अफगान महिलाओं की 100 साल की दास्तान:1971 तक अफगानिस्तान में 14 महिलाएं जज थीं, पर 1998 में घरों में लॉक कर के खिड़कियां तक बंद कर देते थे ताकि कोई मर्द उन्हें देख न ले
बात बराबरी की:युद्ध में लड़ाकों को औरतें तोहफे के रूप में मिलती हैं; वे चाहे यौन सुख भोगें या बैलगाड़ी में बैल की तरह जोतें, उनकी मर्जी #अशरफ गनी सरकार और सेना को लगातार कमजोर कर रहे थे, एक साल में तालिबान का विरोध करने वाले 6 कोर कमांडरों को जबरन हटाया
एक तरफ अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत काबिज हुई और दूसरी तरफ पूरी दुनिया ने कहा- अब अफगानी महिलाओं क्या होगा? जहां कभी महिलाएं स्कर्ट पहनती थीं, वो आज मोटे कपड़ों के बने बुर्कों में खुद को पूरी तरह छिपाने को मजबूर हैं। आखिर अफगानिस्तान में महिलाओं के साथ ऐसा क्या हुआ है? हम सबूत समेत यहां अफगान महिलाओं की पूरी कहानी कह रहे हैं। स्टोरी के कवर में सबसे ऊपर इसका पूरा वीडियो भी लगा हुआ है।
इस कहानी के 6 हिस्से हैं। 1919 से 1978 तक, अफगान के अपने लोगों का शासन, दूसरा 1978 से 1989 तक, सोवियत यूनियन की सेना का शासन, तीसरा 1989 से 1996 तक, तालिबान और अफगान सरकार की लड़ाई के दौर में, चौथा 1996 से 2001 तक, तालिबानी हुकूमत के दौर में, पांचवां 2001 से 2021 तक अमेरिकी सेना का शासन और अब छठा, फिर से तालिबानी हुकूमत। आइए बारी-बारी से एक-एक करके चलते हैं-
पहला हिस्सा, साल 1919 से 1978: अफगान के अपने शासक, जो मर्जी पहनने की आजादी थी
साल 1926, अफगानिस्तान में शासन अमीर अमानुल्लाह खान का था। उन्होंने अफगानिस्तान में नया ड्रेस कोड लगाया, जिसमें ये औरतों के ऊपर छोड़ा गया कि वो चाहें तो पर्दा करें, चाहे तो न करें और उनका जैसा मन हो वैसे कपड़े पहनें। अमानुल्लाह खान की एक लाइन बड़ी मशहूर है-
धर्म में ये जरूरी नहीं है कि औरतें अपने हाथ, पैर और चेहरा ढंकें।
अमानुल्लाह खान की पत्नी क्वीन सोराया का एक बयान ‘कैनेडियन वुमन फॉर वुमन इन अफगानिस्तान’ नाम की रिपोर्ट में दर्ज है:
“ये मत सोचिए कि सिर्फ मर्द देश की सेवा करें। इस्लाम के शुरुआती दिनों में औरतों ने बढ़-चढ़कर समाज की सेवा की है। हमें भी अपने देश के विकास में हिस्सा लेना है,लेकिन ये बिना पढ़ाई-लिखाई के नहीं होगा। इसलिए घरों से निकलिए। ज्ञान हासिल कीजिए।”
1966 से 71 के बीच 14 अफगानी महिलाएं जज थीं और 2 सीनेटर
UK का एक NGO है- एमनेस्टी इंटरनेशनल, दुनियाभर में ह्यूमन राइट्स से जुड़ा डेटा इकट्ठा करता है। इसकी रिपोर्ट्स का दावा है कि 1919 में अफगान महिलाओं को वोट देने का अधिकार था। 1923 में औरतों को अपनी पसंद से शादी करने के कानूनी अधिकार मिल गए थे। 1928 में अफगानी महिलाओं का एक ग्रुप तुर्की में स्कूल अटैंड करने गया था। 1940 से 1950 के बीच अफगान महिलाएं नर्स, डॉक्टर और टीचर्स बनने लगीं। साल 1959 से 1965 आते-आते अफगानी महिलाएं सिविल सर्विसेज में, स्पोर्ट्स में खुलकर हिस्सा लेने लगीं।
1965 में दो महिला सीनेटर चुन गई थीं और 1966 से 71 के बीच अफगानी अदालतों में 14 महिला जज पहुंच गई थीं। एक रिपोर्ट का दावा है कि 60 के दशक में 8% अफगान महिलाएं बाहर जाकर नौकरी करने लगी थीं, खुद पैसे कमाने लगी थीं, उनकी स्टाइल और फैशन की चर्चा होने लगी थी।
दूसरा हिस्सा, 1978 से 1889 तकः सोवियत यूनियन और अमेरिका की लड़ाई में महिलाओं का घर से निकलना हुआ बंद
1978 के दौर में दुनिया की दो महाशक्तियां हुआ करती थीं, अमेरिका और सोवियत यूनियन। सोवियत यूनियन बाद में नहीं रहा। उसका बड़ा हिस्सा अब रूस है। तब अफगानी लोग राजशाही से मुक्ति चाहते थे और सोवियत यूनियन पीछे से सपोर्ट कर रहा था। ये बात अमेरिका को फूटी आंख नहीं भाती थी।
एक तरफ सोवियत यूनियन के सपोर्ट से अफगान क्रांति हो गई, तो दूसरी ओर अमेरिका ने गुप्त ऑपरेशन शुरू किया। और तभी से अफगानिस्तान में कट्टर इस्लामिक विचारधारा वाले मुजाहिदीन पैदा हो गए। अमेरिका के पैसों पर पलने वाले इन लड़ाकों ने पहला काम किया इस्लामिक कानून को मनवाने का और महिलाओं की आजादी को खत्म करने का।
हालात बिगड़े तो सोवियत यूनियन ने 1980 में अपनी सेना अफगानिस्तान में भेज दी। मुजाहिदीन और सोवियत सेना 9 सालों तक टकराती रहीं। जिन जगहों पर सोवियत सेना ताकतवर होती, वहां महिलाएं पहले की तरह काम करतीं, लेकिन जिन जगहों पर मुजाहिदीन का प्रभाव बढ़ता, वहां की महिलाओं का घर से बाहर निकलना मुहाल हो जाता।
तीसरा हिस्सा, 1989 से 1996 तकः अफगान सरकार और तालिबान की लड़ाई, लेकिन नुकसान केवल महिलाओं का
सोवियत यूनियन ने अपनी सेना वापस बुला ली और अफगानियों को छोड़ गए उनकी किस्मत पर। अमेरिका का भी मतलब निकल गया था। वो भी भूल गया कि उसने अफगान में धार्मिक कट्टरता को जन्म दिया था। महिलाओं पर हिंसा की खबरें आम हो गईं।
गृहयुद्ध के दौरान महिलाओं की आवाज बाहर ही नहीं आ पाईं। अफगानी महिलाएं मुजाहिदीन और सरकार दोनों से नाराज थीं। तभी धार्मिक पढ़ाई करने वाले एक छात्रों का ग्रुप बड़ा तेजी से पॉपुलर हो रहा था। इसका नाम था तालिब। 1990 में जब इसे अपना नेता मिला, मुल्ला मुहम्मद उमर तो इसका नाम हो गया तालिबान।
देश गृह युद्ध से गुजर रहा था। नौकरियां जा चुकी थीं। हिंसा के डर से महिलाएं घर में रहने लगीं थीं, लेकिन तालिबान ने महिलाओं के लिए कुछ और ही सोच रखा था।
चौथा हिस्सा, 1996 से 2001 तकः अफगान में तालिबान ने महिलाओं को यौन-दासी बना दिया
कब्जा लेते ही तालिबान ने कहा- शरिया कानून लागू हो चुका है। कानून लंबा-चौड़ा है, लेकिन इसमें महिलाओं के लिए जो बातें हैं, उन्हें देखिए-
- बिना मर्द को साथ लिए कोई महिला घर से बाहर नहीं निकल सकती।
- घर से बाहर निकलते वक्त पर्दा न करना अपराध है। बाहर रहने पर ऐसा कोई कपड़ा नहीं पहन सकतीं जिसमें शरीर का कोई अंग दिखाई दे।
- किसी मर्द डॉक्टर्स से चेकअप नहीं करा सकतीं।
- फिर पति की सेवा और घर के अंदर के काम के अलावा कोई बाहरी काम नहीं कर सकतीं।
- जब कोई महिला काम ही नहीं कर सकती तो महिला डॉक्टर बनेगी नहीं, और पुरुषों से महिलाएं चेकअप नहीं करा सकतीं, ऐसे में महिलाओं को डॉक्टरी सुविधा ही नहीं मिली।
- कोई लड़की पढ़ाई नहीं कर सकती।
- किसी खेल में हिस्सा लेना तो दूर, स्टेडियम जाकर कोई खेल देख भी नहीं सकतीं। अगर कोई महिला बिना मर्द को साथ लिए घर से बाहर आ गई तो तालिबानी समर्थक या तालिबानी सेना के लोग ऐसी महिलाओं को सरेआम पीटने लगते थे।
- संगीत नहीं सुन सकतीं, सिनेमा नहीं देख सकतीं, सारे सिनेमाहॉल तोड़ दिए गए थे।
- अपने घर के दरवाजे-खिड़कियां बंद रखनी होंगी, ताकि बाहर से कोई किसी महिला को देख न ले।
- अपनी पसंद से शादी नहीं कर सकतीं। जब 2020 में काबुल के गाजी स्टेडियम क्रिकेट लीग शुरू हुई तो ये तस्वीर खूब वायरल हुई थी। ये वही स्टेडियम है, जिसमें 1999 में एक महिला पर अश्लीलता के आरोप लगाकर उसकी सरेआम हत्या कर दी गई थी।
ह्यूमन राइट्स की एक रिपोर्ट कहती है कि तब 1996 से लेकर 98 के बीच 2 सालों के भीतर 100 गर्ल्स स्कूल बंद कराए गए थे। अगर कोई शरिया कानून की बातों को न मानने की जुर्रत करता था तो उसे कोड़े मारे जाते थे, सरेआम चौराहे पर लाकर पत्थर मार-मार कर जान ले ली जाती थी। भले वो नाबालिग हो।
पांचवा हिस्सा, 2001 से 2020 तकः अमेरिकी सेना का शासन, महिलाओं के साथ हिंसा होती रही, लेकिन वो अधिकारों के लिए लड़ती रहीं
अमेरिकी सेना के शासनकाल के बारे में UNICEF और ह्यूमन राइट्स के कुछ डेटा हम बारी-बारी से रख रहे हैं, उन्हें देखिए-
- 2015 से अब तक पहली कक्षा में लड़कियों के नाम लिखाने में 57% की गिरावट दर्ज की गई है। फिलहाल अफगानिस्तान की सिर्फ 37% टीनेज लड़कियां ही पढ़-लिख सकती हैं। लड़कों में ये आंकड़ा 66% का है। UNICEF की रिपोर्ट के मुताबिक करीब 37 लाख अफगानी बच्चे बढ़ने के लिए स्कूल ही नहीं भेजे जाते। इनमें से 60% लड़कियां होती हैं।
- शिक्षा को हमले से बचाने के लिए बने वैश्विक गठबंधन GCPEA ने बताया कि 2017 से 2019 के बीच अफगानी स्कूलों पर 300 से ज्यादा हमले हुए। 8 मई 2021 को काबुल के दश्त-ए-बार्ची जिले के सैयद-अल-शुहादा गर्ल्स स्कूल के सामने कोई एक कार खड़ी कर गया। जब स्कूल की बच्चियों की छुट्टी हुई तो कार में भरा बम फट गया। इसमें 85 लोगों की मौत हुई। इनमें से ज्यादातर उस स्कूल की बच्चियां थीं। 147 छात्राएं घायल भी हुई थीं।
- अफगानिस्तान में फिलहाल हर 10 हजार लोगों पर केवल 4.6 डॉक्टर, नर्स या किसी तरह के मेडिकल प्रोफेशनल हैं। इन तक पहुंच भी 90% से ज्यादा केवल पुरुषों की है। अफगानी महिलाएं मेडिकल सुविधाओं के लिए तरसती हैं।
- संयुक्त राष्ट्र प्रति 10 हजार लोगों पर कम से कम 23 मेडिकल प्रोफेशनल वाले देशों को उस कैटगरी में रखता है जहां सभी को स्वास्थ्य सुविधाएं सही से मिल जाती हैं। अफगानिस्तान इससे 500% कम सुविधाओं में जी रहा है। अलजजीरा की एक रिपोर्ट के अनुसार कई बार ऐसी नौबत आती है जब बुखार से तपती महिलाएं 1-1 गोली के लिए तरसती हैं।
- ग्लोबल राइट्स की रिपोर्ट के अनुसार अफगानिस्तान की 87% महिलाएं किसी न किसी रूप में पुरुषों के शोषण की शिकार हैं। चाहे वो शारीरिक शोषण हो, सबके सामने हिंसा करना हो, पैसे को लेकर बेइज्जत करना हो, मानसिक रूप से प्रताड़ित करना हो या फिर उनके ऊपर सेक्स के लिए हिंसा करना हो। इस तरह के मामलों को जब जोड़ते हैं तो पाते हैं कि हर 100 अफगान महिलाओं में से 87 महिलाएं सताई हुई होती हैं।
छठा हिस्साः 15 अगस्त 2021 के बाद अब तकः देश से भागने के लिए रनवे पर फ्लाइट के साथ झूलती दिखीं
काबुल पर 15 अगस्त को तालिबानी सेना ने कब्जा कर लिया था। अगले कुछ दिनों में तालिबान ने पूरे अफगान पर अपनी हुकूमत का ऐलान कर दिया। इसके बाद काबुल एयरपोर्ट पर महिलाओं को भागते हुए विमानों पर झूलते हुए देखा गया।
अफगानिस्तान में महिलाओं की माजूदा हालत देखने-समझने के लिए इन 5 महिलाओं के बयान देखिए-
- अफगानिस्तान में चुनाव आयोग की पूर्व सदस्य जारमीना काकर ने BBC को बताया, ”इन दिनों मुझसे कोई पूछता है कि मैं कैसी हूं? तो इस सवाल पर मेरी आंखों में आंसू आ जाते हैं और मैं कहती हूं कि ठीक हूं, लेकिन असल में हम ठीक नहीं हैं। हम ऐसे दुखी पंछियों की तरह हो गए हैं, जिनकी आंखों के सामने धुंध छाई हुई है और हमारे घरौंदों को उजाड़ दिया गया है। हम कुछ नहीं कर सकते, केवल देख सकते हैं और चीख सकते हैं।”
- अफगानिस्तान की फैशन फोटोग्राफर फातिमा कहती हैं कि अफगानी महिलाएं दुनिया की सबसे स्टाइलिश औरतों में मानी जाती हैं, पर तालिबान के लौटने से उन्हें फिर से बुर्के में लौटना पड़ेगा।
- यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली 26 साल की हबीबा कहती हैं- ”तालिबान ने स्कूल-कॉलेज तो बंद करा दिए हैं, लेकिन बुर्के की दुकानें खोल रखी हैं। इनमें मोटे कपड़े वाले बुर्के की मांग सबसे ज्यादा है, जो महिलाओं को पूरी तरह से ढंक देता है। मेरी मां मिन्नतें कर रही हैं कि मैं और मेरी बहन बुर्का पहनना शुरू कर दें। मां को लगता है कि वो हमें बुर्का पहनाकर तालिबान से बचा लेंगी, लेकिन हमारे पास बुर्का नहीं है, न ही मैं खरीदना चाहती हूं। बुर्का पहनने का मतलब हुआ कि मैंने तालिबान को खुद को कंट्रोल करने का अधिकार दे दिया। मुझे डर है कि जिन उपलब्धियों के लिए मैंने इतनी मेहनत की, वो अब मुझसे छिन जाएंगी।”
- काबुल यूनिवर्सिटी से इंटरनेशनल रिलेशंस का कोर्स कर रहीं आयशा कहती हैं, ”मेरे फाइनल सेमेस्टर पूरे होने में महज दो महीने बाकी रह गए हैं, लेकिन अब मैं शायद ही कभी ग्रेजुएट हो पाऊं। लोग सदमे में हैं। हम समझ नहीं पा रहे हैं कि हम कैसा महसूस करें।”
- 28 साल की निलोफर अयूबी जो इंटीरियर डिजाइनिंग कंपनी चलाती हैं, कहती हैं कि हालात जो भी हों वह अपना काम नहीं छोड़ेंगी। निलोफर के मुताबिक, “अगर तालिबान आते हैं, तो उन्हें या तो मुझे काम करने देना पड़ेगा या मारना पड़ेगा।”
तालिबान ने जो हालिया फोटो जारी की हैं उनमें लड़कियां स्कूल जाती दिख रही हैं। कुछ महिलाएं अपने लिए राजनीति में अधिकारों की भी मांग करती नजर आई हैं, लेकिन ये भी सामने आ रहा है कि न्यूज चैनलों में महिला न्यूज रीडर और जर्नलिस्ट्स को घर बैठने को कह दिया गया है। वहां की सबसे युवा मेयर ने भी इस पर चिंता जाहिर की है।
फिलहाल एक उम्मीद है। अपनी छवि सुधारने में लगे तालिबानी प्रवक्ता सुहैल शाहीन का कहना है, ”हम महिलाओं की इज्जत, संपत्ति, काम और पढ़ाई करने के अधिकार की रक्षा करने के लिए समर्पित हैं। उन्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। उन्हें काम करने से लेकर पढ़ाई करने के लिए भी पिछली सरकार से बेहतर स्थितियां मिलेंगी।”
बात बराबरी की:युद्ध में लड़ाकों को औरतें तोहफे के रूप में मिलती हैं; वे चाहे यौन सुख भोगें या बैलगाड़ी में बैल की तरह जोतें
नब्बे का दशक था, जब अफगानिस्तान का जिक्र होते ही कमजोर दिलवाले कसकर कान बंद कर लिया करते थे। इत्र लगाकर घर से बाहर निकलने पर झुंडभर अफगानी युवतियों को गोली मार दी गई। वजह? औरत की खुशबू मर्द तक पहुंचने से वह रास्ता बहक जाता है। एक युवती को तो इसलिए जान देनी पड़ी, क्योंकि वह घर के सामने ऊंची आवाज में बात कर रही थी। औरत की आवाज मर्दाना कानों तक पहुंचे तो वह फर्ज भूलकर प्रेम में डूब सकता है। कुछ सालों बाद अफगानिस्तान की गलियों में अमेरिकी सेना के भारी बूट चहलकदमी करने लगे। बंदूकों के साए में लड़कियां एक बार फिर ‘आजाद’ हुईं। वे पसंदीदा खुशबू लगाने लगीं। काबुल के बाजारों में रंग दिखने लगे। पुरुषों के मुल्क में महिला चेहरे भी नुमाया होने लगे।
अब बात अगस्त 2021 की। अफगानिस्तान पर तालिबान का फिर से कब्जा हो गया है। खूबसूरत अफगानी लड़कियां, किसी गलती की तरह तहखानों में छिपाई जा रही हैं। कहीं ऐसा न हो कि तालिबानी लड़ाके आकर उन्हें उठा ले जाएं। गलियों की खुशगप्पियां गायब हैं। काबुल की शाम अब लौटते पक्षियों की बजाय गोलियों और गालियों से गूंजती है। अफगानिस्तान में जो हो रहा है, नया नहीं। मुंह पर मोटी चादरें लपेटे, गहरे कपड़े पहने तालिबानी सोच वाले पुरुष भी अकेले नहीं।
हर युद्ध में औरत को सबसे ज्यादा रौंदा गया
चाहे रूस हो, ब्रिटेन हो, चीन हो या पाकिस्तान- हर जंग में मिट्टी के बाद जिसे सबसे ज्यादा रौंदा गया, वह है औरत। वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सैनिकों के दिल बहलाव के लिए एक पूरी की पूरी सेक्स इंडस्ट्री खड़ी हो गई। मोम की तरह फिसलती त्वचा वाली वियतनामी युवतियों के सामने विकल्प था- या तो वे अपनी देह उनके हवाले करें या फिर वो जबर्दस्ती कुचली जाएंगीं। इस दौरान हजारों कम उम्र लड़कियों को हॉर्मोन्स के इंजेक्शन दिए गए ताकि उनका भरा-भरा शरीर अमेरिकी सैनिकों को ‘एट होम’ महसूस कराए। इस पूरी जंग के दौरान सीली-गंध वाले वियतनामी बारों में सुबह से लेकर रात तक उकताए सैनिक आते, जिनके साथ कोई न कोई वियतनामी औरत होती।
लड़ाई खत्म हुई। अमेरिकी सेना वापस लौट गई, लेकिन इसके कुछ ही महीनों के भीतर 50 हजार से भी ज्यादा बच्चे इस दुनिया में आए। ये वियतनामी-अमेरिकी मूल के थे, जिन्हें कहा गया- बुई दोय (bui doi) यानी जीवन की गंदगी। इन बच्चों की आंसूभरी मोटी आंखें देख मां का कलेजा टूटता तो था, लेकिन गले लगाने को नहीं, बल्कि उन बलात्कारों को याद करके, जिनकी वजह से वे मां बनीं।
साल 1919 से लगभग ढाई साल चले आयरिश वॉर की कहानी भी क्रूरताओं का दोहराव-भर है। खुद ब्यूरो ऑफ मिलिट्री हिस्ट्री (Bureau of Military History) ने माना था कि इस पूरे दौर में औरतों पर बर्बरता हुई। सैनिकों ने रेप और हत्या से अलग एक नया तरीका खोज निकाला था। वे दुश्मन औरत के बाल छील देते। सिर ढंकने की मनाही थी। सिर मुंडाए चलती औरत गुलामी का इश्तेहार होती। राह चलते कितनी ही बार उसके शरीर को दबोचा जाता, अश्लील ठहाके लगते और अक्सर सब्जी-तरकारी खरीदने निकली औरत घर लौट ही नहीं पाती थी। पुरुष लेबर कैंपों में थे और छोटे बच्चे घर पर इंतजार करते हुए- उन मां और दीदी का जो कभी लौट नहीं सकीं।
पुरुष का गर्व तोड़ने के लिए महिलाओं का बलात्कार
इतिहास में नाजियों की गिनती सबसे क्रूर सोच में होती है। हालांकि जर्मन औरतें भी सुरक्षित नहीं रहीं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सोवियत की सेना ने पूर्वी प्रूशिया पर कब्जा कर लिया। घरों से खींच-खींचकर जर्मन औरतें-बच्चियां बाहर निकाली गईं और एक साथ दसियों सैनिक उन पर टूट पड़े। सबका एक ही मकसद था- जर्मन गर्व को तोड़ देना। किसी पुरुष के गर्व को तोड़ने का आजमाया हुआ जरिया है, उसकी औरत से बलात्कार। रेड आर्मी ने यही किया। इस दौरान सेना का सबसे मजबूत पुरुष बलात्कारियों को और बर्बरता के लिए जोश दिला रहा होता।
सोवियत सेना के युवा कैप्टन Alexander Solzhenitsyn ने एक किताब लिखी। गुलाग आर्किपेलगो (The Gulag Archipelago) नामक इस किताब में कैप्टन ने माना कि जर्मन औरतों से रेप रूस के लिए जीत का इनाम था। युद्ध खत्म होने के बहुत बाद तक भी हजारों जर्मन औरतें साइबेरिया में कैद रहीं। वहां नंबर 517 नाम के कैंप में थके हुए रूसी सैनिक आते और नग्न जर्मन औरतों की परेड कराते। जो औरत किसी सैनिक को भा जाती, वो उसे उठाकर ले जाता और ऊब जाने पर वापस पटक देता।
छह महीने के भीतर कैंप की लगभग सारी औरतें खत्म हो गईं। कट्टरपन के लिए कुख्यात इस्लामिक स्टेट (ISIS) के लड़ाके यजीदी औरतों के नाम लिखकर उसे कटोरदान में डाल देते और फिर लॉटरी निकाली जाती। जिस भी औरत का नाम, जिस लड़ाके के हाथ लगे, उसे वो औरत तोहफे में दे दी जाती। वो उससे यौन सुख भोगे, चाहे बैलगाड़ी में बैल की तरह जोते।
औरतें बच गईं तो भी उनकी आत्मा तो छलनी होगी ही
पूर्वी बोस्निया के घने जंगलों के बीचों-बीच एक रिसॉर्ट है- विलिना व्लास (Vilina Vlas)। यहां चीड़ के पत्तों की सरसराहट के बीच प्रेमी जोड़े टहला करते। बोस्निया की ट्रैवल गाइड में इसे हेल्थ रिसॉर्ट भी कहा जाता। नब्बे के दशक में हुए बाल्कन वॉर ने इसका चेहरा बदल दिया। रिसॉर्ट को रेप कैंप में बदल दिया गया। यहां बोस्निया की औरतों से सर्बियन लड़ाकों ने महीनों तक लगातार गैंग रेप किया। कुछ संक्रमण से मरीं। कुछ ज्यादती से। तो कुछ ने छतों से छलांग लगा दी। साल 2011 में संयुक्त राष्ट्र (United Nations) ने अपनी रिपोर्ट में ये ‘राज’ खोला। तब तक बलात्कारी भीड़ में मिल चुके थे, और मुर्दा औरतें जुल्म की गवाही देने हाजिर नहीं हो सकीं।
युद्ध चाहे हजार साल पहले बीता हो, या आज। अंदरूनी हो या फिर दो मुल्कों के बीच। औरतें हरदम जीत की ट्रॉफी या हार की याद बनती रहीं। अफगानिस्तान में भी यही हो रहा है। कई औरतें तालिबानियों से बच भी निकलेंगी। उनके शरीर सुरक्षित होंगे, लेकिन आत्माएं छलनी। ये वे औरतें हैं, जिनके पास सुनाने को कोई कहानी नहीं। वे राजा-रानी या परियों के किस्से नहीं कहेंगी। वे चुप रहेंगी। और जब कहेंगी तो दुनिया की तमाम लड़ाइयों में हुआ खून-खराबा हल्का पड़ जाएगा। तमाम किताबों को दीमक चाट जाएंगे। और मर्दाना जीत का सारा गर्व दुनिया के सबसे गहरे समंदर में डूब जाएगा। कहो औरतों, कहो। इस बार प्रेम की नहीं, परियों की भी नहीं, सच्चाई की कहानी कहो!
स्टोरी:अशरफ गनी सरकार और सेना को लगातार कमजोर कर रहे थे, एक साल में तालिबान का विरोध करने वाले 6 कोर कमांडरों को जबरन हटाया
अफगानिस्तान में तालिबानी एक के बाद एक प्रांत बिना ज्यादा मशक्कत के जीत रहे थे। उधर, सेना के कमांडर हथियार रख रहे थे। आखिर किसके कहने पर सेना ने हथियार डाले? किसी को कानों कान भनक तक नहीं हुई और देश के राष्ट्रपति अशरफ गनी भाग खड़े हुए हुए। इसको लेकर वहां की जनता ही नहीं, वहां के राष्ट्रपति भवन, एंटी तालिबान लीडरशिप के अलावा पूरी दुनिया के लोगों के मन में सवाल उठ रहे हैं।
क्या वहां के पूर्व राष्ट्रपति इस साजिश का हिस्सा थे? प्रेसिडेंट हाउस के सूत्रों के मुताबिक पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी के राइट हैंड समझे जाने वाले वाइस प्रेसिडेंट अमरूल्लाह सालेह को भी न तो सेना के हथियार डालने और न ही गनी के भागने की कोई भनक थी।
JNU में साउथ एशियन स्टडीज डिपार्टमेंट में प्रोफेसर संजय कुमार भारद्वाज कहते हैं, ‘दो बातें तो साफ हैं, अशरफ गनी कई सालों से तालिबान से नेगोशिएशन कर रहे थे। दूसरी बात उन्हें अफगानिस्तान से निकलने का सेफ पैसेज तालिबानियों ने मुहैया करवाया।’
साथ ही, भारद्वाज इसका दूसरा पक्ष भी रखते हैं। वे कहते हैं, ‘अमेरिकी फौज के वहां से निकलने के बाद गनी यह समझ चुके थे कि सत्ता ट्रांसफर करनी ही पड़ेगी।’
गनी अगर रुकते तो भी पावर ट्रांसफर को 1-2 महीने के लिए ही रोक सकते थे, लेकिन तब यह बहुत खून खराबे का दौर होता है। लिहाजा फौज के सरेंडर करने का आदेश सरकार की तरफ से आया या फिर फौज ने खुद यह निर्णय लिया, इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।
उधर, रक्षा मामलों के जानकार उदय भास्कर कहते हैं, ‘अशरफ गनी जिस तरह से भागे, उन्होंने अफगानिस्तान की जनता को धोखा दिया। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन वे डर की वजह से भागे या फिर सब कुछ पूर्व नियोजित था, यह स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता।’
बात कुछ भी हो, लेकिन अब वहां की लीडरशिप और गनी के करीबी लोग अशरफ गनी पर कायर होने के साथ ही साजिश रचने का आरोप भी अंदरखाने लगाने लगे हैं। हालांकि, अभी लोग खुलकर गनी को साजिश का हिस्सा नहीं बताना चाहते, लेकिन नाम न बताने की शर्त पर वहां की लीडरशिप से जुड़े सूत्र इस ‘साजिश की कहानी’ की सभी कड़ियां जोड़कर बताते हैं।
पूर्व राष्ट्रपति के मंसूबे पर अब खड़े हुए सवाल
गनी सरकार में रहे एक आधिकारिक सूत्र के मुताबिक, ‘पिछले करीब एक साल से गनी लगातार अपनी ही सरकार की इंटीरियर मिनिस्ट्री (लॉ) और डिफेंस मिनिस्ट्री को अस्थिर कर रहे थे। फोर्स में कुछ कमांडर्स को जबरन रिटायर किया जा रहा था, तो कुछ के तबादले दूसरे विभागों में किए जा रहे थे। इन सबके प्रमाण भी मौजूद हैं। अगर सारे प्रमाणों की क्रोनोलॉजी तैयार करें तो जो तस्वीर बनेगी, वह किसी पूर्व नियोजित ‘साजिश’ की ही होगी।’
‘खूंखार तालिबान ने अशरफ गनी को इतनी बड़ी रकम के साथ आसानी से सुरक्षित जाने दिया! क्या यह गनी और तालिबान के बीच हुई पूर्व नियोजित डील को दर्शाने के लिए काफी नहीं है?’ सूत्र तो यह भी कहते हैं कि गनी ने अपने अधिकारियों और दोनों वाइस प्रेसिडेंट समेत पूरे मंत्रिमंडल को अंधेरे में रखा। अगर सत्ता को शांतिपूर्वक ट्रांसफर करने का भी फैसला लिया जाना था तो इसकी चर्चा सरकार के भीतर पूरी कैबिनेट और जिम्मेदार अधिकारियों के साथ क्यों नहीं हुई?
जिस दिन गनी अफगानिस्तान से भागे, उस दिन प्रेसिडेंट हाउस में क्या हुआ था?
प्रेसिडेंट हाउस के आधिकारिक सूत्र के मुताबिक, ‘रविवार के दिन राष्ट्रपति भवन के सभी अधिकारी, कर्मचारी और नेता वहां इकट्ठा थे। रणनीतिक तौर पर बातचीत चल रही थी कि कैसे तालिबानियों के खिलाफ मोर्चा लिया जाए? तभी फोर्स के कुछ लोग आए और हमें वहां से हटने के लिए कहा गया। हम सब वहां से निकल गए। तालिबानियों के सामने इस तरह से घुटने टेकने का प्लान बिल्कुल भी नहीं था। फिर अचानक हमें खबर मिली कि अशरफ गनी देश छोड़कर भाग गए हैं। हम सब हक्के-बक्के थे। इसके लिए कोई भी तैयार नहीं था, क्योंकि इससे पहले अशरफ गनी ने एक बार भी तालिबानियों के खिलाफ जंग न लड़ने का संकेत नहीं दिया था। गनी देश छोड़कर भागेंगे, इसकी भनक वहां के वाइस प्रेसिडेंट अमरुल्लाह सालेह, सेकेंड वाइस प्रेसिडेंट अब्दुल्ला अब्दुल्ला को भी नहीं थी। जबकि अमरुल्लाह तो राइट हैंड माने जाते थे।’
वे कहते हैं, ‘अशरफ गनी ने अपने लोगों को धोखा दिया। अमरुल्लाह के बेहद करीबी सूत्रों के मुताबिक सेना के कमांडर ने सेना के जवानों को हथियार रखने और जंग न लड़ने के आदेश देने शुरू कर दिए थे। फौज के जवानों का गुस्सा बढ़ रहा था, क्योंकि वे इस तरह से हथियार नहीं रखना चाहते थे, लेकिन उन्हें मजबूर किया गया। उनकी राशन और हथियार की सप्लाई रोक दी गई थी।’
एक साल से सेना के कमांडर्स का करा रहे थे तबादला
राष्ट्रपति भवन के सूत्र के मुताबिक, ‘अमेरिका द्वारा सेना हटाए जाने और तालिबान के आक्रामक होने के बीच ही अशरफ गनी लगातार मिलिट्री लीडर्स को बदल रहे थे।’ वे कुछ उदाहरण दैनिक भास्कर से साझा करते हैं। वे कहते हैं- जैसे जून में ही नियुक्त हुए अफगान आर्मी चीफ लेफ्टिनेंट जनरल वली मोहम्मद अहमदजई को अफगान नेशनल आर्मी के स्पेशल ऑपरेशन्स कमांड मेजर जनरल हबीबुल्लाह अलिजाई से एक महीने के भीतर ही रिप्लेस कर दिया गया। इसी दरम्यान दो बार इंटीरियर मिनिस्टर्स को भी बदला गया। दोनों एक्टिंग मिनिस्टर ही थे, लेकिन परमानेंट मिनिस्टर क्यों नहीं दिया गया? दो एक्टिंग मिनिस्टर क्यों बदले गए?
इस मिनिस्ट्री की जिम्मेदारी देश में ‘लॉ इन्फोर्समेंट’ और ‘सिविल ऑर्डर’ बरकरार रखने और अफगान नेशनल पुलिस, अफगान पब्लिक प्रोटेक्टर फोर्स को भी मेंटेन करने की होती है। जब देश की सुरक्षा व्यवस्था खतरे में हो, ऐसे में देश का कोई भी जिम्मेदार मुखिया इतनी महत्वपूर्ण मिनिस्ट्री को अस्थिर नहीं करना चाहेगा। यही हाल डिफेंस मिनिस्ट्री के अधिकारियों का था।’
दरअसल, राष्ट्रपति भवन को भी समझ नहीं आ रहा था कि आखिर इतनी जल्दी-जल्दी मिनिस्टर को क्यों बदले जा रहे हैं। करीब 7 महीनों में तीन इंटीरियर मिनिस्टर रहे। 23 दिसंबर 2018 से 19 जनवरी 2019 तक अमरुल्लाह सालेह गनी सरकार में इंटीरियर मिनिस्टर रहे।
6 कोर कमांडर रिशफल किए गए
फिर सालेह ने इलेक्शन टीम और वाइस प्रेसिडेंट के तौर पर पद संभालने के लिए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उसके बाद से 15 अगस्त तक इस मिनिस्ट्री को स्थाई मिनिस्टर नहीं मिल पाया। 19 जनवरी, 2019 से 19 मार्च, 2021 तक मसूद अंद्राबी और 19 मार्च, 2021 से 19 जून, 2021 तक एक्टिंग मिनिस्टर रहे हयातुल्लाह हयात इंटीरियर मिनिस्टर रहे । 19 जून, 2021 से 15 अगस्त, 2021 तक अब्दुल सत्तार मीर कव्वाल इस विभाग में बतौर मिनिस्टर रहे। साथ ही इस दरम्यान 6 कोर कमांडर भी रिशफल किए गए।
वे कहते हैं- करीब एक डेढ़ साल से जो वहां चल रहा था, उसको लेकर लोगों के भीतर संशय तो था, लेकिन गनी के इस तरह से सुरक्षित भागने की घटना ने इस शंका को और भी पुष्ट कर दिया। अब बची हुई अफगानिस्तान की लीडरशिप बिल्कुल भी अंधेरे में नहीं है।
सूत्र के मुताबिक, अभी वहां की लीडरशिप इस मसले पर खुलकर बोलने की जगह तालिबानियों से मोर्चा लेने पर पूरा ध्यान केंद्रित रखना चाहती है। वे अपना ध्यान गनी पर नहीं, बल्कि तालिबान को शिकस्त देने पर लगाना चाहते हैं।
खबरें आईं कि गनी चार गाड़ी भरकर रकम ले जा रहे थे। यह सब गनी के खिलाफ जनता में आक्रोश और अविश्वास भरेगा, लेकिन इसका दूसरा पक्ष उनका अतीत में तालिबानियों द्वारा पूर्व के राष्ट्रपति मो. नजीबुल्लाह की क्रूरता पूर्वक हत्या की वजह से पनपा डर भी हो सकता है। मो. नजीबुल्लाह अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति थे। अफगानिस्तान से 1989 में सोवियत संघ की सेना के हटने के बाद तालिबानियों ने आतंक मचाना शुरू कर दिया।
तालिबानियों का खौफ इतना था कि तत्कालीन राष्ट्रपति मो. नजीबुल्लाह के देश छोड़कर भागने के प्रयास को भी कामयाब नहीं होने दिया गया। 1992-1996 तक नजीबुल्लाह संयुक्त राष्ट्र के एक कैंप में रहे, लेकिन 1996 में उन्हें उस कैंप से घसीटकर तालिबानियों ने बाहर निकाला और पीट-पीटकर मार डाला। उनकी लाश को काबुल की सड़कों पर गाड़ी के पीछे बांधकर कई घंटे तक घसीटा गया। उसके बाद उनके बचे-खुचे शरीर को काबुल की आरियाना चौक के एक लैंप पोस्ट पर लटका दिया गया। उनकी लाश कई दिनों तक वहां लटकी रही और सड़-सड़कर उसके हिस्से गिरते रहे।
हालांकि अब अशरफ गनी का बयान आया है कि वे भगोड़े नहीं। अगर वे देश नहीं छोड़ते तो बहुत खून खराबा होता। उन्होंने यह भी कहा कि वे पैसा लेकर नहीं भागे हैं। उन्हें सुरक्षा बलों ने फौरन बाहर निकलने को कहा, उन्हें जूते पहनने का भी वक्त नहीं मिला। एक्सपर्ट फिलहाल उनके भगोड़ा होने पर एकमत हैं।