20 साल के वॉर ऑन टेरर में 2.41 लाख मौतें, 167 लाख करोड़ रुपए खर्च; यानी भारत के रक्षा बजट का 40 गुना खर्च कर दिया अमेरिका ने अफगानिस्तान में
अफगानिस्तान में अपने इतिहास के सबसे लंबे 20 साल चले युद्ध के बाद अमेरिकी सेनाओं की घर वापसी हो रही है। उस बगराम एयरबेस से अमेरिकी सैनिक लौट चुके हैं, जहां से युद्ध का संचालन होता था। अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी ने युद्ध में अमेरिका ने क्या खोया और क्या पाया, इसका हिसाब-किताब लगाया है। उसके अनुसार अमेरिका ने अफगानिस्तान में 167 लाख करोड़ रुपए खर्च किए। इस दौरान 6,384 अमेरिकी सैनिकों की मौत हुई है, जिनमें प्राइवेट सिक्योरिटी कॉन्ट्रैक्टर भी शामिल हैं।
पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि अमेरिकी सैनिकों की रवानगी के बाद अफगानिस्तान का क्या होगा। लॉन्ग वॉर जर्नल के मुताबिक 1 मई से ही सैनिकों की लौटने की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं और तालिबान ने प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया। 1 मई को अफगानिस्तान के 407 में से 73 जिलों पर तालिबान का कब्जा था, पर 29 जून तक यह कब्जा बढ़कर 157 जिलों में हो चुका था। 151 जिलों में अफगानिस्तान सरकार से तालिबान के लड़ाके लड़ रहे हैं। सिर्फ 79 जिले ही ऐसे हैं, जहां अफगानिस्तान सरकार की हुकूमत कायम है। अमेरिकी खुफिया अधिकारियों का आकलन है कि तालिबान अधिक से अधिक छह महीने में पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेगा। यानी फिर वही हालात बनेंगे जो 2001 से पहले थे।
आइए, समझते हैं कि इन 20 साल में अमेरिका ने अफगानिस्तान में क्या हासिल किया?
अमेरिका के लिए सबसे बड़ा मुद्दा था खर्च, आखिर अफगानिस्तान में यह हुआ कितना?
- अमेरिका में पिछले दस वर्ष से अफगानिस्तान में हो रहा खर्च एक बड़ा मुद्दा था। इसे लेकर अलग-अलग आकलन आए हैं। पर हालिया स्टडी ब्राउन यूनिवर्सिटी ने की है, जिसमें कॉस्ट ऑफ वॉर को लेकर अलग-अलग मद में हुए खर्च का ब्योरा दिया गया है। इसके अनुसार 2.2 ट्रिलियन डॉलर यानी करीब 167 लाख करोड़ रुपए अमेरिका ने खर्च किए हैं।
- ब्राउन यूनिवर्सिटी की स्टडी कहती है कि 2001 के बाद से अमेरिकी सरकार ने विदेशों में सैन्य कार्रवाई के लिए 4.4 लाख करोड़ रुपए का बजट रखा था। पर खर्च इससे कई गुना अधिक हुआ। यह आप इस बात से समझ सकते हैं कि युद्ध के लिए खर्च की व्यवस्था करने के लिए कर्ज लेना पड़ा और उस पर 20 साल में 40 लाख करोड़ रुपए तो सिर्फ ब्याज में चले गए।
- 22 लाख करोड़ रुपए युद्ध में घायल होकर दिव्यांग हुए सैनिकों पर खर्च हुए। अमेरिकी सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2010 से 2012 तक हर समय अफगानिस्तान में एक लाख से अधिक सैनिक तैनात थे। इसकी वजह से सालाना खर्च बढ़कर 100 बिलियन डॉलर को भी पार कर गया था।
- यह खर्च कितना अधिक है, यह इस बात से समझ सकते हैं कि भारत का 2021-22 के लिए रक्षा बजट 4.78 लाख करोड़ रुपए का है। पिछले 20 साल में यह बढ़ा ही है। अगर हम औसत 3 लाख करोड़ रुपए के खर्च को भी पकड़ें तो 20 साल में 60-70 लाख करोड़ रुपए ही खर्च हुए होंगे। पर अमेरिका ने जितना खर्च किया है, वह भारत के एक साल के रक्षा बजट से 40 गुना अधिक है।
इस युद्ध में अमेरिका के कितने सैनिक मारे गए?
- इसे लेकर अलग-अलग आकलन है। ब्राउन यूनिवर्सिटी की कॉस्ट ऑफ वॉर स्टडी के मुताबिक अफगान युद्ध में 2.41 लाख लोग मारे गए। अफगानिस्तान और पाकिस्तान की 2,670 किमी लंबी बॉर्डर पर क्रॉस-बॉर्डर गोलीबारी और अमेरिकी ड्रोन हमलों में 71,344 सिविलियंस मारे गए। इसमें 47 हजार अफगानिस्तान में और 24 हजार पाकिस्तान में मारे गए।
- अलग-अलग स्टडी के अनुसार 6,384 अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान में मौत हुई। इनमें प्राइवेट सिक्योरिटी कॉन्ट्रैक्टर भी शामिल हैं, जो अमेरिका की तरफ से लड़ रहे थे। वहीं, 9.7 लाख से अधिक सैनिक अपाहिज हुए। अफगान मिलिट्री और पुलिस भी अमेरिका की ओर से लड़ीं और 66 हजार से 69 हजार के बीच मौतें हुई। तालिबान के लड़ाकों समेत मारे गए विद्रोहियों की संख्या करीब 84 हजार है।
- अगर आप इसकी तुलना भारत-पाकिस्तान के बीच चली झड़पों से करेंगे तो हमने भी बड़ी संख्या में सैनिकों को खोया है। सेना ने 2016 में एक RTI आवेदन पर बताया था कि 2001 से 2016 के बीच 4675 भारतीय सैनिक शहीद हुए। वहीं, 1990 से 2017 तक 27 साल में जम्मू-कश्मीर में 41 हजार से अधिक मौतें हुई हैं। यानी हर साल 1,500 से अधिक।
पर आखिर अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया क्यों था?
- 11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अलकायदा के हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने ‘वार ऑन टेरर’ (आतंकवाद के खिलाफ युद्ध) का ऐलान किया था। अलकायदा के ज्यादातर नेता उस समय अफगानिस्तान में थे। और, वहां तालिबान का शासन था। तब अमेरिका ने तालिबान से कहा था कि ओसामा बिन लादेन समेत सभी अलकायदा के नेताओं को उसे सौंप दिया जाए। तालिबान ने इसे ठुकरा दिया था।
- इसके बाद अमेरिका के नेतृत्व वाली नाटो (NATO) गठबंधन सेनाओं ने अफगानिस्तान पर हल्ला बोल दिया। मई 2003 तक हिंसक संघर्ष हुआ। तब अमेरिका के रक्षा मंत्री डोनाल्ड रम्सफेल्ड ने मिलिट्री ऑपरेशन खत्म होने की घोषणा की। तालिबान शासन खत्म हो चुका था। ट्रांजिशन सरकार बनाई गई। अलकायदा के नेता पाकिस्तान में मौजूद अपनी महफूज पनाहगाहों में भाग गए। हालांकि सही मायनों में यह जंग कभी खत्म नहीं हुई और न ही अब तक अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लौट सकी।
अब अमेरिका ने सेना वापस क्यों बुला ली है?
- अमेरिका को काफी पहले समझ आ गया था कि यह युद्ध जीतना उसके बस में नहीं है। प्रेसिडेंट बराक ओबामा ने तो अफगानिस्तान से सैनिकों की घर वापसी का वादा भी किया था। पर अमेरिका ऐसे लौट जाता तो किरकिरी होती। वह फेस सेविंग चाहता था।
- ओबामा प्रशासन ने जुलाई 2015 में तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के बीच मध्यस्थता कराई। पाकिस्तान के मूरी में पहली बार दोनों पक्षों में बातचीत हुई। पर इसी दौरान अफगान सरकार ने घोषणा कर दी कि मुल्ला उमर दो साल पहले मारा जा चुका है। बस, बातचीत अटक गई।
- इसके बाद प्रेसिडेंट डोनाल्ड ट्रम्प ने अफगानिस्तान को लेकर विशेष दूत जालमे खलीलजाद को नियुक्त किया। ताकि तालिबान से सीधे बातचीत हो सके। बात आगे बढ़ी और फरवरी 2020 में दोहा में एग्रीमेंट साइन हुआ। उस समय 12 हजार अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में थे।
अमेरिकी सेना के लौटने के बाद अफगानिस्तान में क्या होगा?
- तालिबान की एक शर्त थी कि हजारों तालिबान कैदियों को रिहा किया जाए। अमेरिकी सरकार इसके लिए अफगान सरकार पर दबाव बना रही है। करीब 450 आतंकियों को रिहा भी किया गया था। शर्त के मुताबिक तालिबान और अफगान सरकार में सितंबर 2020 में दोहा में बातचीत शुरू हुई, पर फेल हो गई। शांति प्रक्रिया फिलहाल ठप है।
- तालिबान ने विदेशी सैनिकों पर तो हमले नहीं किए, पर अफगानिस्तान के सुरक्षा बलों पर हमले जारी हैं। दो दिन पहले ही खबरें आईं कि एक हजार अफगान सैनिक बचने के लिए तजाकिस्तान भाग गए हैं। अफगान सरकार का आरोप है कि तालिबान ने पिछले महीनों में पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और सिविल सोसायटी को निशाना बनाया है। आरोप है कि तालिबान पाकिस्तान का साथ लेकर अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है।
आखिर पाकिस्तान का रुख क्या है?
- पाकिस्तान उन 3 देशों में शामिल है, जिसने 1990 के दशक में तालिबान शासन को मान्यता दी थी। आज तालिबान के लड़ाके पूरी ताकत से अफगान सेना से लड़ रहे हैं तो इसमें पाकिस्तान की आईएसआई (इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस) की मदद अहम है। 2001 में पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह परवेज मुशर्रफ ने बुश प्रशासन के दबाव में तालिबान से संबंध तोड़ दिए थे। पर तालिबान के टॉप नेताओं के ग्रुप रहबारी शूरा को आश्रय दिया। इन नेताओं ने तालिबान को संगठित किया। पैसे और लड़ाके जुटाए। सैन्य रणनीति बनाई और फिर अफगानिस्तान लौटा। पाकिस्तान ने जिनेवा 1988 के जिनेवा पैक्ट को भी नहीं माना।
- पाकिस्तान की कोशिश अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव को रोकना है। 1990 के दशक की तरह अगर तालिबान हिंसा के दम पर काबुल पर कब्जा जमाता है तो उसे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी मान्यता नहीं देगी। इससे अस्थिर देश में स्थिरता नहीं लौटने वाली। स्ट्रैटेजिक रूप से पाकिस्तान तालिबान को शांति के साथ सत्ता में लौटते देखना चाहता है ताकि वह अपने सीमाई इलाकों में स्थिरता ला सके। उसका दावा है कि पाकिस्तान में करीब 40 लाख अफगान रिफ्यूजी हैं। कई तालिबान नेता इस्लामाबाद के आलीशान मकानों में रहते हैं। अब यह देखना होगा कि अमेरिकी सेना के लौटने के बाद पाकिस्तान अफगानिस्तान में क्या भूमिका निभाएगा?
भारत का तालिबान को लेकर क्या रुख है?
- जून में कतर के अधिकारी के हवाले से खबरें आई कि भारत ने दोहा में तालिबान से संपर्क किया है। इन खबरों का खंडन नहीं हुआ है। और तो और, नरेंद्र मोदी सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार के दिन विदेश मंत्री एस. जयशंकर मॉस्को रवाना हुए। तीन दिन की यात्रा के दौरान भी एजेंडा तालिबान और अफगानिस्तान ही रहा। एक तरह से अमेरिका के बाद भारत ने भी तालिबान को स्वीकृति दे दी है। भारत भी मान गया है कि आने वाले दिनों में अफगानिस्तान में तालिबान की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी।
अफगानिस्तान का क्या भविष्य दिख रहा है?
द वॉल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार अमेरिकी खुफिया कम्युनिटी को लग रहा है कि अफगानिस्तान की सरकार छह महीने भी तालिबान का सामना नहीं कर सकेगी। जनरल ऑस्टिन मिलर से लेकर राष्ट्रपति बाइडेन तक कोई भी अमेरिकी नेता अफगान सरकार को लेकर आश्वस्त नहीं है। बाइडेन ने इससे जुड़े सवाल पर कहा था कि “अफगानिस्तान के पास सरकार को बनाए रखने की क्षमता है।” पर सच तो यह है कि अमेरिकी सेना की वापसी से तालिबान का पलड़ा भारी हो गया है। अमेरिकी सेना के लौटते ही उन्होंने हमले तेज कर दिए हैं। विशेषज्ञों के अनुसार तीन परिदृश्य बनते दिख रहे हैं-
- पहला, तालिबान और अफगान सरकार में राजनीतिक समझौता हो जाए। इसमें पावर शेयरिंग फॉर्मूला निकल सकता है। इससे दोनों मिलकर अफगानिस्तान के भविष्य को आकार देंगे।
- दूसरा, गृहयुद्ध हो सकता है। इसके संकेत दिखने लगे हैं। पश्चिमी देशों की आर्थिक मदद और प्रशिक्षित सैनिकों के दम पर अफगानिस्तान सरकार कुछ समय तक तालिबान से लड़ सकती है।
- तीसरा, तालिबान छह महीने में अफगानिस्तान में सत्ता कायम कर लेगा। ऐसी स्थिति बनने की आशंका जताने वालों की संख्या ज्यादा है।