Newsportal

अफगानिस्तान में उथल-पुथल से एशिया की राजनीति में उबाल:अमेरिकी सेना के हटने के बाद तालिबान से सबसे ज्यादा खतरा चीन, रूस और पाकिस्तान को ही, इसलिए तालिबान के समर्थन के लिए इतने उतावले

0 288

अफगानिस्तान में अमेरिका के सिर्फ एक फैसले ने इस पूरे क्षेत्र में राजनीतिक उथल-पुथल शुरू कर दी है। हर देश को अपनी सीमा और अपनी रणनीतिक साझेदारी की चिंता सताने लगी है। अफगानिस्तान में तालिबान का वर्चस्व होने का सीधा अर्थ कई देशों के लिए लंबा संघर्ष या अपनी ऐतिहासिक भू-राजनीतिक छवि को बदलना होगा।

आज तालिबान के समर्थन में चीन, रूस और पाकिस्तान खुलकर आ चुके हैं। मगर इस भौगोलिक क्षेत्र को समझें तो पाएंगे कि तालिबान के बढ़ने से सबसे ज्यादा अस्थिरता इन्हीं तीन देशों के लिए खड़ी हो रही है। शायद यही वजह है कि तीनों तालिबान से संबंध बनाने के लिए उतावले नजर आ रहे हैं। इन हालात में किस देश के लिए क्या संभावनाएं हैं और क्या खतरे…इस पर  एक्सपर्ट पैनल के विचार-

रूस: मध्य एशिया में अपने आंगन में चीन का दखल बढ़ने से चिंतित पुतिन
रूस के लिए फायदा कम, नुकसान ज्यादा है। उसके लिए एकमात्र फायदा भावनात्मक है, और वो यह कि जिस प्रकार 1980 के अंत में अफगानिस्तान से हारकर उसे निकलना पड़ा था, उसी तरह अमेरिका भी अब हारकर बाहर हुआ है। रूस को शीतयुद्ध का बदला पूरा होता दिख रहा है।

नुकसान : रूस ऐतिहासिक तौर पर खुद को दुनिया का एक सुपर पावर मानता रहा है। आज उसकी छवि चीन के पिछलग्गू की बन गई है, जो उसे स्वीकार नहीं है।

  • अमेरिका के बाहर निकलते ही चीन का दखल अफगानिस्तान के माध्यम से तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान समेत समूचे सेंट्रल एशिया के देशों में बढ़ जाएगा, जो रूस का आंगन कहलाता है। ये देश पहले सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करते थे।
  • अगर चीन का दखल इस क्षेत्र में बढ़ता है तो रूस को डर है कि उसकी साख कम होगी। दूसरा नुकसान ये है कि अफगानिस्तान से अफीम और हेरोइन की तस्करी कई गुना बढ़ जाएगी। इसका खामियाजा रूस को बिगड़ती कानून-व्यवस्था के रूप में झेलना पड़ जाएगा।

ईरान: हेरात से सटी है पूर्वी सीमा, तालिबान बढ़े या आईसिल…दोनों से ही शिया आबादी को खतरा

अफगानिस्तान के हेरात प्रांत से ईरान की पूर्वी सीमा लगती है। अमेरिका की उपस्थिति से वह इस ओर से निश्चिंत था। अमेरिका तालिबान और आइसिल दोनों को नियंत्रण में रखे हुए था। अब ईरान के लिए दोहरा खतरा पैदा हो गया है

  • अगर तालिबान का निजाम आता है तो सीमा पर उसकी शिया आबादी के लिए असुरक्षा बढ़ जाएगी क्योंकि तालिबान शिया समुदाय के खिलाफ है।
  • तालिबान के प्रतियोगी आइसिल ने पांव पसारे तो खुरासान की मांग बढ़ जाएगी, जिसकी परिकल्पना ईरान, पाकिस्तान समेत सीमावर्ती देशों के हिस्सों को मिला कर एक नया इस्लामिक राष्ट्र बनाने की है।

सऊदी अरब: अब कट्‌टरपंथ नहीं चाहता, तभी तालिबान पर अब तक चुप्पी साध रखी है

  • प्रिंस सलमान के नेतृत्व में सऊदी अरब अब तक कट्टर इस्लामिक शासन से बचना चाह रहा है। पाकिस्तान के आग्रह पर जिस तन्मयता से वो 20 साल पहले धर्म के नाम पर चंदा दिया करता था, अब वो उतना आतुर नहीं है। उल्टे अमेरिका की मदद से वो इजराइल से अपने रिश्ते सुधारने में लगा है। यमन में भी ईरान से लड़ने से परहेज कर रहा है।
  • उसके लिए जरूरी है कि वो रूस के साथ तेल के भाव पर साझेदारी विकसित कर सके और ये अमेरिका की मदद के बिना संभव नहीं होगा। अमेरिका इसी बहाने रूस को अपने खेमे में लेने की कोशिश करेगा।

पाकिस्तानः इमरान को जीत नजर आ रही है, सबसे ज्यादा नुकसान उसे

  • अमेरिका के हटने के बाद पाकिस्तान को पश्चिमी दुनिया से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर मिलने वाली आर्थिक मदद जारी रहने की संभावना खत्म हो रही है।
  • आज भी पाकिस्तान का निर्यात पश्चिमी देशों को है, चीन को नहीं। चीन से सिर्फ उसे लोन मिलता है। ऐसे में पश्चिमी देशों से संबंध ठीक रखने के लिए वह ये दिखाना चाहता है कि वह तालिबान को नियंत्रित कर धार्मिक अतिरेक की सीमाएं लांघने से रोक सकता है।
  • दुनिया भी तालिबान को पाकिस्तान का ही सब्सिडियरी मान रही है, मगर खुद पाकिस्तान को शक है कि वह तालिबान को नियंत्रित नहीं कर पाएगा।
  • तालिबान ने सीधे रूस, चीन और भारत से संबंध स्थापित कर लिए तो उसे पाकिस्तान की जरूरत नहीं रह जाएगी।
  • अगर तालिबान ने डूरंड लाइन का मसला उठाते हुए सीमा विवाद छेड़ दिया तो पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा भी अस्थिर हो जाएगी।

भारतः हमारे लिए बड़ी चुनौती है तालिबान…कई अवसर भी हैं

भारत के लिए नए अवसर और चुनौतियां उभर रही हैं। एक तरफ तो भारत रूस और ईरान को अमेरिका के करीब ला सकता है और दूसरी तरफ वो तिब्बत का मामला उठा कर और ताइवान की मदद कर चीन के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है। ऐसा करने के लिए उसे क्वाड में सहभागिता बढ़ानी होगी। अमेरिका के प्रतिबंध के बावजूद उसे ईरान से तेल खरीदना शुरू करना पड़ सकता है। अफगानिस्तान की जनता की सुरक्षा और आतंकवाद का मुद्दा उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जोर-शोर से उठाना होगा।

चीन : जिनपिंग की सबसे बड़ी चिंता…कहीं शिनजियांग में पैठ न बना ले तालिबान

  • अपनी पश्चिमी सीमा पर आतंकवाद के बढ़ते खतरे की वजह से चिंतित चीन, तालिबान को अपने खेमे में शामिल करने के लिए उतावला हो रहा है। वह इस खतरे को अपने फायदे में तब्दील करने की भी कोशिश में लगा है।
  • तालिबान ने भारत से हाथ मिलाया तो भी चीन को नुकसान
  • चीन ने मुस्लिम बहुल शिनजियांग प्रांत में जनता पर बर्बर रुख अपना रखा है। दुनिया के मुसलमानों के हिमायती पाकिस्तान ने भी चीन के मुसलमानों से मुंह मोड़ रखा है। चीन को डर है कि तालिबान और उसके समर्थक गुट चीन में मुसलमानों के पक्ष में आकर आतंकवाद को बढ़ावा दे सकते हैं। चीन को ये भी डर है कि ताजपोशी के बाद तालिबान पाकिस्तान के नियंत्रण से बाहर जाकर भारत और अमेरिका से हाथ मिला सकता है।

फायदे : अमेरिका के मुकाबले खुद को मजबूत साबित कर पाएगा, अफगानिस्तान के खनिज के खजाने भी मिलेंगे

  • अमेरिका कमजोर साबित हो रहा है ये चीन को रास आ रहा है। जापान, ताइवान, फिलिपीन्स, वियतनाम, ऑस्ट्रेलिया और भारत जैसे देशों के लिए चीन संदेश दे सकता है कि अमेरिका जरूरत पड़ने पर उन्हें छोड़कर भाग सकता है।
  • चीन को अफगानिस्तान में करीब सवा तीन सौ लाख करोड़ रुपए की खदानों का रास्ता साफ होता नजर आ रहा है। चीन को अफगानिस्तान बेल्ट एंड रोड के माध्यम से मध्य एवं सेंट्रल एशिया के साथ-साथ पूर्वी यूरोप में अपने पांव जमाने का जरिया नजर आ रहा है।
  • तालिबान पाकिस्तान के दबाव में कश्मीर से लेकर राजस्थान तक आतंकवादी गतिविधियां बढ़ा सकता है। चीन को उम्मीद है कि इस वजह से दबाव में आकर भारत चीन के पक्ष में सीमा समझौता कर सकता है।

अमेरिकाः सिर्फ एक कदम से रूस, चीन, ईरान के लिए मुश्किल खड़ी कर दी

  • अमेरिका किसानों और अवाम को अफीम कारोबार से अलग कर पाने में फेल हुआ है। कोविड महामारी के दौरान आर्थिक नुकसान ने उसे आभास करवा दिया कि वो तालिबान से लड़ सकता है, अफीम से नहीं।
  • अमेरिका समझ गया है कि अफगानिस्तान में रहने से उसके दुश्मन ईरान, रूस और चीन सीमाओं पर तनावमुक्त हैं। सेना हटाने से अमेरिका का इस क्षेत्र में दखल कम नहीं होता है बल्कि खर्च कम हो जाता है। अमेरिका को आशा है कि आने वाले समय में उसके कुछ दुश्मनों को अपनी जिद छोड़कर उसके पाले में आना होगा।
  • चीन के लिए अफगानिस्तान में दखल बढ़ाना मजबूरी होगा। इसकी वजह से दक्षिण चीन सागर और ताइवान से उसका ध्यान भटकेगा जो अमेरिका के लिए फायदेमंद होगा।

तुर्कमेनिस्तान से किर्गिस्तान तक रूस और चीन में वर्चस्व की लड़ाई
इस हिस्से को मध्य एशिया के नाम से जाना जाता है। कभी सोवियत संघ का हिस्सा थे। बिखराव के बाद भी यहां रूस का वर्चस्व बना रहा है। अब चीन का दखल बढ़ रहा है। सिर्फ ताजिकिस्तान ही खुलकर तालिबान के विरोध में आया है।

एक्सपर्ट पैनल-

इयान ब्रेमर (दुनिया की सबसे बड़े रिस्क असेसमेंट ग्रुप यूरेशिया के संस्थापक), टेरेसिटा शेफर (पूर्व अमेरिकी राजनयिक), वैंडा फैलबॉब ब्राउन (ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन की सीनियर फेलो), प्रोफेसर फैज जालांद (काबुल विश्वविद्यालय में सीनियर फैकल्टी), श्याम सरन (पूर्व भारतीय विदेश सचिव)

Leave A Reply

Your email address will not be published.