“यह एक ऐसी लड़की की सच्ची कहानी है जो बाधाओं के खिलाफ खड़ी हुई और एक सफल उद्यमी बनी”
लोग उन्हें गन्दी, बदसूरत, जहर की पुड़िया, गधे की औलाद और न जाने कौन-कौन से नामों से पुकारते थे। पर आज अलग ही नाम से उन्हें जाना जाता है और वो है मिलियनेयर। हम उन्हें सही मायनों में भारत की स्लमडॉग मिलियनर कह सकते हैं।
कल्पना सरोज का जन्म अकोला के एक छोटे से गांव रोपरखेड़ा में एक निम्न-जाति के दलित परिवार में हुआ। दलित होने की वजह से उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया और बारह साल की कम उम्र में उनका विवाह एक बाईस साल के लड़के से कर दिया गया। बाल-वधु सरोज को शादी के लिए उनके पति के घर मुम्बई के एक बहुत बड़े स्लम में ले जाया गया। पति और परिवार वालों के द्वारा सरोज को बहुत ही ज्यादा यंत्रणा, अत्याचार और छल मिला।
सरोज के ऊपर हो रहे अत्याचार को देखकर उनके पिता का ह्रदय पिघल गया और वे उन्हें वापस घर ले आये। पर यहाँ भी उसकी राह आसान नहीं थी। समाज के लोगों ने उसका बहिष्कार करना शुरू कर दिया। उनके अनुसार सरोज एक अमर्यादित भारतीय पत्नी थी। इन सब तानों का उस पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह अवसाद में चली गई। और एक दिन उसने चूहे मारने की दवा खाकर आत्महत्या की कोशिश भी की, पर नियति ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था; भाग्य ने उसे बचा लिया।
शिक्षा के महत्व को वह समझती थी इसलिए सबसे पहले उसने अपनी इस कमी को दूर करने का निश्चय किया। जिस पढ़ाई को उसे बीच में जॉब के कारण छोड़ना पड़ गया था उसने फिर से शुरू की। पर पढ़ाई का यह निर्णय उसे रास नहीं आया। फिर उन्होंने मुम्बई जाकर नौकरी के लिए प्रयास किया उसमें भी नाकाम रहीं।
कल्पना ने एक कपड़ों के कारखाने में काम शुरू किया, पर वह तो कुछ ज्यादा और बड़ा करना चाहती थी। दलितों को जो सरकार की तरफ से लोन मिलता है, उसका उपयोग कर उन्होंने सिलाई का बिज़नस शुरू किया और यह काम चल निकला ।
“मैंने गरीबी देखी थी। मैं इस जीवन से गुज़र कर उभरी थी, इसलिए मुझे विश्वास था कि मैं इनके जीवन की बेहतरी के लिए ज़रूर कुछ कर पाऊँगी”।
आखिर में बाईस वर्ष की उम्र में वे रुपरखेड़ा छोड़ मुम्बई आ गयीं। उन्होंने फिर से विवाह किया पर 1989 में उनके पति की मृत्यु हो गई। विरासत में मिले स्टील -कबर्ड बनाने के बिज़नस में लग गई। थोड़ी सी कोशिशों के सहारे दो बच्चों की माँ ने बीमार कंपनी को पुनर्जीवित कर दिया। सरोज ने राजनीती में भी हाथ आजमाया, अपनी कॉन्स्ट्रक्शन कंपनी भी खोली और पहले शक्कर और फिर स्टील की मिल्स भी खरीद ली। इस तरह सफलता के पथ पर सरोज लगातार आगे बढ़ती रही।
जीवन की सबसे बड़ी चुनौती 2006 मार्च में उसके सामने आई जब उनकी फर्म ‘कल्पना सरोज एंड एसोसिएट्स ने सुस्त पड़ रही कमानी ट्यूब्स कंपनी को अपने हाथों में लिया। अपनी मेहनत और कोशिशों से इस कंपनी को प्रोफिटेबल कंपनी बना दिया। यह कल्पना जी का ही कमाल है कि आज कमानी ट्यूब्स 500 करोड़ से भी ज्यादा की की कंपनी बन गई है।
“मैं हमेशा अच्छा करने में विश्वास करती हूँ और दूसरों के लिए भी अच्छा करती हूँ। इसलिए मैं ये जानती हूँ कि हार को जीत में कैसे बदला जाता है।”
आज के समय में कल्पना ने 500 करोड़ का कॉर्पोरेट साम्राज्य स्थापित किया है। उनकी इस उपलब्धि के लिए 2013 में उन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाज़ा गया। और कोई बैंकिंग बैकग्रॉउंड न होते हुए भी सरकार ने उन्हें भारतीय महिला बैंक के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टरस में शामिल किया। उन्होंने न तो एमबीए की शिक्षा ली है और न ही वे ग्रेजुएट हैं पर वे अपनी कंपनी का नेतृत्व कर रही हैं और अपने यहाँ ग्रेजुएट्स और एमबीए वालों को नौकरी दे रही हैं।
कल्पना ने बिज़नेस के अलावा विद्यार्थियों के लिए कई पुस्तकालय, होस्टल्स खोले हैं और उनकी आर्थिक मदद भी करती हैं। गरीबों ,आदिवासियों और बुजुर्ग लोगों के सुधार के लिए भी आगे आई हैं। जातिवाद और जाति भेदभाव के खिलाफ भी काम किया है। कल्पना सरोज दृढ़ निश्चय, कठोर परिश्रम, साहस, सहानुभूति और दया की मिसाल हैं।