तालिबान ने इतनी तेजी से अफगानिस्तान में कैसे वर्चस्व जमा लिया? क्या अमेरिकी ट्रेनिंग वाली स्पेशल फोर्सेस पर भरोसा भारी पड़ा?
तालिबान ने बीते एक सप्ताह में अफगानिस्तान के 34 में से 19 प्रांतों पर कब्जा किया है और अब वह काबुल के बिलकुल नजदीक पहुंच गया है। तालिबान लड़ाकों की रफ्तार ने दुनियाभर के सुरक्षा विश्लेषकों को हैरान कर दिया है। तालिबान ने कई जिलों और शहरों पर बिना एक भी गोली चलाए कब्जा किया है। अमेरिकी लड़ाकू विमान अफगानिस्तानी सेना के समर्थन में हवाई हमले कर रहे हैं, लेकिन इसका बहुत असर नहीं हो रहा है।
इस समय कई प्रांतों और शहरों में भीषण लड़ाई चल रही है। तालिबान ने बल्ख की राजधानी और देश के तीसरे सबसे बड़े शहर मजार-ए-शरीफ को भी घेर लिया है और यहां भारी लड़ाई चल रही है। नॉर्थन अलाएंस का गढ़ मजार-ए-शरीफ तालिबान को टक्कर देता रहा है। काबुल घिर रहा है और दुनियाभर के देश अपने नागरिकों और राजनयिकों को बाहर निकाल रहे हैं। अमेरिका और ब्रिटेन ने अपने नागरिकों की सुरक्षा करने के लिए सैन्यबल भेजे हैं। जिन तालिबान लड़ाकों से संपर्क किया है वे बहुत जोश में हैं। तालिबान लगातार आगे बढ़ने की तस्वीरें साझा कर रहा है। उसके लड़ाके अफगान सेना के भारी हथियारों पर कब्जा कर रहे हैं। तालिबान के एक लड़ाके ने भास्कर से कहा, ‘हमें खुद पर और अपनी ताकत पर विश्वास है। हमारे साथ अल्लाह की मदद है।’
शनिवार सुबह ही तालिबान ने बल्ख में भारत से अफगान सेना को मिले एक अटैक हेलीकॉप्टर को मार गिराने का दावा किया।
वहीं तालिबान की रफ्तार पर तालिबान प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने भास्कर से कहा, ‘हम जानते थे कि यदि शांति प्रक्रिया और वार्ता कामयाब नहीं होती है तो हम सैन्य रूप से ऐसी प्रगति कर सकते हैं। हमें अपनी ताकत पर पूरा भरोसा था।’
आखिर इतनी तेजी से कैसे आगे बढ़ रहा है तालिबान?
अब सवाल उठ रहा है कि तालिबान बिजली जैसी रफ्तार से कैसे आगे बढ़ रहा है? अफगान सेना इतनी जल्दी पस्त कैसे हो रही है? यही समझने के लिए हमनें अफगानिस्तान युद्ध पर लंबे समय से नजर रख रहे रक्षा विश्लेषकों से बात की।
फरान जैफरी कई सालों से अफगानिस्तान के युद्ध पर नजर रखे हुए हैं। वे ब्रिटेन स्थित आतंकवाद विरोधी संस्थान ITCT के डिप्टी डायरेक्टर हैं। पॉल डी मिलर अफगानिस्तान में रह चुके हैं। वे CIA और अमेरीका की सुरक्षा परिषद से भी जुड़े रहे हैं। अभी जॉर्जटाउन यूनीवर्सिटी के स्कूल ऑफ फॉरेन सर्विस में इंटरनेशनल अफेयर के प्रोफेसर हैं।
प्रोफेसर मिलर कहते हैं कि वे तालिबान की कामयाबी से हैरान नहीं है, लेकिन तालिबान की रफ्तार ने उन्हें चौंका दिया है। प्रोफेसर मिलर कहते हैं, ‘मैं इस बात से बिलकुल भी हैरान नहीं हूं कि अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने पर तालिबान युद्ध जीत रहा है, लेकिन तालिबान की गति ने मुझे हैरान कर दिया है। मुझे लगता है कि इसकी एक वजह ये है कि इस समय अफगान सेना के हौसले पस्त हैं।’
तालिबान की रफ्तार पर टिप्पणी करते हुए फरान जैफरी कहते हैं, ‘तालिबान का इस रफ्तार से आगे बढ़ना कोई संयोग नहीं है, बल्कि एक सुनियोजित रणनीति का नतीजा है। तालिबानी चुपचाप जमीन पर अपना होमवर्क कर रहे थे। जो रिपोर्टें अब मिल रही हैं उनसे पता चलता है कि तालिबान के नेता अफगानिस्तान में कई राजनीतिक और सैन्य कमांडरों के संपर्क में थे।
जैफरी तालिाबन की रफ्तार के लिए काबुल प्रशासन की अक्षमता को जिम्मेदार बताते हुए कहते हैं, ‘तालिबान जिस रफ्तार से आगे बढ़ा है उसने सुरक्षा विश्लेषकों को हैरान कर दिया है। मैं भी इससे हैरान हूं, लेकिन इतना नहीं जितने की दूसरे लोग हैरान हैं। मैं कई सालों से अफगानिस्तान में युद्ध पर नजर रख रहा हूं और एक बात जो मैंने सीखी है वह ये है कि काबुल की सरकार बहुत भ्रष्ट थी। सरकार को ये भी नहीं पता था कि काबुल के बाहर लोग क्या सोचते हैं? सरकार ने पिछले सालों के दौरान देशभर में स्थानीय नेताओं और मिलीशिया कमांडरों को निशाना बनाया और अब वे चाहते हैं कि यही तालिबान के खिलाफ लड़ाई में उनका साथ दें।’
जिस सेना को अमेरिका ने तैयार किया वह बिखर रही है
जैफरी कहते हैं, ‘यदि ये रिपोर्ट्स सही हैं तो इसका मतलब यही है कि तालिबान लोकल मिलिट्री और राजनीतिक नेताओं को चुपचाप आत्मसमर्पण करने या मैदान छोड़ने के लिए मना रहा था। ये अभी स्पष्ट नहीं है कि अफगान सेना के बारे में इतनी गुप्त जानकारियां तालिबान को पहले से ही मिल गईं थीं, लेकिन ये तो पक्का है कि इस होमवर्क के बिना तालिबान इतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ सकता था।’
वहीं प्रोफेसर मिलर का मानना है कि अफगान सेना के हौसले पस्त होने की वजह अमेरिका का रवैया है। प्रोफेसर मिलर कहते हैं, ‘इसकी एक वजह ये भी है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने का एकतरफा फैसला लिया है। तालिबान ने कतर में 2020 में हुए समझौते की अपनी शर्ते पूरी नहीं की हैं, बावजूद इसके अमेरिका अफगानिस्तान से बाहर निकल रहा है। जब राष्ट्रपति बाइडेन ने अफग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी का फैसला लिया तो उन्होंने अफगान लोगों को ये संदेश दिया कि आगे जो भी हो, अमेरिका तो छोड़कर जा रहा है। इससे अफगान सैनिकों को ये लगा कि उनके पास युद्ध लड़ने लायक संसाधन ही नहीं होंगे, ऐसे में वे इस नतीजे पर पहुंचे कि उनके पास लड़ने की कोई वजह ही नहीं है।’
अमेरिका 9/11 हमलों के बाद अल-कायदा को खत्म करने के लिए अफगानिस्तान आया था। तब अफगानिस्तान पर तालिबान का शासन था। अब 20 साल बाद अमेरिका अफगानिस्तान में स्थिरता और शांति लाने के अपने राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा किए बिना ही लौट रहा है। अभी अमेरिकी सेना पूरी तरह से अफगानिस्तान से गई भी नहीं है और जिस अफगान सेना को अमेरिका ने 20 सालों से तैयार किया था वह ताश के पत्तों की तरह बिखर रही है।
सिर्फ स्पेशल फोर्सेज के भरोसे रहना अफगान की बड़ी भूल
अमेरिका ने कुछ महीनों में ही तालिबान को सत्ता से हटा दिया था। बहुत से लोगों ने मान लिया था कि तालिबान अब खत्म हो जाएगा, लेकिन जैफरी कहते हैं कि ये आंकलन गलत था। वे कहते हैं, ‘लोगों ने सालों पहले ही तालिबान को खत्म मान लिया था। यही सबसे बड़ी गलती थी। तालिबानी पूरी तरह अफगानिस्तान से कभी नहीं गए थे। जब अफगानिस्तान में नाटो और अमेरिकी सुरक्षा बल अपनी कामयाबी के शिखर पर थे, तब भी तालिबानी पूरी तरह खत्म नहीं हुए थे। हाल के सालों में तालिबान के फिर से उठ खड़े होने के कई कारण हैं। हलांकि, इसकी सबसे बड़ी वजह है कि अफगानिस्तान सरकार स्थानीय स्तर पर एक सक्षम सेना और पुलिस बल खड़ा करने में नाकाम रही।’
अमेरिका ने अफगानिस्तान सेना को खड़ा करने में अरबों डॉलर निवेश किए। उसे हथियार और प्रशिक्षण दिए, लेकिन अफगान सेना तालिबान के खिलाफ अब टिक नहीं पा रही है।
फरान जैफरी कहते हैं, ‘अफगानिस्तान में कई जगह ऐसा होता रहा कि रेग्युलर आर्मी अपने ठिकाने बिना लड़े तालिबान को समर्पित करती रही। फिर सेना के स्पेशल फोर्सेज इन्हें तालिबान से मुक्त कराके रेग्युलर आर्मी को सौंपते और वे फिर से इन्हें गंवा देते। अफगानिस्तान के स्पेशल फोर्सेज देश में हर मोर्चे पर नहीं लड़ सकते थे। अफगान सरकार शहरों की सुरक्षा के लिए सिर्फ स्पेशल फोर्सेज पर ही निर्भर रही और ये भारी भूल साबित हो रही है।’
विश्लेषक मानते हैं कि अफगानिस्तान की सेना के पास हथियार और प्रशिक्षण तो था, लेकिन वह स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने में नाकाम रही। फरान जैफरी कहते हैं, ‘अफगान सेना की हार की एक और वजह ये है कि स्थानीय स्तर पर सेना का रिकॉर्ड बेहद खराब रहा है। कई सालों से अफगान सेना पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगते रहे हैं। स्थानीय लोगों के लिए सवाल ये था कि वे किसे ज्यादा नापसंद करते हैं। अफगान सरकार और उसके सुरक्षा बलों को, या तालिबान को। तालिबान ने हाल के सालों में स्थानीय स्तर पर कूटनीति का इस्तेमाल किया और लोगों को अपने साथ मिलाने की कोशिश की। यही वजह है कि बहुत से इलाके तालिबान ने एक भी गोली चलाए बिना ही कब्जा लिए।’
तालिबान ने बीते दो दिनों में कंधार और हेरात जैसे बड़े और अहम शहरों पर कब्जा किया है। उसके लड़ाके अब काबुल के बिलकुल नजदीक पहुंच गए हैं। अफगानिस्तान सरकार ने शुक्रवार को हुई सुरक्षा परिषद की बैठक में तालिबान का मुकाबला करने का फैसला किया है, लेकिन सवाल यही है कि काबुल कब तक तालिबान के सामने टिक पाएगा।
प्रोफेसर मिलर कहते हैं, ”मैं नहीं जानता कि काबुल कितने दिन तक मुकाबला कर पाएगा। अफगानिस्तान का भविष्य अंधेरे में है। या तो अफगानिस्तान एक लंबे गृहयुद्ध में घिर जाएगा या फिर वही 1990 के दौर का तालिबान का शासन लौट आएगा। तालिबान बिना लड़े ही कई शहरों को जीत रहे हैं इसकी वजह यही है कि अफगान सैनिकों के हौसले पस्त हैं। उन्हें लग रहा है कि वे बिना अमेरिकी समर्थन के युद्ध नहीं जीत पाएंगे।’
तालिबान इस समय काबुल पर हमला करने की स्थिति में हैं और अपनी स्थिति को और मजबूत कर रहे हैं। फरान जैफरी कहते हैं, ‘यदि तालिबान और सरकार के बीच जल्द ही कोई समझौता नहीं हुआ तो तालिबानी काबुल पर कब्जा करने का प्रयास कर सकते हैं। तालिबान फिलहाल अशरफ गनी का इस्तीफा चाहता है, क्योंकि उन्होंने कभी भी केंद्रीय सरकार को मान्यता नहीं दी थी। वे चाहते हैं कि अंतरिम सरकार बने और वे उससे समझौता करके भविष्य की सरकार में बड़ा हिस्सा हासिल करें।
बिना अमेरिका की मदद से तालिबान से टक्कर लेना संभव नहीं
तालिबान की सबसे प्रमुख मांग है देश में शरिया कानून (इस्लामी कानून) लागू करना। काबुल के पास अब बहुत ज्यादा वक्त नहीं है, क्योंकि तालिबान ने पड़ोसी प्रांत लोगार पर कब्जा कर ही लिया है। वे चारों तरफ से काबुल को घेर रहे हैं। ऐसे में तालिबान अब कभी भी काबुल पर हमला कर सकते हैं।’
अनुमान के मुताबिक तालिबान के साथ करीब 70 हजार लड़ाके हैं और अफगान के सरकारी सेना की संख्या साढ़े तीन लाख से अधिक है। अफगान सेना के पास वायुसेना भी है और विदेशी सैन्यबलों की मदद भी। तालिबान के पास कोई वायुसेना नहीं है। अफगान सेना के मुकाबले उनके पास भारी हथियार भी कम थे। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि अफगान सेना इतनी पस्त क्यों साबित हो रही है?
इसके कारण समझाते हुए फरान जैफरी कहते हैं, ‘अफगान सुरक्षा बलों की एक और सबसे बड़ी समस्या ये है कि उनके पास इतने सैनिक नहीं है जितने कि कागजों में हैं। इन्हें घोस्ट सोल्जर कहा जाता है। अफगानिस्तान पर नजर रखने वाले सभी लोग इस बारे में जानते हैं। अफगानिस्तान अंतरराष्ट्रीय समुदाय से उस सेना के लिए फंड हासिल कर रहा था, जो जमीन पर उस संख्या में मौजूद ही नहीं थी। इसमें कोई शक नहीं है कि अमेरिका और नाटो की मदद के बिना काबुल बहुत दिन तक तालिबान से टक्कर से नहीं ले पाएगा।’
‘मैंने कभी भी ये अनुमान नहीं लगाया था कि तालिबान इतनी तेजी से कब्जा करेंगे। मैंने सोचा था कि तालिबान को इस तरह की बढ़त हासिल करने में कुछ महीनों का वक्त तो लगेगा ही। मैं हमेशा से ही अफगान सरकार की कार्यक्षमता का आलोचक रहा हूं, लेकिन शायद मैंने भी उनकी क्षमता को वास्तविकता से अधिक आंका था। अब लग रहा है कि मेरा आंकलन गलत था। अब काबुल कभी भी गिर सकता है।’
अफगानिस्तान के 65% इलाके अब तालिबान के कब्जे में, पिछले 8 दिन में ही 13 जिलों पर किया कब्जा
अफगानिस्तान पर तालिबान का शिकंजा हर दिन के साथ कसता जा रहा है। देश के आधे से ज्यादा जिलों पर इस वक्त तालिबान काबिज हो चुका है। पश्तो लड़ाकों के इस संगठन को अफगानिस्तान की पश्तो बहुल आबादी का भी समर्थन मिलता है। यही वजह है कि पिछले तीन महीने में इस संगठन के कब्जे वाले शहरों की संख्या 77 से बढ़कर 242 तक पहुंच चुकी है। देश के 65% इलाके पर अब तालिबान का कब्जा है।
दरअसल, अमेरिका और नाटो देशों के सैनिकों ने इस साल मई में अफगानिस्तान छोड़ना शुरू किया। इसके बाद से अफगानिस्तान के अलग-अलग शहरों में तालिबना का प्रभाव बढ़ने लगा। हालांकि, महीनों बीतने के बाद भी अफगानिस्तान के बड़े और अहम शहर तालिबान के कब्जे में नहीं आए थे। कंधार पर कब्जे के बाद तालिबान की पकड़ मजबूत हुई है। पिछले आठ दिन में तालिबान ने 13 शहरों पर कब्जा कर लिया है।
कंधार और उत्तरी अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद अफगान सरकार संकट में है। आशंका जताई जा रही है कि अब तालिबान देश की राजधानी काबुल को पूरी तरह घेर लेगा। अब अफगान सरकार को तय करना है कि काबुल सहित वो अपने कब्जे वाले इलाकों पर सेना बढ़ाए या जिन इलाकों पर तालिबान कब्जा कर चुका है, उन्हें छुड़ाने की कोशिश करे।
अब तक इस संघर्ष में क्या-क्या हुआ? इस संघर्ष का भारत और दुनिया पर क्या असर पड़ेगा? आइए जानते हैं…
अब तक किन इलाकों में हो चुका है तालिबान का कब्जा?
अफगानिस्तान में कुल 407 जिले हैं। इस साल 4 मई से तालिबान ने आक्रामक मिलिट्री ऑपरेशन शुरू किया। उस वक्त देश के 77 जिलों पर तालिबान का कब्जा था। वहीं, 129 जिलों में अफगान सरकार का कंट्रोल था। बाकी 194 जिलों में दोनों पक्षों के बीच संघर्ष चल रहा था।
करीब डेढ़ महीने बाद यानी 16 जून तक तालिबान के कब्जे वाले जिलों की संख्या 104 हो गई। वहीं, अफगान सरकार का कंट्रोल केवल 94 जिलों तक रह गया। 201 जिलों में दोनों पक्षों में संघर्ष चल रहा था। 17 जुलाई तक तालिबान आधे से ज्यादा अफगानिस्तान पर कब्जा कर चुका था। उसके कब्जे में 221 जिले आ चुके थे। वहीं, अफगान सरकार सिमट कर 73 जिलों तक रह गई थी।
12 अगस्त तक तालिबान के कब्जे में कंधार समेत 242 जिले आ चुके हैं। अफगान सरकार का कब्जा सिमट कर 65 जिलों तक ही रह गया है। 100 जिलों में दोनों पक्षों में संघर्ष जारी है। पिछले 20 साल में पहली बार है जब तालिबान ने कई राज्यों की राजधानी पर भी एक साथ कब्जा किया है। इनमें जरांज, अब्दुल रशीद दोस्तम की पकड़ वाला शबरघान, तालिकान, शेर-ए-पुल, कॉमर्शियल हब कुंदुज, ऐबक, फराह सिटी, पुल-ए-खुमरी और फैजाबाद शामिल हैं।
अब जो शहर अफगान सरकार के कब्जे में हैं वो पूरी तरह से कट चुके हैं। उनकी सप्लाई लाइन को तालिबान ने लगभग बंद कर दिया है।
अफगान सरकार कैसे कर रही है मुकाबला?
लगातार हो रही हार के बाद भी राष्ट्रपति अशरफ गनी प्रशासन ने एक भी प्रॉविंस की राजधानी पर से अपना कब्जा गंवाने की बात से इंकार किया है। अफगान सरकार की डिफेंस मिनिस्ट्री भी लगातार अपने प्रवक्ताओं के जरिए तालिबान लड़ाकों की मौत और अफगान फोर्स की ताकत के बारे में बता रही है।
वहीं, दूसरी ओर वित्त मंत्री खालिद पेएंडा इस्तीफा देकर देश छोड़ चुके हैं। हालांकि, उन्होंने फेसबुक पर इसकी वजह अफगानिस्तान के हालात की जगह पारिवारिक मामला बताया है।
अफगान सरकार की स्ट्रैटजी तेजी से बढ़ रहे तालिबान की स्पीड कम करने की है। इसके लिए वो अहम सड़कों, शहरों और बॉर्डर पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखना चाहती है। तालिबान जिस तरह प्रॉविन्स की राजधानियों पर कब्जा कर रहा है, उससे ये साफ नहीं है कि अफगान सरकार अपने प्लान में कितनी सफल हो पाई है।
अफगान सरकार के पास सभी 34 प्रॉविन्स की राजधानी और 407 जिलों को अपने कब्जे में लेने के लिए पर्याप्त सेना का भी आभाव है। वैसे भी ये सरकार कुछ महीने पहले तक अमेरिका और नाटो देशों के सैनिकों की मदद पर निर्भर थी। ये सपोर्ट हटने के बाद उसके लिए मुश्किलें हर दिन बढ़ रही हैं।
क्या तालिबान भारत और दुनिया के लिए कोई खतरा है?
कई एक्सपर्ट्स का कहना है कि तालिबान अफगानिस्तान के लोकतांत्रिक संस्थानों, नागरिकों के अधिकारों और क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। इस संगठन ने दुनिया के सबसे शक्तिशाली सिक्योरिटी अलाएंस नाटो का सामना किया है। ऐसे में उसका मोराल काफी हाई है।
तालिबान को मॉनिटर करने वाली UN की टीम ने 2021 की अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस संगठन के आतंकी संगठन अल-कायदा से मजबूत संबंध हैं। रिपोर्ट के मुताबिक अल-कायदा पर तालिबान की पकड़ लगातार मजबूत हो रही है। यहां तक कि अल-कायदा को संसाधन मुहैया कराने से लेकर ट्रेनिंग तक का इंतजाम तालिबान कर रहा है। करीब 200 से 500 अल-कायदा आतंकी अभी भी अफगानिस्तान में हैं। इसके कई नेता पाकिस्तान-अफगानिस्तान बॉर्डर के आसपास छुपे हुए हैं। यहां तक कि अमेरिकी अथॉरिटीज मानती हैं कि अल-कायदा चीफ अल-जवाहरी भी यहीं कहीं छिपा है। हालांकि 2020 में उसके मारे जाने की भी अफवाह थी।
अमेरिका, नाटो, अफगान सरकार और तालिबान ने पिछले दो दशक में क्या खोया?
2007 के बाद से चल रहे संघर्ष में 6 हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिक, एक हजार से ज्यादा NATO सैनिक मारे गए। इस युद्ध में करीब 47 हजार आम लोगों की जान गई। वहीं, करीब 73 हजार अफगान सैनिकों और पुलिस वालों की भी मौत हुई। माना जाता है कि इस दौरान 10 हजार से ज्यादा तालिबान लड़ाके भी मारे गए हैं। तालिबान इस वक्त पिछले बीस साल में सबसे मजबूत है। उसके पास एक लाख के करीब लड़ाके हैं।
कब और कैसे बना तालिबान?
- अफगान गुरिल्ला लड़ाकों ने 1980 के दशक के अंत और 1990 के शुरुआत में इस संगठन का गठन किया था। ये वो दौर था जब अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का कब्जा (1979-89) था। इन लड़कों को अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA और पाकिस्तान की ISI का समर्थन प्राप्त था।
- अफगान लड़ाकों के साथ पश्तो आदिवासी स्टूडेंट भी इसमें शामिल थे। ये लोग पाकिस्तान के मदरसों में पढ़ते थे। पश्तों में स्टूडेंट को तालिबान कहते हैं। यहीं से इन्हें तालिबान नाम मिला।
- अफगानिस्तान में पश्तून बहुसंख्यक हैं। देश के दक्षिणी और पूर्व इलाके में इनकी अच्छी पकड़ है। वहीं, पाकिस्तान के उत्तरी और पश्चिमी इलाके में भी पश्तूनों की बहुलता है।
- सोवियत संघ के अफगानिस्तान से जाने के बाद इस आंदोलन को अफगानिस्तान के आम लोगों का समर्थन मिला। आंदोलन की शुरुआत में इसे चलाने वाले लड़ाकों ने वादा किया कि सत्ता में आने बाद देश में शांति और सुरक्षा स्थापित होगी। इसके साथ ही शरिया के कानून को सख्ती से लागू किया जाएगा।
- अपने विरोधी मुजाहिदीन ग्रुप से चले चार साल के संघर्ष के बाद अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा हुआ। इसके साथ ही देश में सख्त शरिया कानून लागू हुआ। 1994 में तालिबान ने कंधार पर कब्जा किया। सितंबर 1996 में काबुल पर कब्जे के साथ ही अफगानिस्तान पर तालिबान का पूरी तरह से नियंत्रण हो गया। इसी साल तालिबान ने अफगानिस्तान को इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया। मुल्ला मोहम्मद उमर देश के आमिर-अल-मोमिनीन यानी कमांडर बनाए गए।
- 2001 से पहले अफगानिस्तान के 90% इलाके तालिबान के कब्जे में थे। इस दौरान शरिया कानून को सख्ती से लागू किया गया। महिलाओं को बुर्का पहनने को कहा गया। म्यूजिक और TV पर बैन लगा दिया गया। जिन पुरुषों की दाढ़ी छोटी होती थी, उन्हें जेल तक में डाल दिया जाता था। लोगों की सामाजिक जरूरतों और मानवाधिकारों तक की अनदेखी की गई।
जेलों में बंद अपने लड़ाकों को छुड़ा रहे तालिबानी, 7 दिन में अफगानिस्तान के 19 प्रांतों पर किया कब्जा
तालिबान तेजी से अफगानिस्तान पर अपनी पकड़ मजबूत करता जा रहा है। 7 दिन के भीतर तालिबान ने 19 अफगान प्रांतों पर कब्जा जमा लिया है। इसमें अफगानिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा प्रांत कंधार भी शामिल है। हेरात प्रांत के पूर्व गर्वनर और तालिबान का मुखर विरोध करने वाले इस्माइल खान भी इस वक्त तालिबान के कब्जे में हैं।
इतना ही नहीं तालिबानी लड़ाकों ने अब वहां की जेलों और एयरपोर्ट्स पर भी कब्जा जमाना शुरू कर दिया है। वे जेल में बंद अपने लड़ाकों को रिहा करा रहे हैं। 10 तस्वीरों से समझिए अफगान पर तालिबान के कब्जे की दास्तां…