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राज्यसभा के उप-सभापति की कहानी:पत्रकारिता से राज्यसभा की कुर्सी तक पहुंचने की यात्रा… वे तब हरिवंश थे, फिर हरिवंश नारायण सिंह हो गए

राज्यसभा में कृषि बिल, निलम्बित सांसदों का धरना, हरिवंश की चाय-चिट्ठी और खुद हरिवंश

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हरिवंश नारायण सिंह लगातार दूसरी बार राज्यसभा में उपसभापति चुने गए हैं। साल 2014 में पहली बार जदयू ने हरिवंश को राज्यसभा के लिए प्रस्तावित किया था। – फाइल फोटो

रविवार को राज्यसभा में जो कुछ हुआ, फिर निलंबित सांसदों का धरना और सुबह-सुबह एक भावुक पोस्चर लेते हुए उप-सभापति हरिवंश नारायण सिंह जिस तरह खुद झोले में चाय-बिस्कुट लेकर बेड-टी डिप्लोमेसी पर पहुंचे और फिर एक भावुक चिट्ठी लिखी, उसके बाद से इस पूरे प्रकरण पर बहस छिड़ी हुई है। बहस के कई सिरे हैं। अगर एक सिरा कृषि बिलों से होने वाले जमीनी नफा-नुकसान पर है, तो बहस का बड़ा सिरा हरिवंश को करीब से जानने वालों, खासकर पत्रकार और बुद्धिजीवी जमात के बीच है। बहस का यह सिरा ‘समाजवादी हरिवंश’ के ‘आचरण’ पर ज्यादा है। आइये जानते हैं कौन हैं ये हरिवंश और कहां-कहां से गुजर कर यहां तक आए और अब सत्ता की राजनीति की धुरी बने दिखाई दे रहे हैं। किसान बिल से जमीनी नफा-नुकसान किसे कम हुआ, किसे ज्यादा यह तो वक्त तय कर देगा, लेकिन फिलहाल तो बहस हरिवंश के इर्द-गिर्द है!

वरिष्ठ पत्रकार और लम्बे समय तक बीबीसी से जुड़े रहे रामदत्त त्रिपाठी खुद भी समाजवादी धारा से आते हैं। रामदत्त अपने कार्यक्रम ‘जनादेश’ में कहते हैं कि लोग इसलिए ज्यादा दुखी हैं, क्योंकि उन्होंने शायद उम्मीद ज्यादा पाल ली थी, जबकि यह उम्मीद उसी दिन छोड़ देनी चाहिए थी जब हरिवंश पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में आए थे। रामदत्त कहते हैं, ‘बिल पास करने में जो अलोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाई गई हरिवंश चाहते तो अपनी अंतरात्मा की आवाज पर इस प्रकिया से खुद को आसानी से अलग कर सकते थे, बचा सकते थे’।

22 सितम्बर की सुबह की बात से शुरू करते हैं। बेड-टी का वक्त था। राज्यसभा के उन सांसदों ने शायद उस वक्त तक चाय नहीं पी थी, लेकिन सुबह-सुबह अचानक चाय के साथ जो हाजिर हुआ उसे देखकर कुछ सांसद मुस्कराए थे। ये हरिवंश थे। राज्य सभा के उप सभापति। उन सांसदों के लिए चाय लेकर आये, जो उन्हीं के ‘आचरण’ के खिलाफ धरने पर बैठे थे। हरिवंश अपने पुराने खांटी समाजवादी अंदाज में दिखे। अपना प्रिय बादामी कुर्ता, क्रीम कलर की बंडी और पाजामा पहने हुए। पैर में शायद वही पुराने स्टाइल वाली काली सैन्डल रही होगी। हां, झोला भी वही है, जूट वाला जिसमें वो चाय का थर्मस और बिस्किट लेकर आये थे। लम्बे समय तक साथ काम करने और उन्हें करीब से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार ओम प्रकाश अश्क कहते हैं- ‘ऊपर से सारा आवरण वही पुराना समाजवादी होने के बावजूद सही है कि हरिवंश अब वो वाले समाजवादी नहीं रहे।’ अश्क ये भी कहते हैं कि ‘हरिवंश उन अर्थों में कभी समाजवादी रहे ही नहीं। कम से कम पत्रकार के रूप में जितना देखा, उसमें तो कभी नहीं।’

कौन हैं हरिवंश
मैं जिन हरिवंश को जानता हूं, उनसे मेरी पहली मुलाकात पटना के बोरिंग रोड चौराहे पर किताब की दुकान पर हुई थी। मैं कोई किताब देख रहा था। बगल वाली रैक पर वो अपनी कोई किताब उलट-पुलट रहे थे। शायद नब्बे के आसपास या एक-दो साल पहले की कोई तारीख रही होगी। तब हरिवंश सिर्फ पत्रकार थे। बिहार की पत्रकारिता का एक बड़ा ब्राण्ड जैसा कुछ। एक ऐसा ब्राण्ड जिस पर बिहार का पत्रकार तो कम से कम इतराता ही था। हरिवंश ने ऐसा क्या किया था, दावे से तो नहीं कह सकता, लेकिन मेरे कुछ अच्छे और समझदार मित्रों से मिली तारीफों ने मुझे उनके बारे में अच्छी धारणा बनाने को शायद बाध्य किया था। ‘रविवार’ पत्रिका के दौर की उनकी कुछ रिपोर्टिंग और लेखों का भी जरूर सीधे तौर पर इसमें योगदान रहा होगा। हालांकि, मुझे कभी सीधे तौर पर ऐसा कोई उदाहरण उन 12 वर्षों के बिहार प्रवास में नहीं दिखा कि आधिकारिक रूप से कुछ कह सकूं। हां, वैसा कुछ बड़ा विपरीत भी नहीं था कि धारणा खंडित होती दिखती।

इतना जरूर याद है कि यूपी-बिहार में पत्रकारिता करते हुए उस एक खास कालखंड में अखबारों में अपनी आचार संहिता बनाने-दिखाने का जिन कुछ सम्पादकों को शौक चढ़ा था, उनमें हरिवंश भी एक थे। यह आचार संहिताएं भी ऐसी ही थीं कि उन्हें पढ़कर ही लगता था, यह तोड़ने के लिए ही बनाई और लिखी गई हैं। धेले भर का लाभ न लेने के भारी-भरकम वादे करने वाले ऐसे प्रधान सम्पादकों में से हरिवंश तो एक बार पीएमओ (पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर के साथ) और फिर राज्यसभा (अब पीएम नरेंद्र मोदी) में भी पहुंच गए और फिर इस महती गरिमामय आसन तक भी। हालांकि कुछ राज्यसभा से प्रसार भारती तक की आस लगाए, गाहे-बगाहे ऐसी कई आचार संहिताएं लिख और जारी करते-छापते रहे। उदाहरण कई हैं। खैर, यहां बात सिर्फ हरिवंश की।

पत्रकारिता के उसी दौर में राजनीतिक दोस्त नीतीश कुमार की मां के निधन पर ‘प्रभात खबर’ के मुख पृष्ठ पर अद्भुत डिस्प्ले के साथ ‘उस खबर’ का प्रकाशन बहुतों को याद होगा। बाद के दिनों में तो यह कहानी और आगे बढ़ी और मित्र नीतीश कुमार को चन्द्रगुप्त मौर्य के बरअक्स देखने से नहीं चूकी। यह सब अखबार के पन्नों पर खुलकर हुआ। दोस्ती की यह कहानी लगातार लंबी होती गई। फिर ‘प्रभात खबर’ का सम्पादक रहते ही उन्होंने राज्यसभा के उप-सभापति का भी दायित्व स्वीकार किया। इससे पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर के साथ वे उनके अतिरिक्त सूचना सलाहकार रह ही चुके थे। पत्रकारिता से राज्यसभा की इस गरिमापूर्ण कुर्सी तक पहुंचने की इस यात्रा का तब हमने भी स्वागत किया था। ये अलग बात है कि यह सब अखबार की उन सीढ़ियों के कारण ही सम्भव हुआ, जिनकी हर सीढ़ी, हर दिन सत्ता के उसी गलियारे की ओर बढ़ती गई थी। उन सीढ़ियों में अविभाजित बिहार वाले ‘प्रभात खबर’ की कुछ सौ प्रतियों से सफलता के शिखर की यात्रा भी निर्विवाद रूप से शामिल है।

अपने पत्रकारों को हमेशा एक आचार संहिता में बांधने वाले, कम बोलने वाले, संयमित-सौम्य प्रकृति वाले हरिवंश एक दूसरी आचार संहिता की दुनिया में प्रवेश कर चुके थे। हरिवंश की इस राह में उनकी सादगी की तमाम मिसालें भी हैं। सता से करीबी और सत्ताधीशों से दोस्ती के तमाम किस्से भी। जाहिर है, इन किस्सों में दोस्तों के सत्ता शीर्ष तक पहुंचने की कई कहानियां भी शामिल होंगी ही।

यह भी अनायास नहीं है कि हरिवंश कभी भी अपनी ‘अतीत के गौरव’ का बखान करने से नहीं चूकते। अगस्त 2018 में दोबारा उपसभापति चुने जाने के बाद उन्होंने जब कहा- “मैं आपका आभारी हूं कि आपने एक ऐसे व्यक्ति को इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी के लिए उपयुक्त समझा जो गांव में रहने वाले एक बहुत सामान्य परिवार से आता है और जो कभी अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में नहीं गया।” तब उनके एक अनन्य मित्र जयशंकर गुप्त ने मेरी निजी बातचीत में कहा था- हरिवंश को अब ये अपना पुराना सर्टिफिकेट दिखाना बंद कर देना चाहिए। वो बहुत पहले उस दुनिया से बहुत आगे निकल आये हैं… उस दुनिया से बहुत दूर। अब उन्हें यह सब कहने की जिम्मेदारी उन लोगों पर छोड़ देनी चाहिए, जो अब भी स्वेच्छा से उन्हें उसी पुराने चश्मे से देखना चाहते हैं।

फिलहाल, मैं जिस हरिवंश को जानता था, वो तब तक सिर्फ हरिवंश थे। राज्यसभा में हमने जिस हरिवंश को जाते देखा, तब तक वे ‘हरिवंश नारायण सिंह’ हो चुके थे।

समाजवादी मित्र और वारिष्ठ पत्रकार अम्बरीश कुमार कहते हैं, ‘हरिवंश निजी जीवन की तरह सदन में भी अपने आचरण से लगातार प्रभावित करते रहे हैं/थे। लेकिन रविवार को सदन में कृषि विधेयकों की ताबड़तोड़ ध्वनिमत से मंजूरी दिलाने और उनकी चाय से लेकर ‘भावुक चिट्ठी’ तक की इस ‘अभूतपूर्व प्रक्रिया’ में जो कुछ ध्वनियां निकली हैं, उससे वे एक बार फिर से अलग कारणों से चर्चा में हैं और यह स्वाभाविक भी है।’ अम्बरीश कहते हैं कि शायद इसके पीछे भी भविष्य की किसी बड़ी मंजिल की उम्मीद छिपी हो!

हालांकि, मंगलवार की सुबह धरने पर बैठे सांसदों की दरी पर बैठकर, उन्हें चाय पिलाने, उनके साथ चाय पीते हुए उनके तंजिया बयानों ने उन्हें जितना विचलित किया होगा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उनकी प्रशंसा वाले ट्वीट उन्हें कितना संतुष्ट कर पाएंगे, फ़िलहाल इसे लेकर किसी निष्कर्ष या निकष पर पहुंचना मुश्किल है। शायद उनके अति करीबी मित्रों के लिए भी यह कठिन ही हो।

अवसरवादी और समझौतावादी हरिवंश
उनकी नैतिकता खरी न उतरने के कई उदाहरण हैं। उनके अत्यंत करीबी रहे एक मित्र बताते हैं कि- ‘जिनके खिलाफ उन्होंने मुहिम चलाई (लालू प्रसाद), उन्हीं के दल (राजद) के साथ जब नीतीश के जदयू का समझौता हुआ तो हरिवंश महज इसलिए चुप्पी साधे रहे कि उनकी राज्यसभा की कुर्सी सलामत रहे। ये वही प्रसंग है जब हरिवंश ने न सिर्फ सम्पादक के रूप में बल्कि एक छद्म नाम से रिपोर्टिंग करके भी (जिसे वे खुद भी स्वीकार करते हैं) अपने अखबार में लालू यादव का चिट्ठा खोलने, उन्हें जेल की सलाखों के पीछे भिजवाने में कोई कोताही नहीं की थी। इसी कारण उनसे रिश्ते भी बिगड़े थे। हालांकि बाद के घटनाक्रमों से यह भी पुष्ट हुआ कि इस पूरे ‘खुलासा प्रकरण’ में सच चाहे जितना रहा हो, उनकी पत्रकारीय मंशा संदेह के घेरे में ही रही। वरना कोई कारण नहीं था कि 2015 में जब नीतीश कुमार का जदयू और लालू प्रसाद का राजद हाथ मिला रहे थे, वह पत्रकारीय नैतिकता दिखाते तो इस्तीफा देकर अलग हो जाते। पत्रकारीय नैतिकता भी बची रहती, राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी किसी और दल से तो पूरी हो ही जाती!

नीतीश की नाराजगी भी खामोशी से झेली
2009 की बात है। राज्यसभा का रास्ता लगभग साफ था लेकिन चुनाव के दौरान हरिवंश से थोड़ी ‘चूक’ हो गई। बांका से लोकसभा प्रत्याशी (जदयू के बागी) दिग्विजय सिंह के नामांकन समारोह में पहुंचे थे और बाकायदा मंच पर आसीन थे। तब वे प्रभात खबर के प्रधान सम्पादक थे। मैं उन दिनों भागलपुर में था और मुझे याद है कि उस समारोह में प्रभाष जोशी और अनुपम मिश्र भी आए थे। सबने न सिर्फ वह मंच साझा किया था बल्कि सम्भवतः हाथ में तलवार लेकर फोटो भी खिंचाई थी। उस माहौल में कुछ अप्रिय दीखते सवालों से असहज भी हुए थे। असहज तो प्रभाषजी भी हुए थे लेकिन दोनों के असहज होने का मीटर बहुत अलग था।

हरिवंश के अत्यंत प्रिय और उनकी टीम में लम्बे समय संपादक रहे रवि प्रकाश की फेसबुक पर लिखी यह टिप्पणी अपने आप में एक मुकम्मल तस्वीर दिखा देती है। रवि लिखते हैं- “आप पत्रकारिता में हमारे हीरो थे। लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ते थे। ईमानदार थे। शानदार पत्रकारिता करते थे। ‘जनता’ और ‘सरकार’ में आप हमेशा जनता के पक्ष में खड़े हुए। आपको इतना मज़बूर (?) पहले कभी नहीं देखा। अब आप अच्छे मौसम वैज्ञानिक हैं। आपको दीर्घ जीवन और सुंदर स्वास्थ्य की शुभकामनाएं सर। आप और तरक्की करें। हमारे बॉस रहते हुए आपने हर शिकायत पर दोनों पक्षों को साथ बैठाकर हमारी बातें सुनी। हर फैसला न्यायोचित किया। आज आपने एक पक्ष को सुना ही नहीं, जबकि उसको सुनना आपकी जवाबदेही थी। आप ऐसा कैसे कर गए सर? यक़ीन नहीं हो रहा कि आपने लोकतंत्र के बुनियादी नियमों की अवहेलना की।

करीब दस साल पहले एक बड़े अखबार के मालिक से रुबरू था। इंटरव्यू के वास्ते। उन्होंने पूछा कि आप क्या बनना चाहते हैं। जवाब में मैंने आपका नाम लिया। वे झल्ला गए। उन्होंने मुझे डिप्टी एडिटर की नौकरी तो दे दी, लेकिन वह साथ कम दिनों का रहा। क्योंकि, हम आपकी तरह बनना चाहते थे। लेकिन आज…!

एक बार झारखंड के एक मुख्यमंत्री ने अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को लाने के लिए सरकारी हेलिकॉप्टर भेजा। आपने पहले पन्ने पर खबर छापी। बाद में उसी पार्टी के एक और मुख्यमंत्री हर सप्ताहांत पर सरकारी हेलिकॉप्टर से ‘घर’ जाते रहे। आपका अखबार चुप रहा। हमें तभी समझना चाहिए था। आपके बहुत एहसान हैं। हम मिडिल क्लास लोग एहसान नहीं भूलते। कैसे भूलेंगे कि पहली बार संपादक आपने ही बनाया था। लेकिन, यह भी नहीं भूल सकते कि आपके अख़बार ने बिहार में उस मुख्यमंत्री की तुलना चंद्रगुप्त मौर्य से की, जिसने बाद में आपको राज्यसभा भेजकर उपकृत किया। आपकी कहानियाँ हममें जोश भरती थीं। हम लोग गिफ़्ट नहीं लेते थे। (कलम-डायरी छोड़कर) यह हमारी आचार संहिता थी। लेकिन, आपकी नाक के नीचे से एक सज्जन सूचना आयोग चले गए। आपने फिर भी उन्हें दफ्तर में बैठने की छूट दी। जबकि आपको उनपर कार्रवाई करनी थी। यह आपकी आचार संहिता के विपरीत कृत्य था। बाद में आप खुद राज्यसभा गए। यह आपकी आचार संहिता के खिलाफ बात थी। ख़ैर, आपके प्रति मन में बहुत आदर है। लेकिन, आज आपने संसदीय नियमों को ताक पर रखा। भारत के इतिहास में अब आप गलत वजहों के लिए याद किए जाएंगे सर। शायद आपको भी इसका भान हो। संसद की कार्यवाही की रिकार्डिंग फिर से देखिएगा। आप नज़रें ‘झुकाकर’ बिल से संबंधित दस्तावेज़ पढ़ते रहे। सामने देखा भी नहीं और उसे ध्वनिमत से पारित कर दिया। संसदीय इतिहास में ‘पाल’ ‘बरुआ’ और ‘त्रिपाठी’ जैसे लोग भी हुए हैं। आप भी अब उसी क़तार में खड़े हैं। आपको वहां देखकर ठीक नहीं लग रहा है सर। हो सके तो हमारे हीरो बने रहने की वजहें तलाशिए।”

ओरि

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