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कोरोना की वजह से घरों में कैद बच्चे:घर बना पेरेंट्स का ऑफिस तो बच्चों का व्यवहार बदला, कैसे उन्हें डिप्रेशन से बचाएं और करें पॉजिटिव, जानिए एक्सपर्ट की सलाह

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दुनियाभर में कोरोना को लेकर चिंता है। बुजुर्ग-बच्चे सभी इस मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं, लेकिन एक और बड़ी समस्या है जिस पर लोगों का ध्यान कम है, लेकिन ये बढ़ती ही जा रही है। बात बच्चों में बढ़ते अवसाद की हो रही है। यह इस हद तक बढ़ गया है कि बच्चे खुदकुशी तक कर रहे हैं।

कंसल्टेंट साइकोलॉजिस्ट डॉ. प्रज्ञा रश्मि कहती हैं कि कोरोना महामारी की वजह से स्कूल बंद, खेलकूद नहीं, दोस्त-साथी नहीं, घूमना-फिरना, आउटिंग, शॉपिंग सब बंद और जिधर देखो तनाव देने वाली बातें, इन सबका असर बच्चों पर बुरी तरह से पड़ रहा है और उनके बर्ताव में बदलाव दिख रहा है। कई बच्चों में इस वजह से डिप्रेशन तेजी से बढ़ रहा है।

हालांकि डॉक्टर प्रज्ञा का ये मानना है कि लॉकडाउन में वर्क फ्रॉम होम कर रहे पेरेंट्स को देखकर बच्चों में कुछ सकारात्मक प्रभाव भी पड़ा है…

डॉक्टर प्रज्ञा कहती हैं कि वर्क फ्रॉम होम कर रहे पेरेंट्स को देखकर बच्चे काफी कुछ सीखते हैं। भले ही पेरेंट्स बच्चों को ज्यादा समय नहीं दे पाते हैं, लेकिन उनके पास रहने से बच्चे सिक्योर महसूस करते हैं। बच्चे इस बात को समझते हैं कि उसके पेरेंट्स ऑफिस में कैसे काम करते हैं, उन पर कितना वर्क प्रेशर होता है।

पेरेंट्स की छोटी-छोटी चीजों को देखकर बच्चे जिम्मेदार बनते हैं
एक केस का जिक्र करते हुए डॉक्टर ने बताया कि एक आठ साल का बच्चा अपनी चार्टर्ड अकाउंटेंट मां को काम करते हुए देखकर कहता है कि मेरी मां को दिन भर कितने सम्स करने पड़ते हैं। वहीं, एक बच्चा जब हर रोज ये नोटिस करता है कि खाना खाते वक्त भी उसके पेरेंट्स को लगातार कॉल या ईमेल का रिस्पॉन्स करना पड़ता है तो वे वर्क प्रेशर को समझने लगता है। कई बार बच्चे पेरेंट्स को काम करता हुआ देखकर अपने छोटे-छोटे काम खुद ही करने की कोशिश करने लगते हैं और जिम्मेदार बनने लगते हैं।

जब पेरेंट्स खुद चिड़चिड़े होते हैं तो बच्चा भी डिप्रेस होने लगता है
डॉक्टर प्रज्ञा कहती हैं कि जब ज्यादा वर्क लोड के कारण पेरेंट्स खुद चिड़चिड़े हो जाते हैं या अपने स्ट्रेस से डील नहीं कर पाते हैं तब बच्चे भी डिप्रेस होने लगते हैं। पेरेंट्स अगर काम के बीच में बार-बार बच्चों को ये कहते हैं कि अभी जाओ यहां से हम बिजी हैं, तो इससे बच्चों को ये लगने लगता है कि पेरेंट्स उन्हें इग्नोर कर रहे हैं। ज्यादातर बच्चों में इग्नोरेंस ही डिप्रेशन का सबसे बड़ा कारण बनता है।

बच्चों को बार-बार शांत रहने के लिए न कहें
डॉक्टर प्रज्ञा कहती हैं कि घरों में कैद बच्चों को पेरेंट्स बार-बार यही कहते हैं कि शांत रहो, हल्ला मत करो। ऐसे में बच्चों में वॉयस प्रेशर हाई रहता है। बच्चे खुलकर अपनी खुशी भी जाहिर नहीं कर पाते हैं और धीरे-धीरे इस तरह शांत रहना उनके व्यवहार में शामिल हो जाता है। इसलिए जब तक बच्चों को घर से बाहर निकलना शुरू नहीं हो जाता, उनकी फिजिकल एक्टिविटी पहले की तरह नहीं हो जातीं, तब तक उनकी इन चीजों पर बार-बार रोक-टोक न करें। बल्कि आप भी उनकी खुशी में उसी तरह शामिल हों जैसे बच्चे अपनी खुशी जाहिर कर रहे हैं।

यह खासतौर पर उन बच्चों के लिए जरूरी है जो इकलौते हैं। जिनका कोई भाई-बहन नहीं। ऐसे बच्चों के साथ पेरेंट्स का इन्वॉल्व रहना बहुत जरूरी होता है।

बच्चों के साथ आशावादी रहें उन्हें बताएं कि महामारी क्या है
कभी-कभी पेरेंट्स बच्चों को बचाने के चक्कर में उन्हें जानकारी से दूर रखते हैं। हम अनुमान लगाते हैं कि बच्चों को यह जानने की जरूरत नहीं है कि इस वक्त क्या चल रहा है। डॉ. प्रज्ञा के मुताबिक यह बहुत बड़ी गलती है। बच्चों को बताएं कि महामारी क्या है, उनका घर में रहना क्यों जरूरी है। अक्सर पेरेंट्स बच्चों को ये तो बताते हैं कि क्या नहीं करना है, लेकिन क्या करना है इस बारे में नहीं बताते हैं। इसलिए उन्हें इस बारे में भी जरूर बताएं।

टीनएजर्स में डिप्रेशन का सबसे ज्यादा खतरा
महामारी से सबसे ज्यादा टीनएजर्स इफेक्ट हुए हैं। बोर्ड एग्जाम, बंद स्कूल कॉलेज, दोस्तों से न मिल पाना, करियर की चिंता इन सबकी वजह से उनमें एंग्जायटी बढ़ी हुई है। डॉक्टर प्रज्ञा कहती हैं टीनएजर्स में डिप्रेशन के सबसे ज्यादा मामले सामने आ रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि पेरेंट्स बच्चों पर ध्यान दें।

टीनएजर्स की उलझन को सुलझन में बदलें पेरेंट्स
डॉक्टर प्रज्ञा कहती हैं कि टीनएजर्स को डिप्रेशन से बचाने के लिए जरूरी है कि पेरेंट्स उनसे बात करें और उनकी उलझन को सुलझन में बदलें। बच्चों से उनकी पढ़ाई और उनके करियर के बारे में बात करें, उन्हें ऑप्शन बताएं कि ये नहीं हो सका तो वो उससे बेहतर भी कुछ कर सकते हैं। उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है।

इकलौते बच्चे का ख्याल ऐसे रखें

  • याद रखें कि बच्चों का दुखी होना सामान्य है और बच्चों को उनके एहसासों से बचाना पेरेंट्स की जिम्मेदारी है। डॉ. प्रज्ञा के मुताबिक, आप बच्चों के बुरे एहसासों को मैनेज कर उनकी मदद कर सकते हैं, न कि उन्हें नकारने से।
  • डॉक्टर प्रज्ञा बताती हैं कि माता-पिता खुद को बच्चों का रक्षक समझते हैं, खासतौर पर जो बच्चे इकलौते होते हैं लेकिन यह तरीका बच्चों को और कमजोर बनाता है। हमें बच्चों को अपने एहसासों को मानकर और निराशाओं से जीतकर जीना सिखाना चाहिए।

बड़े भाई या बहन को छोटे भाई बहन का ध्यान रखने, उनका दोस्त बनने के लिए प्रेरित करें
डॉक्टर प्रज्ञा कहती हैं आजकल बच्चे अपने दोस्तों से दूर हैं, ऐसे में अगर घर पर उन्हें उनका दोस्त मिल जाए तो उनकी मेंटल हेल्थ अच्छी रहेगी। बड़े भाई या बहन अगर छोटे भाई-बहन के साथ खेलेंगे या उनके दोस्त बनेंगे तो इससे उनके बीच की बॉन्डिंग आगे चलकर भी काफी मजबूत रहेगी। वो हमेशा एक दूसरे के बारे सोचेंगे और एक दूसरे का ख्याल रखने की कोशिश करेंगे।

रोज की आदतों में फिजिकल एक्टिविटी को शामिल करें

  • रूटीन बेहद जरूरी है, क्योंकि इससे बच्चों को अच्छा महसूस होता है। डॉक्टर प्रज्ञा के अनुसार, रूटीन बनाने से जीवन में निश्चितता आएगी। इससे आगे के बारे में सोचने में भी मदद मिलेगी। इसलिए रोज की आदतों में फिजिकल एक्टिविटी को जरूर शामिल करें।
  • बच्चों को चलाते रहें। फिजिकल एक्टिविटी डिप्रेशन को खत्म करने और इससे बचने में मदद करती है। बच्चों के साथ थोड़ा घूमने बाहर जाएं।

डिप्रेशन के लक्षण देखें तो एक्सपर्ट्स की मदद लें

  • डॉक्टर प्रज्ञा के अनुसार जब बच्चे क्लीनिकली डिप्रेस्ड होते हैं, तो वे चीजों में दिलचस्पी खोने लगते हैं। किसी भी एक्टिविटी का मजा नहीं ले पाने पर आप यह भरोसे के साथ कह सकते हैं कि यह बच्चे के लिए अबनॉर्मल है। यह सबसे आम लक्षण होता है।
  • इसके अलावा दूसरे भी लक्षण होते हैं, जैसे बच्चा पहले से ज्यादा या कम खाने और सोने लगे। इसके साथ ही वे थोड़े शांत और चिड़चिड़े हो जाते हैं। अगर ऐसा कुछ दो हफ्तों से ज्यादा रहता है या रोज हो रहा है, तो यह चिंता की बात है। आप पीडियाट्रीशियन की सलाह ले सकते हैं। नजदीक के लोकल मेंटल हेल्थ क्लीनिक, हॉस्पिटल की मदद भी ले सकते हैं। साथ ही चाइल्ड लाइन 1022 में भी कॉल कर सकते हैं।

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