Covid-19 वैक्सीन लगवाने से हिचक रहे हैं? तो यह जानकारी आपके काम की है; पढ़िए वैक्सीन से जुड़े 10 मिथक और उनका सच
अमेरिका ने अपनी 38% वयस्क आबादी को वैक्सीनेट करने के बाद मास्क की अनिवार्यता खत्म कर दी है। ब्रिटेन में 75% वयस्क आबादी को कम से कम एक डोज लग चुका है। वहीं, इजराइल ने तो अपनी 60% वयस्क आबादी को पूरी तरह से वैक्सीनेट कर लिया है। इन देशों में धीरे-धीरे परिस्थितियां पहले जैसी हो रही हैं या हो चुकी हैं। इसके मुकाबले भारत में 13% आबादी को कम से कम एक डोज लग चुका है।
यह बातें इसलिए कि भारत में वैक्सीनेशन की रफ्तार कम है। वैक्सीन डोज की उपलब्धता एक समस्या है, जिनका हल सरकारें निकाल रही हैं। पर कई भ्रांतियां और मिथक भी हैं जो लोगों को वैक्सीन उपलब्ध होने के बाद भी उससे दूर रखे हुए हैं। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कोरोनावायरस के खिलाफ कोई शर्तिया इलाज नहीं है। लक्षणों के आधार पर इलाज किया जा रहा है और भारत ने हाल ही में दूसरी लहर में 1.5 लाख से अधिक मौतें आधिकारिक तौर पर देखी हैं। इसे देखते हुए वैक्सीनेशन ही एकमात्र उम्मीद की किरण है। वैक्सीन शरीर को वायरस को पहचानने और उसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने में मदद करती है। बेहद जरूरी है कि जब भी उपलब्ध हों, वैक्सीन का डोज अवश्य लें।
वैक्सीनेशन से जुड़े कुछ मिथक और शंकाएं हैं जो लोगों को वैक्सीन लगाने से रोक रही हैं। हमने ऐसे ही 10 मिथकों पर डॉ. चारु गोयल सचदेवा, एचओडी और कंसल्टेंट, इंटरनल मेडिसिन, मणिपाल हॉस्पिटल्स, द्वारका, नई दिल्ली, से बात की और हकीकत को जानने की कोशिश की।
आप इन मिथकों से जुड़ी सच्चाई को जानिए और उन लोगों से शेयर करें जो किसी मिथक या शंका की वजह से वैक्सीन से दूरी बना रहे हैं।
मिथक 1: वैक्सीन बहुत कम समय में बनी हैं। इस वजह से यह सुरक्षित नहीं है।
हकीकतः यह बात सच है कि वैक्सीन एक साल से भी कम समय में विकसित हुई हैं। इससे पहले मम्स की वैक्सीन चार साल में तैयार हुई थी और वह सबसे कम समय में विकसित वैक्सीन थी। यह देखें तो कोविड-19 वैक्सीन तो रिकॉर्ड टाइम में विकसित हुई है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि वैक्सीन सुरक्षित नहीं है।
किसी भी वैक्सीन को अप्रूवल देने में नियमों का सख्ती से पालन हुआ है। हां, प्रोसेस जरूर फास्ट ट्रैक रही है। पर सभी आवश्यक प्रक्रियाओं का पालन किया गया है। वैज्ञानिकों ने 24 घंटे काम कर सुनिश्चित किया है कि यह वैक्सीन सबके लिए सुरक्षित रहे।
दरअसल, WHO से लेकर हर देश के रेगुलेटर ने सख्त रेगुलेशन का पालन किया है। लैबोरेटरी में इन वैक्सीन को जांचा गया। फिर इंसानों पर उसके ट्रायल्स हुए। उसमें मिले नतीजों के आधार पर उनकी इफेक्टिवनेस तय हुई है। यह कहना पूरी तरह गलत है कि वैक्सीन असुरक्षित है। रेगुलेटर्स ने सुरक्षा और एफिकेसी जैसे पहलुओं पर डेटा स्टडी करने के बाद ही उन्हें अप्रूवल दिया है।
मिथक 2: वैक्सीन के गंभीर साइड इफेक्ट्स हैं।
हकीकतः यह सच नहीं है। भारत की ही बात करें तो एडवर्स इवेंट्स सिर्फ 0.013% रही है। यानी दस लाख में सिर्फ 130 लोगों में साइड इफेक्ट्स देखने को मिले हैं। यानी नहीं के बराबर। इंजेक्शन लगाने वाली जगह पर दर्द, सूजन, बुखार जैसे साइड इफेक्ट्स जरूर हो सकते हैं। यह लक्षण एक से दो दिन में खुद-ब-खुद ठीक भी हो जाते हैं। इस वजह से वैक्सीन से मिलने फायदों के मुकाबले साइड इफेक्ट्स कुछ भी नहीं हैं। इसे लेकर चिंतित होने की कतई जरूरत नहीं है।
मिथक 3: वैक्सीन की वजह से विकसित होने वाली इम्यूनिटी शराब पीने से कमजोर होती है।
हकीकतः यह सरासर गलत दावा है। वैक्सीन और शराब का कोई लेना-देना नहीं है। जो लोग बहुत ज्यादा शराब पीते हैं, उनके शरीर में इम्यूनिटी कमजोर हो सकती है। बहुत ज्यादा शराब पीने से लिवर, दिल के रोग होने का खतरा बढ़ जाता है। ऐसे में डॉक्टर इससे बचने की सलाह दे रहे हैं।
शराब और वैक्सीन को लेकर विवाद रूस से शुरू हुआ था। पिछले साल वहां के नेताओं ने कहा था कि वैक्सीन लेने वालों को कम से कम दो-तीन महीने शराब नहीं पीना है। इसके बाद कई लोगों ने वैक्सीन को लेकर हिचक दिखाई। जांच से कुछ भी साबित नहीं हुआ है। अमेरिका में तो लोगों को वैक्सीन लगाने के लिए प्रेरित करने कुछ प्रांतों में फ्री बियर भी बांटी गई है।
मिथक 5: जिन महिलाओं के पीरियड्स चल रहे हैं, उनकी इम्यूनिटी को वैक्सीन कमजोर करती है।
हकीकतः यह सरासर गलत है। महिलाओं के पीरियड्स का वैक्सीन की इफेक्टिवनेस से कोई लेना-देना नहीं है। प्रेग्नेंट महिलाओं को भी वैक्सीन लग रही है। ऐसे में यह भ्रम है कि पीरियड्स में वैक्सीन डोज लेने से इम्यूनिटी कमजोर होती है।
मिथक 6: यदि किसी को कोविड-19 इन्फेक्शन हो चुका है तो उसे वैक्सीन लगवाने की जरूरत नहीं है।
हकीकतः एंटीबॉडी विकसित करने के दो तरीके हैं- कोविड-19 इन्फेक्शन और वैक्सीन। जिन्हें इन्फेक्शन हुआ है, उनके शरीर में एंटीबॉडी बनी होगी। पर यह कितने दिन टिकेगी, हर व्यक्ति पर निर्भर करता है। पर रीइन्फेक्शन का खतरा भी है। इस वजह से भारत सरकार ने सलाह दी है कि इन्फेक्शन होने के तीन महीने बाद वैक्सीन का डोज लिया जा सकता है।
मिथक 7: डाइबिटीज, हाई ब्लडप्रेशर, हार्ट डिजीज, कैंसर से पीड़ित लोग वैक्सीन लगने के बाद कमजोर हो सकते हैं।
हकीकतः यह एक ऐसा ग्रुप है, जिसे भारत सरकार ने प्रायोरिटी ग्रुप में रखकर वैक्सीनेट किया था। इन लोगों को इन्फेक्शन होने पर गंभीर लक्षण होने की आशंका बढ़ जाती है। इस वजह से सलाह दी जाती है कि इस संवेदनशील ग्रुप को जब भी उपलब्ध हो कोविड वैक्सीन लगवा लेनी चाहिए। यह उन्हें इन्फेक्शन के गंभीर लक्षणों से सुरक्षित रखेगी।
मिथक 8: कोविड वैक्सीन वैरिएंट्स पर इफेक्टिव नहीं है।
हकीकतः यह सच नहीं है। वैरिएंट्स पर भी वैक्सीन इफेक्टिव है। पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड की एक स्टडी के मुताबिक कोवीशील्ड और फाइजर वैक्सीन के दोनों डोज लगे हैं तो वे वैरिएंट्स से बचाने में काफी हद तक सफल रहे हैं। कोवैक्सिन के संबंध में भी दावा किया जा रहा है कि यह यूके, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीकी वैरिएंट के साथ ही भारत में मिले डबल म्यूटेंट स्ट्रेन से प्रोटेक्शन देती है।
मिथक 9: बच्चों को दूध पिला रही महिलाओं को वैक्सीन नहीं लगानी चाहिए क्योंकि यह उनकी इम्यूनिटी को कमजोर कर सकती है। साथ ही बच्चे को भी नुकसान पहुंचा सकती है।
हकीकतः शुरुआत में बच्चों को दूध पिला रही महिलाओं को वैक्सीनेशन से बाहर रखा गया था। पर स्टडीज के बाद यह साबित हो चुका है कि वैक्सीन उनके और नवजात बच्चों के लिए सुरक्षित है। डिलीवरी के तत्काल बाद वैक्सीन डोज लगाने से न केवल मां सुरक्षित होती है बल्कि उसका दूध पीकर एंटीबॉडी बच्चे तक भी पहुंचती है। यह बच्चों को भी कोविड-19 इन्फेक्शन से प्रोटेक्शन देती है।
मिथक 10: mRNA वैक्सीन आपके शरीर में कोशिकाओं में मौजूद डीएनए को अलर्ट करते हैं। यह जेनेटिक कोड में बदलाव करते हैं।
हकीकतः यह दावा पूरी तरह से गलत है। mRNA वैक्सीन कोशिका में जाती है। न्यूक्लियस में जाकर डीएनए में बदलाव नहीं करती। वैक्सीन से दिया गया डोज स्पाइक प्रोटीन की तरह बर्ताव करता है और शरीर वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी बनाता है। इस समय फाइजर और मॉडर्ना की mRNA वैक्सीन की इफेक्टिवनेस सभी अन्य वैक्सीन के मुकाबले अच्छी पाई गई है। अमेरिका समेत पूरी दुनियाभर में mRNA वैक्सीन का इस्तेमाल हो रहा है।