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Corona की दूसरी लहर के सामने मोदी सरकार असहाय, विनाश के आगे राज्य का ढांचा पूरी तरह धराशाई हो चुका है

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दो माह पहले तक नरेंद्र मोदी की सरकार भारत के इतिहास की सबसे लोकप्रिय और आत्मविश्वास से भरपूर सरकारों में एक थी। लेकिन, अब स्थिति उलटी है। विधानसभा चुनाव के नतीजों, काबू में रहने वाले मुख्यधारा के मीडिया में आलोचना, उच्च अदालतों द्वारा लगाई गई तीखी फटकार, नामी एनालिस्ट की बेबाक राय और सोशल मीडिया पर अस्वाभाविक गुस्से के स्तर पर गौर करें तो प्रधानमंत्री और उनकी सरकार मुश्किल में हैं।

यह केवल इतना भर नहीं है कि दूसरी लहर के संबंध में सरकारी सहित अन्य स्वास्थ्य विशेषज्ञों की चेतावनी की बार-बार अनदेखी के प्रमाण सामने आए हैं। ऐसा भी नहीं है कि मोदी और उनकी टीम को वर्षों बाद आई इतनी भयावह विपत्ति से निपटने में कठिनाई हो रही है। दरअसल, भारतीय जनता को लापरवाही और थोड़े सहारे के साथ जीने की आदत है। इसकी बजाय राजनीतिक रूप से शोर मचाने वाले मध्यम वर्ग के बीच पूरी तरह असहाय छोड़ दिए जाने की भावना से लोगों का गुस्सा उफान मार रहा है।

देश में महामारी की स्थिति बदतर हो रही है। दुनियाभर में रिकॉर्ड कोविड-19 के आधे मामले भारत में हो रहे हैं। पिछले माह पॉजिटिव लोगों की संख्या पांच गुना बढ़ी है। इससे स्पष्ट है कि भारत में डरावनी दूसरी लहर अभी पीक पर नहीं पहुंची है। किसी भी देश के लिए ऐसी तबाही भयानक है। मौत के सरकारी आंकड़ों पर लोगों का विश्वास खत्म हो चुका है।

बड़े पैमाने पर मौतें कम होने के वैज्ञानिक और अन्य सबूत हैं। भारत भर में पत्रकारों ने अस्पतालों, विश्रामघाटों, अखबारों में प्रकाशित शोक संदेशों के माध्यम से मृतकों के आंकड़े दिए हैं। इनके मुकाबले सरकारी संख्या बहुत कम है। देश की दो तिहाई आबादी और कमजोर स्वास्थ्य सेवाओं वाले ग्रामीण इलाकों में सही आंकड़ों का पता लगाना तो और ज्यादा कठिन है।

मोदी ने स्वयं अच्छा काम नहीं किया है। मार्च और अप्रैल में उन्होंने लोगों के बीच फैल रही दहशत को दूर करने की बजाय पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव प्रचार में अधिक ताकत लगाई। वैक्सीन की उपलब्धता के मामले में सरकार की भारी गफलत सामने आने के जवाब में मोदी ने जमकर दिखावा किया। उन्होंने टीका उत्सव का एलान कर दिया।

उस दौरान कमी के कारण हर दिन वैक्सीन लगवाने वालों की संख्या आधे से भी कम रह गई थी। वायरस संकट ने मोदी सरकार को नीति बदलने के लिए मजबूर किया है। जनवरी में सरकार के वैक्सीन अभियान को विश्व का सबसे बड़ा और सबसे अधिक उदार अभियान बताया गया था। उसमें बहुत बदलाव करना पड़ा है।

देश की कमी पूरी करने के लिए निर्यात पर प्रतिबंध लगाया गया और सरकार ने आनन-फानन में घोषित किया कि राज्यों और प्राइवेट सेक्टर को आधा खर्च उठाना होगा। आत्मनिर्भरता को नए भारत का मंत्र घोषित करने वाले मोदी ने पूर्व की सरकार द्वारा विदेशी मदद न लेने की नीति को खत्म करते हुए एक दर्जन से अधिक विदेशी सरकारों से मेडिकल सहायता स्वीकार की है। ऑक्सीजन और अन्य सामग्री की गंभीर कमी और जनता की तकलीफों के कारण पुरानी नीति पर चलना असंभव था।

निश्चित रूप से अगले चुनाव में मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी की असली परीक्षा होगी। 2024 में लोकसभा चुनाव हैं इसलिए मोदी के पास नुकसान की भरपाई के लिए काफी समय है। लेकिन, अभी हाल हुए विधानसभा चुनावों से अच्छे संकेत नहीं मिले हैं। विजय की जी-तोड़ कोशिश के बाद पार्टी को पश्चिम बंगाल में जबर्दस्त हार मिली है। वैसे, यह चुनाव महामारी में मोदी के कामकाज पर जनता की राय नहीं थी।

कई बंगाली वोटर भाजपा की लुकी-छिपी धर्मांधता को नापसंद करते हैं। वे उसे हिंदी भाषी पार्टी के रूप में देखते हैं और उसके दिखावटी धार्मिक नेताओं को सांस्कृतिक रूप से अलग मानते हैं। इसके साथ उत्तरप्रदेश में पंचायत चुनावों में भाजपा समर्थक बहुत उम्मीदवारों को उन क्षेत्रों में हार का सामना करना पड़ा है, जिन्हें वे अपनी जागीर मानते हैं। इसमें मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी शामिल है।

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