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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक्ट लोकल पर थिंक ग्लोबल

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नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गांधी के सपनों का भारत बनाने में जुट गये हैं. गांधी का सपना था कि देश की सबसे छोटी इकाई गांव आत्मनिर्भर और सबल बने. उस समय औद्योगिक क्रांति के बहाव का दौर कहिये या नेहरू जी की अभिजात्य सोच कि आजादी के बाद गांव ने देश के विकास या सकल घरेलू उत्पाद में अपना भरपूर योगदान तो दिया पर हाकिम से उसे मिला कुछ नहीं.

  • नेहरू जी ने कहीं की ईंट का कहीं का रोड़ा लेकर भारतीय अर्थव्यवस्था के पुर्नजागरण का नेक काम शुरू किया था. उनकी निष्ठा और नेक इरादों पर शंका का कोई सवाल नहीं है. पर उन्होंने समाजवाद और पूंजीवाद को मिलाकर जो मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल पेश किया वो हो सकता है कि वो उस समय काल परिस्थिति की मांग रही हो. पर महात्मा गांधी ने गांव को केन्द्र में रख कर विकास का जो मार्ग सुझाया था, आज भारत के नीति नियंताओं को सात दशकों के बाद उसी पर वापस आना पड़ रहा है.
  • चोटी के ट्रेड यूनियन नेता और भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने 1994 के आसपास अपनी पुस्तक ‘थर्ड वे’ के माध्यम से हुक्मरानों को चेताया था कि दुनिया में समाजवाद सा साम्यवाद अपने उतार पर है.
  • पूंजीवाद भी जन सामान्य की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रहा है. इसलिये सामाजिक आर्थिक उत्थान के लिये नया राजनीतिक दर्शन चाहिये जिसे तीसरा रास्ता कहा गया. एक ऐसा दर्शन जो राष्ट्र राज्य या औद्योगिक समुदाय के वैचारिक धरातल पर आधारित होने के बजाय वसुधैव कुटुम्बकम और समुदायों के बीच सूचनाओं के आदान प्रदान की व्यावहारिकता लिये हो.

दक्षिण पंथ की तरह बाजार अर्थव्यवस्था हो तो वामपंथ की तरह सबको रोजगार का प्रस्ताव दे सके. जहां सामाजिक अधिकारों और कर्तव्यों का संतुलन कायम हो. आजादी के बाद औद्योगिकीकरण के भी दो मॉडल उस समय प्रचलित थे. एक मैनचेस्टर मॉडल जहां विशाल कारखाने के एक दरवाजे से कच्चा माल जाये और दूसरे दरवाजे से तैयार उत्पाद बाहर आये. दूसरा जापान मॉडल था जहां किसी उत्पाद के तैयार होने तक की प्रक्रिया का विकेन्द्रीकरण कर दिया जाये.

उदाहरण के लिये अगर टेलिविजन है तो एक गांव या कई गांव केवल स्क्रीन तैयार करें, तो कई गांव के लोग मिल कर टेलिविजन का कोई और हिस्सा बनायें और कुछ गावं केवल सभी पुर्जों को जोड़ कर अंतिम उत्पाद बाजार के लिये तैयार करें. इस मॉडल में बाजारवादी या उपभोक्तावादी व्यवस्था भी थी तो ज्यादा से ज्यादा हाथों को उन्हीं के घरों पर काम देने का इन्तेजाम भी था. दूसरे विश्व युद्ध में पूरी तरह तबाह जापान और सर्वशक्तिमान ग्रेट ब्रिटेन दोनों का विकास आज आपके सामने है.

भारत में पुरखों से सुनते आये थे कि ‘तेते पांव पसारिये जेती लम्बी सौर’. थोड़े में गुजारा करके संतोष को परम सुख मान लिया. कर्ज के लिये हाथ पसारना नहीं सीखा. जिन्होंने कर्ज लिया भी उनकी दर्द भरी कहानियों से साहित्य भरा पड़ा है. नब्बे के दशक में बाजारीकरण और भूमंडलीकरण की जो आंधी चली उसने हमें चार्वाक के उस दर्शन की ओर धकेल दिया जिसमें ज्ञान दिया गयां-’यावत जीवेत सुखम जीवेत, ऋणं कृत्वां घृतम पिवेत’. जीरो डाउन पेमेंट और इन्टरेस्ट फ्री लोन जैसे लुभावने शब्दों ने निम्न मध्यम आयवर्गीय और निम्न आय वर्गीय शहरी और ग्रामीण आबादी को कर्ज के मकड़जाल में इस बुरी तरह फांस दिया कि वो कसमसा भी न सके. बाजार ने उन्हें भौतिक सुख सुविधाओं से लाद तो दिया पर जब ईएमआई का सवाल आया तो ढंग से खाने के लाले पड़ गये.

  • साढ़े चर सौ साल पहले कविवर रहीम न कहा था कि-,रहिमन विपदा हू भली जो थोरे दिन होय, जान परत सब आपने हित अनहित सब कोय’. तो अब कोरोना की इस विपदा ने समझा दिया है कि फंडा तो अपना ’सादा जीवन, उच्च विचार वाला’ ही बढ़िया था. भौतिक सुख सुविधाओं के पराधीन होकर सपने में भी सुख नहीं मिलने वाला. इसलिये बाजार और शहर के स्वर्गिक आनंद में कुछ नहीं रखा. पीवी नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्रित्व काल में विश्व के लिये खुली खिड़की ने कैसा मायाजाल रचा सबने देख लिया है। जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकताओं में से भी पहली प्राथमिकता है रोटी. शहरों के लिए प्राणपण से काम करने वाले मजूरों को जब रोटी चाहिए थी तो शहरों ने तो अंगूठा दिखा दिया, काम आया अपना गाँव जिसकी तरफ पैदल, साइकिल जैसे बन पड़ा निकल पड़े. इस लिए गांवों की जीवनदायी जमीन की ओर सरकार और अवाम दोनों को देखना होगा.
  • शहर और शहरी तो खाये, पिये, अघाये वैसे ही रहते हैं और जरा सी मुसीबत आने पर हल्ला भी सबसे ज्यादा यहीं से उठता है. औद्योगिक क्रांति बुझने लगी है और अब टेक्नोलाजी ड्रिवेन जमाना है. गांव से बैठकर हथेली में समाये मोबाइल पर शहर की खबर ली जा सकती है. शहर क्या पूरी दुनिया की. आज भारत से गया ब्रेन ही दुनिया के संपन्न देशों की रीढ़ बना हुआ है. गांव अगर अपनी पूंजी को ताकत बना कर बाहर से पूँजी ले आये तो रोजगार के लिए शहरों में पलायन का क्या मतलब ? ईश्वर की कृपा से भारत के पास मानव संसाधन की कोई कमी नहीं है. गांव का नौजवान शहर में रिक्शा चलाये इससे बेहतर है कि वो गांव में ही रह कर अपने गांव को सरकार के सहयोग से सैफई बना सकता है. जैसे मुलायम सिंह यादव ने किया.
  • मोदी 2.0 सरकार ने अपने 2020 के बजट से ही गांव के विकास का इरादा तो जाहिर कर दिया था। गांव को आत्मनिर्भर बनाने के लिये किसान और कामगार का विकास करना होगा. उसकी जेब में पैसा होता तो वो शहर में खटने क्यों जाता. खेती किसानी और कौशल से जुड़ी माइक्रो, स्माल और मीडियम औद्योगिक इकाइयों से गांव को आत्मनिर्भरता और देशवासियों को स्वदेशी की राह पर चलने का सहारा मिल सकता है. इन आपदा भरे दिनों में भी जहां तमाम कारोबार चौपट हो गये हैं. वहां महाराजगंज के तीन उच्च शिक्षित युवा ढाई एकड़ जमीन पर बेहतर प्रबंधन से सोना उगा रहे हैं. महाराजगंज से सटे गौनरिया बाबू गांव के विज्ञान स्नातक आदित्य प्रताप सिंह ने दोस्त दुर्गेश सिंह और वरुण शाही के साथ आर्गेनिक खेती की योजना बनायी। दुर्गेश ने पुणे से एमबीए और वरुण ने लखनउ से एमसीए की पढ़ाई की है।
    तीनों ने मिल कर ढाई एकड़ जमीन पर खरबूजा, लौकी, खीरा, भिंडी और टमाटर की खेती की. ताइवान से आनलाइन खेती के बीज मंगवाये. फिर खेत में उपज तैयार थी पर ग्राहक नहीं थे. अपना एक ग्रुप बना कर व्हाट्स एप और फेसबुक से सब्जियों के बड़े वेंडरों को जोड़ा. सोशल मीडिया पर ही कीमतें तय होने लगीं. सौदा तय होने के बाद आनलाइन भुगतान होने लगा और डिमांड के हिसाब से डिलीवरी भी होने लगी. मुनाफा भी जम कर होने लगा. इन दोस्तों की कहानी लाखों नौजवानों को ग्रामीण विकास की प्रेरणा दे रही है. वरना तो शहर का चस्का ऐसा है कि आज की तारीख में आठवां पास भी गांव में काम करके राजी नहीं है.
    मोदी सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये के जिस आर्थिक पैकेज का ऐलान किया था उसमें से छह लाख करोड़ के पैकेज की रूपरेखा सामने आ गयी है। वित मंत्री निर्मला सीतारमण ने अलग अलग सेक्टरों के लिये कुल 15 घोषणाएं की हैं. जिसमें कोविड 19 की वजह से बंदी की कगार पर पहुंच चुके करीब 45 लाख छोटे और मझोले उद्योगों को गारंटीमुक्त 3 लाख करोड़ रुपये का कर्ज, बिजली वितरण कंपनियों को 90 हजार करोड़ की मदद, रियल एस्टेट और एनबीएफसी को छह महीने का समय और आंशिक क्रेडिट गारंटी योजना, टीडीएस की दर घटाते हुए आम करदाताओं के लिये रिटर्न भरने की तारीख बढ़ाने के साथ ही कारोबारियों के लिये विवाद से विश्वास की तारीख भी बढ़ा कर 31 दिसम्बर कर दी गयी है.
    अभी पैकेज की घोषणाएं बाकी हैं और धीरे धीरे सामने आएंगी. पर कुल मिलाकर फोकस गांव के साथ साथ स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिये ज्यादा से ज्यादा हाथों को काम देने पर है. बेशक ये वो योजनाएं हैं जहां सरकारी सरकार कोई खैरात नहीं बांट रही है. ये कर्ज है और कमा कर उसी तरह लौटाना होगा जैसे कोई बाजार से पैसा उठा कर काम करे. यह डूबते को तिनके के सहारे जैसा है. केन्द्र सरकार किसानो को छह हजार रुपये सालाना और गरीब और निराश्रित महिलाओं को राशन पानी के लिये 500 रुपये की रकम भी सीधे खातों में जमा कर रही है. उसे खैरात कहा जा सकता है जिसे वापस नहीं किया जाना है.
    यह और बात है कि काम के बदले रोजगार योजना ’मनरेगा’ थी पर उसे गांव के प्रधानों ने अधिकारियों से सांठ गांठ करके खैरात जैसी बना डाला. न तो मजदूर को पूरा पैसा मिला और न ही उसके श्रम का लाभ गांव के विकास में लिया जा सका क्योंकि अधि अधूरी रकम ने उसे अकर्मण्य जो बना डाला है. गांव के छली बली लोग खाते से मजदूर या किसान से पैसा निकलवा कर उसमें से भी डंडी मार ही ले रहे हैं. इसकी क्या गारंटी है कि अब कर्जा देने में भी बैंक लघु, छोटे और मझोले उद्यमियों से अपने कट की मांग करें. लाभार्थी तब मरता क्या न करता वाली स्थिति में ही रहेगा. मोदी लाख कोशिश कर लें बिचैलिये, भ्रष्टाचारी कहां सुनते हैं किसी की.
    फिर भी मौजूदा परिस्थितियों में कोई सरकार होती तो क्या कर सकती थी. कांग्रेस के प्रवक्ताओं मनीष तिवारी और रणदीप सिंह सुरजेवाला ने मोदी सरकार के आर्थिक पैकेज की खिल्ली जरूर उड़ायी है पर कांग्रेस नेतृत्व का जोर इस बात पर था कि आर्थिक पैकेज राज्य सरकारों को सीधे दे दिये जायें. ताकि उनके संगठन से जुड़े लोगों की जेबें भर सकें. एक ओर जहां कांग्रेस हमलावर है वहीं राजस्थान में कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक गहलौत और मुंबई के कांग्रेसी नेता देवड़ा इस पैकेज को अच्छा प्रयास मान रहे हैं. बहरहाल कुछ तो लोग कहेंगे ही और जो काम करता है उसी के बारे में अच्छा या बुरा कहा जाता है. फिलहाल मोदी मंत्र है-एक्ट लोकल, थिंक ग्लोबल. आत्मनिर्भर बनो, स्वदेशी अपनाओ और अपने लोकल माल की ब्रांडिंग करके दुनिया में छा जाओ.
    बाकी रोमन साम्राज्य की स्थापना करने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दार्शनिक, राष्ट्राध्यक्ष, वकील मारकस टूलियस सिसरो ने आज से दो हजार साल पहले ही जो कह दिया था वो आज भी सटीक है। गरीब काम करता है, अमीर शोषण, सैनिक दोनों की रक्षा, करदाता तीनों के लिये भुगतान, पीने वाले चारों के नाम पर पीते हैं, बैंकर पांचों को लूटता है, वकील सभी छह को गुमराह करता है, डाक्टर सभी सात से बिल वसूलता है, दफनाने वाला सभी आठों को दफनाता है, राजनेता सभी नौ के बल पर सुखी जीवन जीता है। तब से राज काज की यही रीति चली आ रही है. मोदी क्या इस सामाजिक व्यवहार में भी कोई क्वांटम जम्प दिखा पाएंगे ?

-रजनीकांत वशिष्ठ, मीडिया फार स्टीजन से सभार-

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