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सम्मानपूर्वक जीने के लिए मिले हैं कई तरह के कानूनी अधिकार, रखें याद

वर्ल्ड ह्यूमन राइट्स प्रोटेक्शन कमीशन के नेशनल मेंबर डॉ. ऋतेश श्रीवास्तव, पंजाब और हरियाणा बार कौंसिल की डिस्पेलेनरी कमेटी मेंबर एडवोकेट अमनदीप सिंह अग्रवाल (चैंबर नंबर 608, डिस्ट्रिक्ट बार एसोसिएशन, बठिंडा) देते हैं निशुल्क सलाह, Adv Amandeep Singh Aggarwal 9988005634, Dr. Ritesh Shrivastav 9216000037

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       Adv Amandeep Singh Aggarwal 9988005634,  Dr. Ritesh Shrivastav 9216000037                                                                  चंडीगढ़, 29 मई (  नमस्ते इंडिया ब्यूरो )    वर्ल्ड ह्यूमन राइट्स प्रोटेक्शन कमीशन के नेशनल मेंबर डॉ. ऋतेश श्रीवास्तव, पंजाब और हरियाणा बार कौंसिल की डिस्पेलेनरी कमेटी मेंबर एडवोकेट अमनदीप सिंह अग्रवाल (चैंबर नंबर 608, डिस्ट्रिक्ट बार एसोसिएशन, बठिंडा) कहते हैं कि सभी को उनके अधिकार पता होने चाहिए। उन्होंने जानकारी दी कि भारतीय संविधान में हमें 6 तरह के मूल अधिकार दिए गए हैं। इसके तहत देश के सभी नागरिकों को समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार और संवैधानिक उपचारों का अधिकार शामिल है। ये अधिकार हमें सम्मान से जीने और समाज में रहने की आजादी देते हैं। आज यहां हम ऐसे ही तमाम अधिकारों के बारे में आपको बताते हैं।

बच्चों के अधिकार

हमारे यहां बच्चे को मां के गर्भ से उसे संरक्षण मिल जाता है। भ्रूण हत्या और जन्म से पहले लिंग निर्धारण पर रोक लगाने के लिए साल 1996 में पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (PCPNDT) कानून बनाया गया था। इसके तहत जन्म से पूर्व लिंग की जांच करने और अबॉर्शन पर रोक लगाई गई। ऐसा करने वाले डॉक्टर या लैब कर्मी के लिए सजा का प्रावधान किया गया। हालांकि, महिला की जान खतरे में होने पर या उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति सही न होने पर अबॉर्शन कराया जा सकता है। इसके अलावा अगर गर्भ में पल रहा बच्चा किसी अपंगता का शिकार है तब भी अबॉर्शन कराया जा सकता है।

 

कानूनन पुलिस के लिए एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है। वह इससे इनकार नहीं कर सकती।

अगर एफआईआर नहीं दर्ज की जा रही है तो अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत में अर्जी दी जा सकती है।

मजिस्ट्रेट को यह अधिकार और शक्ति प्राप्त है कि वो पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने को कह सकता है।

कई बार पीड़ित किसी भी नजदीकी थाने में अपनी एफआईआर दर्ज करा सकता है। भले ही अपराध उस पुलिस स्टेशन की सीमा से बाहर हुआ हो। इसे जीरो एफआईआर कहा जाता है। बाद में इस एफआईआर को संबंधित थाने पर ट्रांसफर किया जा सकता है।

भारत में अपराधों की दो श्रेणियां में बांटा गया है। इनमें से पहली श्रेणी वाले अपराधों को संज्ञेय अपराध कहा जाता है जबकि दूसरी श्रेणी के अपराधों को असंज्ञेय कहते हैं।

संज्ञेय अपराध: गंभीर प्रकृति के होते हैं। ऐसे मामले में आरोपी की गिरफ्तारी के लिए पुलिस को किसी वारंट की जरूरत नहीं पड़ती।

असंज्ञेय अपराध: किसी को बिना कोई चोट पहुंचाए किए गए हमले और कम गंभीर प्रकृति वाले अपराध इस श्रेणी में आते हैं। इन मामलों में पुलिस बिना तहकीकात के मुकदमा दर्ज नहीं कर सकती और न ही शिकायतकर्ता इसके लिए पुलिस को बाध्य कर सकता है।

बुजुर्गों के अधिकारों के संरक्षण के लिए साल 2007 में द मेंटनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पैरंट्स एंड सीनियर सिटिजंस ऐक्ट लाया गया। यह कानून पूरे देश में लागू है।

इसके तहत संतान द्वारा शारीरिक या मानसिक तौर पर परेशान किए जाने पर बुजुर्ग अपने बच्चों के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकते हैं।

अगर बच्चे माता-पिता के भरण-पोषण से इनकार करते हैं तो वे इसके लिए भी अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं।

बुजुर्ग द्वारा की गई अपील पर सक्षम अधिकारी को 90 दिनों में प्रकरण में फैसला करना होता है।

थानों में बुजुर्गों की शिकायत प्राथमिकता से लिखे जाने का भी प्रावधान है।

जाने-अनजाने में प्रताड़ित किए जाने और घर से बेदखल किए जाने की स्थित में दोषी पाए जाने पर आरोपी को कम से कम 6 माह की सजा का प्रावधान।

ओल्ड एज होम में रह रहे बुजुर्गों का संबंधित थानों में वैरिफिकेशन होना भी अनिवार्य कर दिया गया है।

बच्चों को अनिवार्य शिक्षा देने के उद्देश्य से 1 अप्रैल 2010 को केंद्र सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून बनाया। संविधान के अनुच्छेद 21ए के तहत 6 से 14 साल के बच्चों की शिक्षा अनिवार्य है। इस कानून के बनने के बाद से हर बच्चा पहली से आठवीं तक मुफ्त और अनिवार्य रूप से पढ़ेगा। उन्हें अपने नजदीक के स्कूल में दाखिला लेने का अधिकार दिया गया है। इस कानून के तहत स्कूल से बच्चों का नाम कटाना अपराध माना गया है।

 बड़ों के अधिकार

 

पुलिस अफसर को गिरफ्तार व्यक्ति से पूछताछ करते वक्त अपना सही पद, नाम और पहचान बताना अनिवार्य है।

गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी का कारण और उसके अधिकार के बारे में बताना होगा।

पूछताछ करने वाले अफसरों का उल्लेख रोजनामचा और एक अन्य रजिस्टर में भी किया जाएगा।

गिरफ्तारी के बाद एक अरेस्ट मेमो तैयार होगा। इसमें गिरफ्तारी का वक्त और तारीख लिखी होगी। इस पर कोई भी दो गवाहों के दस्तखत लिए जाएंगे।

गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के किसी मित्र, रिश्तेदार, शुभचिंतक या जानकार को गिरफ्तारी की जानकारी देनी जरूरी है।

गिरफ्तार करते वक्त व्यक्ति की शारीरिक जांच कराई जानी चाहिए।

गिरफ्तार व्यक्ति को अपने वकील से मिलने की छूट है।

किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी, स्थान की सूचना, अफसर द्वारा गिरफ्तारी के 12 घंटे के अंदर पुलिस कंट्रोल रूम को देनी होती है।

गिरफ्तार शख्स को मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के सामने गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर पेश किया जाना जरूरी है।

विचाराधीन या सजायाफ्ता के मानवाधिकार का भी खयाल रखना होगा।

अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 160 के तहत महिलाओं को पुलिस स्टेशन में पूछताछ के लिए नहीं बुलाया जा सकता। इसके तहत महिला कांस्टेबल या महिला के परिवार के किसी सदस्य की उपस्थिति में घर पर ही पूछताछ की जा सकती है।

किसी भी महिला को बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के सूरज ढलने के बाद और सूर्योदय से पहले गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।

महिलाओं की गिरफ्तारी के वक्त महिला पुलिस का होना जरूरी है, उसे लॉकअप में अलग रखने की व्यवस्था होनी चाहिए।

26 जुलाई 2016 को लोकसभा में बालश्रम निषेध और विनियमन संशोधन विधेयक 2016 पारित किया गया। इसके तहत 14 साल से कम उम्र के बच्चों से व्यवसायिक या औद्योगिक इकाइयों में काम करवाना संज्ञेय अपराध माना गया है। हालांकि, वे घरेलू काम कर सकते हैं। इसके अलावा 14 से 18 साल वाले बच्चों से किसी खतरनाक उद्योग में काम नहीं कराया जाना चाहिए। ऐसा करने पर 3 साल तक सजा और जुर्माने का प्रावधान है।

 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत पुश्तैनी संपत्ति पर महिला का भी बराबर हक है।

नौ से अधिक कर्मचारियों वाले संस्थानों में काम करने वाली महिलाओं को 26 हफ्ते का मातृत्व अवकाश मिलता है। दो या दो से ज्यादा बच्चे होने पर अगले प्रसव के दौरान केवल 12 हफ्ते का ही मातृत्व अवकाश दिया जाएगा। इस दौरान संस्थान महिला के वेतन में कटौती नहीं कर सकते। प्रसव के बाद महिलाएं फिर से अपना काम शुरू कर सकती हैं। तीन महीने के कम उम्र के बच्चे को गोद लेने वाली और सरोगेसी के जरिए मां बनने वाली महिलाओं को 12 सप्ताह का मातृत्व अवकाश मिलेगा। इसके अलावा 50 से ज्यादा कर्मचारियों वाले संस्थानों को क्रेच की सुविधा भी उपलब्ध करानी होगी।

ऑफिस में सेक्शुअल हैरेसमेंट रोकने के लिए विशाखा गाइडलाइन्स बनाई गई थीं। इसके अलावा साल 2013 में सेक्शुअल हरैस्मेंट ऑफ विमिन एट वर्क प्लेस (प्रिवेंशन प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल) ऐक्ट भी लाया गया। ये कानून ऑफिस में महिलाओं के साथ होने वाले उत्पीड़न से उनका बचाव करता है।

साल 2005 में प्रोटेक्शन ऑफ विमिन फ्रॉम डोमेस्टिक वॉयलेंस ऐक्ट लाया गया। ये अधिनियम मुख्य रूप से पति, पुरुष लिव इन पार्टनर या रिश्तेदारों द्वारा पत्नी, महिला लिव इन पार्टनर या घर में किसी भी महिला से की गई हिंसा से सुरक्षा के लिए बनाया गया है। इसमें पीड़ित या उसकी ओर से कोई भी शिकायत दर्ज करा सकता है। हाल ही में दहेज प्रताड़ना कानून की धारा 498-ए में संशोधन करते हुए जांच कमेटी की भूमिका खत्म कर दी गई है। अब पुलिस अपने विवेक के अनुसार आरोपियों को तत्काल गिरफ्तार कर सकती है।

छेड़छाड़ के मामलों में महिला आईपीसी की धारा 354 के विभिन्न सेक्शनों के तहत मुकदमा दर्ज करा सकती है। ऐसे मामलों के साबित होने पर आरोपी को सात साल तक की सजा का प्रावधान है। इसके साथ ही आरोपी पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है।

 बुजुर्गों के अधिकार

बच्चों के यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए साल 2012 में POCSO (Protection Of Children From Sexual Offences Act) नाम से एक विशेष कानून बनाया गया। इस कानून के तहत 18 साल से कम उम्र के लड़के या लड़कियों के साथ होने वाले किसी भी तरह के यौन अपराधों और छेड़छाड़ के मामलों में कार्रवाई की जाती है। इस तरह की मामलों की सुनवाई स्पेशल कोर्ट में होती है। इस कानून के तहत अलग-अलग अपराध के लिए अलग-अलग सजा का प्रावधान किया गया है।

 

माता-पिता द्वारा किसी भी तरह प्रताड़ित किए जाने पर बच्चे जुवेनाइल कानून के तहत उनके खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करा सकते हैं। पैरेंट्स द्वारा प्रताड़ित करने के दौरान यदि बच्चे को चोट लगती है तो फिर आईपीसी एक्ट की धारा 323, 324 और 326 के तहत केस दर्ज होगा। जुवेनाइल कानून के तहत दोषी पाए जाने पर माता-पिता को 10 साल तक की सजा हो सकती है।

 

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