकता है. यही फरा है. लेकिन अभी ये कच्चा है. जब कई फऱे बन जाते हैं तो एक भगोना गुनगुने पानी में इसे डालकर बंद करके उबाला जाता है. पर्याप्त उबलने के बाद ये पक जाता है. अब इसे आंच से उतारें और खाने के लिए तैयार हो जाएं.
अगर इन फरों को चटनी से खाएं तो ये ना केवल स्वादिष्ट लगेगी बल्कि इसकी पौष्टिकता भी खासी होती है. अगर इन फरों को चाकू से कई टुकड़ों में काटकर फ्राई कर दें. चटनी या सॉस, अचार के साथ परोसें तो इसके आगे कोई भी फास्ट फूड फीका लगेगा. इसके फ्राई करने के तमाम तरीके हैं. कुछ लोग इसे केवल सरसों तेल में जीरा और राई से फ्राई करते हैं. कुछ इसे डीप फ्राई करके इसमें प्याज के साथ तैयार भुने हुए मसालों का तड़का लगाते हैं. कई इसे डीप फ्राई करते हैं. इसे डीफ फ्राई करके मसालेदार सब्जी भी बना सकते हैं. अब ये आपकी इच्छा है कि आप इसे कैसे खाना और बनाना चाहते हैं. इसको फ्राई करने के कई वेरिएशन हो सकते हैं. अगर आप मोमो के शौकीन हैं तो यकीन मानिए कि ये उसका बड़ा भाई है. तमाम तरह की चटनियों के साथ खासा आनंद देता है.
अब खिचड़ी पर आने से पहले चावल के एक और खास व्यंजन की बात करता हूं, जो मैं बचपन में अक्सर खाया करता था. अगर दिन या रात के खाने में चावल काफी बच गया हो तो उसे हल्के बेसन या बगैर बेसन जीरा, धनिया, मिर्च में गूंथकर पकौड़ियों की तरह तलकर खाइए. वाह क्या स्वाद मिलता है. बचे हुए चावल को फ्राई करके खाने का नुस्खा तो हम सभी के घरों में जमाने से चलता आया है.
खिचड़ी पर जाने से पहले पुराने जमाने के किचन की कुछ चर्चा कर लेते हैं. मुझे पुराने किचन के नाम पर ननिहाल का ही चिकन अक्सर याद आता है वो तीन ओर दीवारों से बंद और चौथी ओर से छत की एकदम खुला था. एक ओर की दीवार में जानबूझकर ईंटों के बीच कुछ ऐसे सुराख जैसी जगहें बना दी गईं थीं (जिन्हें मुक्के भी कहा जाता था) जिनसे धुआं, फ्यूम्स और हवा का आना-जाना सुलभ रहे. इस किचन में बाहर की ओर तोते के दो पिजरे रखे होते थे, तोते पिंजरे में उछलकूद मचाने के बाद जब स्थिरप्रज्ञ होते थे तो टूक-टूक इस खानपान की प्रक्रिया को देखते रहते थे. खुद हरी मिर्च और पानी में भीगी चने की दाल खाते थे. फिर आप जो बोलो, उसके कुछ शब्द अपने अंदाज में रटकर सुना देते थे.
रसोई में एक ओर सिल-बट्टा रखा होता था तो एक ओर इमाम-दस्ता,  मूसल, दही मथने वाली मत्थी. अलमारियों में मसाला और तेल, दालें अन्य सामान. चीनी मिट्टी के मर्तबानों में कई तरह के अचार. जिनका इस्तेमाल नियमित तौर पर खाने के साथ जायका बढ़ाने के लिए होता था. किचन इतने बड़े भी होते थे कि वहीं खाना परसा जा सके. आमतौर पर जब लोग खाने के लिए बैठते थे तो लकड़ी के आसन का इस्तेमाल करते थे, इन्हें पीढ़ा कहते थे.
किचन में तीन तरह की अंगीठियों का इस्तेमाल होता था. कोयले की अंगीठी, बुरादे की अंगीठी और लकड़ी का चूल्हा. बुरादे की अंगीठी भी अब लुप्त हो चुकी है. ये खास तरह की होती थी. इसमें अंदर दबा-दबाकर लकड़ी का बुरादा भरा जाता था, फिर नीचे से जलती हुई लकड़ी डाली जाती थी, जो धीरे धीरे इसके बुरादे को सुलगाती रहती थी. उस जमाने में मोहल्लों के आसपास कुछ लकड़ी के टाल जरूर होते थे, जहां बुरादा लेने के लिए बोरा लेकर जाना पड़ता था. फिर इसे रिक्शे या साइकल पर लादकर लाना होता था. अब ना तो लकड़ी के टाल रहे और ऐसी अंगीठियां. कोयले भी दो तरह के इस्तेमाल होते थे. एक कोयला जली हुई लकड़ी से मिलता था और दूसरा खनिज कोयला, जिसे कोयला पत्थर कहा जाता था. हर किचन में एक लोहे का तसला भी होता था, जिसमें भी लकड़ी के कोयले या उपलों को जलाकर शकरकंद, आलू अन्य भुनने वाले खानपान को पकाया जाता था. किचन में मिट्टी का घड़ा अनिवार्य था तो पीतल और कांसे का हंडा होता था. तब तक किरासिन तेल से चलने वाले स्टोव आ जरूर गए थे लेकिन उसका इस्तेमाल हल्के-फुल्के कामों में होता था.
अब खिचड़ी पर आते हैं. खिचड़ी हमारा सबसे प्राचीन व्यंजन है. आयुर्वेद की नजर में परफेक्ट खाना भी और खास औषधि का भी. जिस तरह भारतीय संस्कृति में विनम्रता औऱ विविधता है, वैसा ही खिचड़ी के साथ भी है. खिचड़ी की यात्रा हमारे देश की सांस्कृतिक यात्रा को भी दिखाती है. हर राज्य में खिचड़ी के फ्लेवर और तरीके बदल जाते हैं.रसोई की कोई किस्सागोई इस भारतीय उपमहाद्वीप में खिचड़ी कथा के बगैर अधूरी है. तो खिचड़ी कथा की बात कल करते हैं.
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ये बड़ा सवाल है कि कायस्थों को चावल ज्यादा अच्छा पसंद है या गेहूं. हकीकत ये है कि दोनों. दिन में अगर पूरा खाना बनता था तो शाम को अक्सर रोटी और सब्जी. अक्सर दिन या रात के खाने यानि लंच या डिनर को खिचड़ी या तहरी से रिप्लेस भी कर दिया जाता था.  वैसे सही बात यही है कि पूरे देश में कायस्थ जहां कहीं भी जाकर बसे, उनकी रसोई में भांति-भांति के व्यंजनों के साथ गेहूं, चावल और दालों का संतुलन हमेशा बना रहा. आज मैं चावल की ही एक खास डिश की बात करने वाला हूं.
वैसे चावल के मुरीद तो पूरी दुनिया में हैं. इसकी कहानी भी बहुत रोचक है. कहा जाता है कि लाखों साल पहले चावल घास के तौर पर उगती थी. उसे जंगली घास माना जाता था. बाद में जब गुफा में रहने वाले आदम मानव ने कभी इसे यूं ही मुंह में दबाया तो इसका स्वाद उसे पंसद आया. इस घास के साथ उगे दानों को जब उसने यूं ही जमीन पर बिखेरा तो कुछ दिनों बाद वहां उसे ये घास उगी नजर आई. उसे समझ में आ गया कि ये खाने लायक चीज कैसे उगाई जा सकती है. योजनाबद्ध तरीके से भारत में खेती का इतिहास करीब 9000-10000 ईसा पूर्व पहले का है.
चावल के बारे में माना जाता है कि ये भारत से ही पूरी दुनिया में फैला. वैसे चीन भी दावा करता है कि चावल उसने पहले उगाया लेकिन हकीकत ये है कि चावल यहां से चीन पहुंचा और फिर दुनिया के दूसरे देशों में.
हाल ही में मैं देवेंद्र मेवाड़ी की किताब फसलें कहें कहानी पढ़ रहा था.जिसमें इसके बारे में विस्तार से बताया गया है. केटी अचाया की किताब इंडियन फूड भी इसे सिंधु घाटी सभ्यता से पहले से भारत में होना बताती है. दुनिया में धान के सबसे पुराने बीज उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुर के गांव में मिले हैं.हमारी पूजा-पाठ से लेकर तमाम रीतिरिवाजों को कोई ऐसा संस्कार नहीं है, जो चावल या धान के बगैर पूरा होता हो. दुनियाभर में चावल की 40,000 से ज्यादा वैरायटी हैं. भारत में इसकी 1000 से ज्यादा मुख्य विविधता.
अब असल मुद्दे पर आता हूं. कायस्थों की रसोई में चावल से कई व्यंजन बनते हैं-उसमें सबसे मुख्य हैं- कई तरह खिचड़ी, तहरी, पुलाव और बिरयानी. चावल के आटे का इस्तेमाल चिला और फरे बनाने में भी होता है.
कई बार लोग उलझन में पड़ जाते हैं कि तहरी, पुलाव और बिरयानी में फर्क क्या है. तहरी पूरी तरह शाकाहारी अवधी व्यंजन है. इसमें हल्दी और बहुत कम मात्रा में कुछ मसाले मिलाए जाते हैं. पुलाव आमतौर पर चावल और मीट को मसालों के साथ पकाई जाने वाली डिश के तौर पर जानाी जाती है. बिरयानी में चावल अलग पकता है और मसालेदार मीट अलग-फिर दोनों को एक के ऊपर दूसरी परत लगाकर बंद बर्तन में हल्की आंच में रखा जाता है. इसमें 21 तरह के मसाले पड़ते हैं.
केटी आचाया की इंडियन फूड में पुलाव के बारे में कहा गया है कि महाभारत के दौरान ऐसी डिश बनाई जाती थी. जब सिकंदर अपनी सेना के साथ भारत के पश्चिमोत्तर प्रांतों तक आया तो ये उसे इतनी पसंद आई कि इसे मैकदूनिया ले गया.
वैसे तहरी के बारे में मुझको कहना चाहिए कि ये लखनऊ के कायस्थों का नायाब इनोवेशन है, जो नवाबों के पुलाव बनाने के तरीके से पैदा हुआ. कहने को तहरी साधारण और संतुलित खाना है लेकिन बेहद स्वादिष्ट. अगर सही अनुपात में चावल, सब्जियां, मसाले पड़ जाएं. ये सही तरीके से पके तो समझिए आपको दैवीय स्वाद ग्रहण होंगे. कायस्थ परिवारों में ये प्रिय खाना होता है. खासकर जाड़ों में जब तमाम तरह की सब्जियां उपलब्ध होती हैं-जाड़ों में गोभी, मटर और हरी धनिया इसमें जान डाल देती है.
तहरी बहुत साधारण और बहुत न्यूट्रीशियस भोजन है. अगर इसको चटनी, सिरके में डुबे कटे प्याज, रायता और पापड़ के साथ खाया जाए तो बात ही क्या. ये ऐसी डिश है, जिसे परोसते समय अगर शुद्ध घी मिला लें तो ये खाना आत्मा को भी तृप्त कर जाएगा.
तहरी में हमेशा अच्छे चावलों का इस्तेमाल करना चाहिए. सामान्य तौर पर तहरी बनाने के कुछ घंटे पहले बासमती चावल को नमक के पानी में भिगोकर रख देना चाहिए. इससे चावल का हर दाना क्रिस्टल की तरह अलग अलग हो जाएगा. यही तहरी के अच्छे चावल की पहचान भी है. हालांकि अगर इसे सादे पानी में भी भिगो रहे हों तो कोई दिक्कत नहीं.
जब भारत में तेवनियर नाम का फ्रांसीसी ट्रेवलर आया तो उसने पाया कि पहाड़ों की तराई में पैदा होने वाले बासमती चावल से बहुत शानदार तहरी बनाई जाती है. इसका हर दाना पकने के बाद खिलकर अलग-अलग नजर आता है.
वैसे अलर आप इसकी रेसिपी जानना चाहें तो कुछ इस तरह होगी
डेढ़ कप बासमती चावल
01 प्याज
2 टमाटर
02 हरी मिर्च
01 चम्मच ताजा अदरक का पेस्ट और एक चम्मच लहसुन का पेस्ट
नमक स्वादानुसार
लाल मिर्च पाउडर
आधा चम्मच जीरा
आधा चम्मच हल्दी
एक बड़ा आलू छोटे छोटे टुकड़ों में कटा हुआ
आधा कप छोटे छोटे टुकड़ों में कटी गोभी
आधा कप मटर
01 काली इलायची, दाल चीनी, तेज पत्ता
04 से 06 काली मिर्च के दाने
04 लौंग
एक से डेढ़ बड़े चम्मच तेल
तेल गर्म करें, प्याज को भूरा होने दें. कटी टमाटर मिलाएं. फिर कटी मिर्च, अब अदरक-लहसुन का पेस्ट. फिर एक साथ जीरा, हल्दी और लाल मिर्च पाउडर मिलाएं. इसे कुछ देर तेज आंच में भूनें. अब आलू, गोभी, मटर और चाहें तो कटी गाजर मिलाएं. आंच कुछ मध्यम करें. इसे कुछ देर भुनते रहें. जब लगे सबकुछ आपस बेहतर तरीके से मिलकर भुन गया है तब इसमें करीब चार कप गर्म पानी मिलाएं. साथ में गरम मसाला भी. एक दो मिनट बाद चावल को निथार कर इसमें मिला दें. आंच तेज रखें, जब तक चावल और कटी सब्जियां पक कर ढंग से मिल नहीं जाएं, जब ऐसा लगे कि पानी करीब सूखने ही वाला है. तब आंच धीमी करें. इसे टाइट बंद कर दें कि भाप नहीं निकल पाए. 03-04 मिनट बाद आंच बंद कर दें. बंद बर्तन को 05 मिनट के लिए यूं ही छोड़ दें. अब हरी कटी धनिया ऊपर से मिला दें. तहरी खाने के लिए तैयार है. अगर आप इसे चटनी, सलाद और रायता, अचार और पापड़ के साथ खाएं तो दिव्य स्वाद मिलेगा. ऐसा स्वाद आपको तृप्त कर देगा. वैसे तहरी कई और भी तरीकों से बनती है. आप अगर चाहें तो पनीर, फ्रेंच बीन, शिमला मिर्च, मशरूम के साथ भी इसे बना सकते हैं.
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जब मैने कायस्थों का खाना-पीना लिखना शुरू किया तो ये बस अनायास ही था. हर खान-पान की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक यात्रा भी होती है.लिहाजा खाने को भी इससे अलग नहीं रखा जा सकता. शुरू में कायस्थों के खान-पान की ऐतिहासिक यात्रा पर कुछ मित्र और परिचित क्षुब्ध भी हुए. ट्रोलिंग आर्मी के कुछ लोगों ने दो-तीन बड़ी भद्दी टिप्पणियां भी कीं. लेकिन ज्यादातर को ये अच्छा लगा लिहाजा खान-पान की ये यात्रा बढ़ती गई. अब मैं इसको समेटने की सोच रहा हूं. लेकिन ये अंदाज हो रहा है कि इस पर गंभीर काम करने की जरूरत है. कभी समय मिला जो जरूर करूंगा.
अब इस खान-पान की यात्रा को अगली कड़ी के साथ खत्म करने का मन है. वैसे चाहता था कि हर सीजनल सब्जी को लाला लोगों की किचन में कितनी विविधताओं के साथ अलग-अलग तरीके से व्यंजन में ढाला जाता रहा है, वो भी लिखूं लेकिन वो कभी और..खान-पान का ये पूरा लेखन मेरे यादों की यात्रा में बचपन की खूंटी पर टंगा हुआ ज्यादा है.
कुछ मित्रों को ये भी शिकायत है कि मैं खाने के हर व्यंजन को ही कायस्थों की उपज बता रहा हूं. नहीं, ऐसा कतई नहीं है. निश्चित तौर पर भारतीय खानपान में कायस्थों का योगदान बहुत ज्यादा है, उनके किचन में तमाम खानों ने नया जायका, स्वाद और रूप-रंग पाया लेकिन बहुत सा खाने ऐसे भी हैं, जो हम सबके प्रिय हैं. उन पर किसी का पेटेंट नहीं- अलबत्ता वो कायस्थों के लिए भी प्रिय रहे हैं. लिहाजा उन पर भी लिखना तो बनता है.
अगर ये पूछा जाए कि भारत के राष्ट्रीय खाने का नाम पूछा जाए- तो आप क्या कहेंगे. वो खाना समाजवादी भी है, राजसी भी, गरीबों का भी और अमीरों का भी. सबने उसको अपने तरीके से ढाला. अपने-अपने तरीके से पकाया. उसे खाने की बजाए अनंतजीवी कहना चाहिए. जब तक सूरज-चांद रहेगा-अपने देश में ये खाना  भी रहेगा. जब से चावल और दाल की खेती हुई होगी, तब से इस खाने का यात्रा भी जारी है. ये यात्रा हजारों साल की है. इस यात्रा में इस खाने के साथ बहुत प्रयोग हुए लेकिन इसकी आत्मा यथावत है, चिरंतर है. हमारा ये खाना खिचड़ी है. मैने अपने घर में कई तरह की खिचड़ी बनते देखा. उनका स्वाद लिया. अरहर दाल की मसालेदार खिचड़ी, सूखी खिचड़ी, उड़द दाल की लाजवाब खिचड़ी, मूंग का सात्विक खिचड़ी और चने की दाल की मसाला तड़का खिचड़ी. इसके अलावा जब मकई का सीजन होता था तो पत्थर की चक्की से मक्के को दरने के बाद उसकी जो लाजवाब खिचड़ी तैयार होती थी, उसको खाए हुए ना जाने कितने साल बीत चले हैं लेकिन स्वाद अब भी याद है.
मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार में खिचड़ी भोज की परंपरा है. इसमें खिचड़ी का दावत होती है. जब ये परसी जाती है तो इसके साथ अचार, रायता, पापड़, सलाद भी जरूर परोसे जाते हैं और तब खिचड़ी का स्वाद स्वर्गिक होता है. लखनऊ में मैं जब हिंदुस्तान अखबार में 90 के दशक में काम करता था तो हमारे  संपादक सुनील दुबे जी दो-तीन बार छुट्टी में सबको परिवार के साथ पिकनिक पर ले गए, तब सबने मिलकर खिचड़ी बनाई और उसका जो आनंद लिया, वो अलौकिक ही था.
खैर अब खिचड़ी की यात्रा पर आते हैं. रसोई की कोई भी किस्सागोई इस भारतीय उपमहाद्वीप में खिचड़ी कथा के बगैर अधूरी है. बहुत सीधा और आसान सा व्यंजन. भारतीय मिट्टी से उपजा ठेठ देसी व्यंजन. हर रसोई का प्रिय.
भारतीय उपमहाद्वीप में ढेर सारे युद्ध हुए, विदेशी आक्रमणकारी आए, नई खोजें हुईं, साम्राज्यवाद पनपा..विदेशी जब यहां से लौटे तो खिचड़ी भी साथ ले गए. हां, कहा जा सकता है कि सभी ने इसे अपने तरीके से समृद्ध भी किया. अपने मसालों और सामग्रियों से युक्त किया. मूल रूप से खिचड़ी का मतलब है दाल और चावल का मिश्रण.
असल में ये हानिरहित शुद्ध आयुर्वेदिक खाना है, जायके और पोषकता से भरपूर. वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो जब चावल और दालों को संतुलित मात्रा में मिलाकर पकाते हैं तो एमिनो एसिड तैयार होता है, जो शरीर के लिए बहुत जरूरी है. इससे बेहतर प्रोटीन कुछ है ही नहीं.
कहा जाता है कि एक बार बादशाह जहांगीर गुजरात की यात्रा पर गया था. वहां उसने पहली बार एक गांव में लोगों को खिचड़ी खाते हुए देखा. बादशाह उन दिनों खाने की अरुचि से गुजर रहा था. उसे कब्जियत भी थी और मसालेदार मुगलिया खानों से अरुचि सी हो चुकी थी. लिहाजा जब उसने खिचड़ी बनते हुए देखी, वो पकते हुए इस खाने की गंध उसे भा गई. उसने खुद इस खाने को खाने की फरमाइश की. जब लोगों ने सुना तो हैरानी भी हुई कि बादशाह जहांगीर और खिचड़ी खाएगा. खैर खिचड़ी उसे परोसी गई. तो उसको बहुत अच्छी लगी. हालांकि इस खिचड़ी में चावल की जगह बाजरे का इस्तेमाल किया गया था.
उसने तुरंत एक गुजराती रसोइया शाही पाकशाला के लिए नियुक्त किया. फिर मुगल पाकशाला में इस पर और प्रयोग हुए. कुछ लोग कहते हैं कि खिचड़ी को दरअसल शाहजहां ने मुगल किचन में शामिल किया. मुगल बादशाहों को कई तरह की खिचड़ी सर्व की जाती थी. इसमें एक बेहद विशेष थी-जिसमें ड्राइ फ्रूट्स, केसर, तेज पत्ता, जावित्री, लौंग और अन्य मसालों का इस्तेमाल किया जाता था। जब ये पकने के बाद दस्तरखान पर आती थी, तो इसकी खुशबु ही गजब ढहाने लगती थी. भूख और बढ़ जाती थी. जीभ पर पानी आने लगता था. इसके आगे दूसरे व्यंजन फीके पड़ जाते थे
बंगाल में त्योहारों के दौरान बनने वाली खिचड़ी तो बहुत ही खास जायका लिए होती है- बादाम, लौंग, जावित्री, जायफल, दालचीनी, काली मिर्च के साथ इस कदर स्वादिष्ट बनती है कि पूछिए मत.
वैसे खिचड़ी का जिक्र हमारे वेदों और पौराणिक ग्रंथों में खूब हुआ है. मुगलिया लेखकों ने भी इस पर कलम चलाई है. आइने अकबरी में अबुल फजल ने यूं तो खिचड़ी बनाने की सात विधियों का जिक्र किया है, लेकिन मूल खिचड़ी यानि सादी खिचड़ी की विधि कुछ यूं बताई है
पांच कटोरी चावल
पांच कटोरी दाल
पांच कटोरी घी
नमक स्वादानुसार
अगर आप खिचड़ी बनाने जा रहे हों तो जरा एक बार इस तरीके का इस्तेमाल करके भी देखें-
आधी कप मूंग दाल
एक कप चावल
3 से 4 कप पानी, या आवश्यकतानुसार
चौथाई चम्मच जीरा
3 से 4 तेज पत्ता
3 से 4 लौंग
नमक स्वादानुसार
बनाने की विधि
चावल और दाल को अलग अलग कुछ  घंटे के लिए भिगोएं. फिर पानी छान लें. तीन से चार चम्मच तेल या घी लें और इसे तेज पत्ता, लौंग लेकर कुछ सेकेंड तक फ्राइ करें. फिर इसमें धीरे धीरे दाल और चावल मिलाएं. इसे आठ से दस मिनट फ्राइ करें. अब इसमें और पानी मिलाएं. मध्यम आंच पर बंदकर पकाएं. फिर कुछ देर बाद आंच धीमी करें. पकने दें. जब तक चावल और दाल पक नहीं जाते. अगर जरूरत हो तो और पानी मिला सकते हैं. अगर आप चाहें पतली पतली सब्जियां मसलन-पालक, टमाटर, गोभी, मटर भी मिला सकते हैं लेकिन ये काम तभी करें जब खिचड़ी तीन चौथाई पक गई हो. अब इस पर भुना हुआ जीरा, हरी धनिया के पत्ते और पतली कटी प्याज ऊपर से छिड़क सकते हैं.
हालांकि शुद्धतावादी यही कहेंगे कि असली खिचड़ी तो वही है, जिसमें बस चावल, दाल, नमक और हल्दी मिलाओ और फिर सही तरह से पकाकर खाओ. वैसे खिचड़ी का असली आनंद तभी है, जब इसे शुद्ध गरम घी, रायता, पापड़, चटनी, अचार, आलू का भरता और सलाद के साथ सर्व करें. अगर चाहें तो कई तरह की चटनी का इस्तेमाल भी कर सकते हैं. इस खाने का जो स्वाद आपकी जीभ पर आएगा, उसे आप शायद सालों याद रखेंगे.
दुनियाभर में शाकाहारी व्यंजनों को पसंद करने वालों को सुझाव दिया जाता है कि वो एक बार हरे कृष्ण आंदोलन की पाकशाला संबंधी किताब हरे कृष्ण बुक ऑफ वेजेटेरियन कुुकिंग जरूर पढ़ें. इसे डाउनलोड भी किया जा सकता है. इस पुस्तक के जरिए दुनियाभर में बड़ी संख्या में लोगों ने शाकाहारी भोजन बनाना और खाना सीखा. वर्ष 1973 में ये किताब पहली बार प्रकाशित हुई. फिर इस कदर लोकप्रिय हुई कि पूछिए मत. आप भी इसे एक बार जरूर पढ़ें. ये केवल खाने के बारे में ही नहीं बताती बल्कि हर खाने के स्वास्थ्य पहलुओं के बारे में भी बताती है. ये किताब कहती है कि वैदिक डाइट में दालें आयरन और विटामिन बी के साथ प्रोटीन का मुुख्य स्रोत होती हैं. जब ये दोनों साथ मिलाकर खाई जाती हैं तो प्रोटीन की मात्रा भी अपने आप बढ़ जाती है.
क्या आपको मालूम है कि खिचड़ी का असली उदगम कहां है. कहा जाता है कि इसकी शुरुआत दक्षिण भारत में हुई थी.
आप गुजरात से लेकर बंगाल तक चले जाइए या पूरे देश या दक्षिण एशिया में घूम आइए, हर जगह खिचड़ी जरूर मिलेगी लेकिन अलग स्वाद वाली. महाराष्ट्र में झींगा मछली डालकर एक खास तरह की खिचड़ी बनाई जाती है. गुजरात के भरौच में खिचड़ी के साथ कढ़ी जरूर सर्व करते हैं. इस खिचड़ी में गेहूं से बने पतले सॉस, कढी पत्ता, जीरा, सरसों दाने का इस्तेमाल किया जाता है. इसे शाम के खाने के रूप में खाया जाता है.
एलन डेविडसन अपनी किताब आक्सफोर्ड कम्पेनियन फार फूड में लिखते हैं सैकड़ों सालों से जो भी विदेशी भारत आता रहा, वो खिचड़ी के बारे में बताता रहा. अरब यात्री इब्ने बतूता वर्ष 1340 में भारत आए. उन्होंने लिखा, मूंग को चावल के साथ उबाला जाता है, फिर इसमें मक्खन मिलाकर खाया जाता है. खिचड़ी के ना जाने कितने रूप, संस्करण और बनाने की विधियां हैं।
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कायस्थों का खाना-पीना (अंतिम पार्ट)
कायस्थों के खाना-पीना की ये अंतिम कड़ी है. पिछले दिनों मेरी निगाह अमेजन से मंगाई किताब द टू मिनट रिवोल्यूशन पर पड़ी. जब मैने उसे पढ़ना शुरू किया तो इंटरेस्ट बढ़ता गया.  आईआईएम कोलकाता की संगीता तलवार द्वारा लिखी गई ये किताब दरअसल 80 के दशक में मैगी की लांचिंग पर है. उस समय वो नेस्ले की टीम में थी, जो भारत में मैगी लांच कर रही थी. इससे पहले इस टीम ने देशभर में लोगों के खानपान की आदतों, नाश्ते के तौरतरीकों पर काफी डाटा जुटाकर मैगी को देसी बाजार में लांच किया था. ये देश में पैकेज्ड फूड की आने वाली क्रांति की शुरुआत थी. खैर मेरा मकसद इसके जरिए कुछ और बताना है.
ये किताब किताब कहती है 80 के दशक के शुरू में देश में ना के बराबर लोगों ने नूडल्स के बारे में सुना था. अगर लोगों को पता था तो केवल इतना पता था कि ये चाइनीज फूड है. देश में ये गिने-चुने चाइनीज रेस्टोरेंट को छोड़कर ये कहीं सर्व भी नहीं किए जाते थे. उस जमाने में अगर बच्चे स्कूल से आते थे तो मां के सामने सबसे बड़ी समस्या होती थी कि उसको वो फटाफट क्या बनाकर दे. अगर कोई गेस्ट आ जाए तो उन्हें सर्व करने के लिए हमारे पास गिनी चुनी चीजें ही होती थीं. ब्रेकफास्ट के नाम पर हमारे पास जो था उसमें रोटी,पराठा, इडली, डोसा, अंडे और ब्रेड थे. हालांकि उत्तर भारत में साउथ इंडियन रेस्टोरेंट जरूर थे लेकिन घरों में नाश्ते में शायद इडली, डोसा, उपमा जैसी चीजें परोसी जाती थीं. मेहमानों को अगर गर्मागर्म कुछ ना परोसो तो उसे लगता था कि खातिरदार अच्छी तरह नहीं हुई-आमतौर पर उसे पकौड़े, पोहा, तले हुए चिप्स जैसे सीमित नाश्ते थे.
ऐसे में कायस्थ घर भी 70 और 80 के दशक में नाश्ते के मामले में कोई अलग नहीं होते थे. मुझको अच्छी तरह याद है कि हम सुबह कुछ सीमित नाश्ता करते थे. उसमें रात की बासी रोटी पर सरसों का तेल चिपुड़कर नमक और खास मसाले के साथ फैला दिया जाता था. फिर इसे रोल करके खाने को दे दिया जाता था. अक्सर इस रोटी को घी या तेल से सेंककर उसके भीतर रात की बची हुई सब्जी भी सुखाकर भर दी जाती थी. इसे हम लोग कट्टू कहते थे. हालांकि अब ये रोल कहा जाने लगा है.
हमारा आज के दौर का नाश्ता ज्यादा विस्तृत और विविधताभरा हो गया है.तब के अन्य नाश्ते के तौर पर गौर करूं तो रात में भिगोए हुए काले चने को सुबह कटे हुए प्याज और मसाले के साथ छोंक दिया जाता था. नाश्ते में आलू के पराठे, चीला, पकौड़ियां, तले चिप्स, पापड़, साबुदाने की खिचड़ी, हलवा या पूरी-कचौड़ी जैसे व्यंजन मिलते थे. अक्सर पोहा, सूजी या आटे का हलवा नाश्ते में मिल जाता था. उत्तर भारत के घरों में सुबह चना-लाई को प्याज के साथ भूनकर या सीधे सरसों तेल में भूनकर स्वादिष्ट नाश्ता तैयार हो जाता था. एक और पराठानुमा चीज खाने को मिलती थी, उसे घरों में दोस्ती कहा जाता था. उसमें आटे की एक गोल लोई लेकर उसमें हल्का सा घी लगाकर उसके ऊपर दूसरी आटे की लोई चपका इसे गोल बेलकर तावे पर पराठे की तेल या घी से सेंका जाता था. अब लगता है कि उसका नाम दोस्ती इसलिए रखा गया होगा, क्योंकि उसमें दो आटे की लोइयां साथ जोड़कर बेली जाती थीं.
पकौड़ियां कई तरह की होती थीं. बेसन की पकौड़ियां तो हर घर में प्रचलित हैं. आटे में आलू, प्याज, मिर्च काटकर उसमें आजवाइन, जीरा और धनिया मसाला मिलाकर जब पकौड़ी बनाई जाती थी और इसे अचार या चटनी के साथ खाया जाता था तो आनंद आ जाता था. कई और तरह की पकौड़ियां बनती थीं. मूंग की पकौड़ी या मूंगोडी हमेशा साफ्ट होती थी, वहीं अगर चने की दाल को भिगोकर उसकी पकौड़ी बनाई जाए तो हमेशा कुछ करारी होती थी.
इसी चीला भी बेसन, आटे, मूंग या चावल के आटे से अलग अलग तरह बनता था. तो आप कह सकते हैं कि कायस्थों के किचन में ये सारे व्यंजन लगातार बनते थे. अक्सर मुझसे कहा जाता है कि आपने तो सारे व्यंजनों को ही कायस्थों के नाम से पेटेंट कर दिया है. मैं स्पष्ट कर दूं कि ऐसा कतई नहीं है. मैं केवल उन खानों के बारे में लिख रहा हूं जो कायस्थों के किचन में खूब बनते थे. उसमें कुछ उनके अपने इनोवेट किये हुए थे तो कुछ हर घर में प्रचलित. शाम का समय अक्सर खास नाश्ते का होता था, जिसमें कबाब, आलू की टिक्की, बड़ा, मटर की चाट, बेसन के गट्टे या फरे होते थे. हां, जाड़े का सीजन हो तो नाश्तों की विविधता का अंदाज ही बदल जाता था.
हरी मटन और भुट्टे के सीजन में तकरीबन रोज ही सुबह या शाम को नाश्ते में घूघनी या नरम भुट्टे के दानों को मसालों और जीरे आदि से फ्राई करके स्वादिष्ट व्यंजन तैयार हो जाता था. घूघनी में ढेर सारी मटर छीनकर उसके दानों को सरसों तेल में जीरे के साथ फ्राई कर देते हैं. चाहें तो उसमें पतले कटे आलू भी मिला दें, ऊपर से काली मिर्च और स्वादानुसार नमक. मटर अगर ताजी हो और सुबह या शाम के नाश्ते में घूघनी मिल जाए तो बात ही क्या.
कितनी हैरानी की बात है कि उन दिनों मैने उस किचन में ना तो पनीर का उपयोग ज्यादा देखा, ना छोले का और ना ही राजमा का. यहां तक अब हमारे घरों में नाश्ते के तौर पर प्रचलित हो गए दक्षिण भारतीय व्यंजन भी तब उत्तर भारत के घरों में नहीं के बराबर बनते थे. ये 90 के दशक के दौरान हमारे किचने में आए. तब तक सोयाबीन के नगेट्स भी बाजार में नहीं बिकते थे,ये 80 के दशक के मध्य में भारतीय बाजार में आना शुरू हुए.
तरह तरह की दालें के भी अपने निराले रंग होते थे. अक्सर गर्मियां आते ही अरहर की दाल में हरी अमिया (छोटा हरा आम) काटकर मिला दिया जाता था, फिर तो दाल खटास के साथ ज्यादा स्वादिष्ट हो जाती. जब आम का सीजन आता था तो कच्चे आमों को काटकर छत पर उसे अगर सुखाया जाता. इसे साल भर खटाई के तौर इस्तेमाल भी किया जाता.
आमों के आचार बनने का भी सीजन यही होता था.बड़े बड़े चीनी मिट्टी के मर्तबान में अगर गर्मी के सीजन में आम नजर आते थे. दूसरे सीजन में दूसरे अचार. अलग सीजन में अलग सब्जियों को सरसों के तेल और मसाले में डालकर धूप में रख दिया जाता था, ये कई दिन धूप में रखे जाते थे. इसमें मुख्य तौर पर आम, कटहल, नींबू, गोभी और मिर्च के अचार जरूर होते थे. ये इतनी तादाद में होते थे कि सालभर आराम से खाया जा सके.
इसी तरह हर सीजन के साथ उस सीजन की सब्जियों को काटकर सुखाने का काम भी चलता रहता था, ताकि उनका स्वाद कभी भी लिया जा सके. सब्जियों को सुखाकर पूरे सीजन उनके इस्तेमाल का काम राजस्थान में भी बहुत होता. मैं एक बार जब नाथद्वारा गया तो वहां बाजार में मैने दुकानों पर तमाम तरह की सूखाई गई सब्जियां बिकते देखीं.
अचार और सब्जियों को सुखाने के अलावा कई तरह की मसालेदार मुंगोड़ियां और बड़ियां भी बनकर छतों पर सूखने के लिए आ जाती थीं. आलू की फसल आने के बाद चिप्स और पापड़ बनने का काम शुरू हो जाता था. कायस्थों के पुराने घरों में जाएं तो ऐसा लगता है कि मानो वहां हमेशा खाने का उपक्रम ही चलता रहता था. अब तो ये रवायत करीब खत्म सी हो गई है. अक्सर लोग कहते मिल जाते थे कि भाई खाना अगर बनता है तो कायस्थों के घरों में ही. वैसे ये बात सही है कि बड़े परंपरागत कायस्थ परिवारों में घर का चूल्हा करीब दिनभर ही जलता रहता था. अगर थमता है तो रात में ही कुछ घंटों के लिए.
अब अंत गेहूं के एक खास व्यंजन के साथ. जो कायस्थों के घरों में कभी-कभार खासतौर पर बनती थी और मीट को मात देती थी. इसे गेहूं के प्रोटीन की सब्जी या गेहूं के सत्व की सब्जी भी कहा जाता है.
उससे पहले गेहूं के बारे में कुछ चर्चा कर ली जाए. देवेंद्र मेवाड़ी की किताब फसलें कहें कहानी के अनुसार, 12-14,000 साल पहले गेहूं के पुरखे जंगली घास की प्रजाति थे. फिर प्रकृति के खेल से खाने लायक गेहूं का जन्म हुआ. इसके सबसे पुराने अवशेष इराक के जारमो नामक स्थान में मिलते हैं. जारमो में ईसा से करीब 6700 साल पुराने गेहूं के बीजों के अवशेष मिले. मोहनजोदड़ो में गेहूं के जो बीच मिले, वो 5000 साल पुराने हैं. गेहूं की रोटी को सभी धर्मों में बहुत पवित्र माना गया है. गेहूं को “अनाजों का राजा” कहा जाता है.
गेहूं को अगर दो-तीन दिन भिगोकर पीसा जाए तो सफेद रंग का एक चिपचिपा पेस्ट मिलता है. इसे गेहूं का सत्व कहते हैं. अगर इसे पानी से अलग कर दें तो ये सत्व कई काम आ सकता है. इसकी सब्जी से लेकर हलवा और छोटी पापड़ी सूखाई जा सकती है. खैर हम बात गेहू के सत्व की लजीज सब्जी की कर रहे हैं. इस सत्व को छोटी-छोटी बड़ियों के रूप में तल लिया जाता है. फिर इसे जब प्याज को मसालों के साथ पीसकर सब्जी बनाई जाती है तो इसका स्वाद और अंदाज दोनों मीट को मात देता है. इसका हलवा भी उतना ही स्वादिष्ट होता है.
तो कायस्थों की इस खाने-पीने की सीरीज में इतना ही. फिर खाने-पीने की ही एक नई सीरीज के साथ मुलाकात होगी. जिसमें आमतौर पर ये बताने की कोशिश करूंगा कि हर सब्जी को कायस्थों के किचन में कितने अलग-अलग तरह के अंदाज में बनाया जाता रहा है. इस सीरीज को पसंद करने के लिए आप सभी का धन्यवाद  #Kayastha #KayasthaCusine
(संजय श्रीवास्तव की फेसबुक वाल से help)

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