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12 साल की उम्र में बिना बताए मुंबई भाग आए, फुटपाथ पर रहे और फिर खड़ी की 40 करोड़ की कंपनी

दुर्गाराम के माता-पिता किसानी करते थे, लेकिन दुर्गाराम ने सोच रखा था कि कुछ करना है। राजस्थान के दुर्गाराम चौधरी 150 रुपए लेकर घर से निकले थे प्रसाद से पेट भरा, शादी में वेटर बने, आज कंपनी में 65 एम्प्लाई

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राजस्थान के दुर्गाराम चौधरी महज 12 साल की उम्र में घर में किसी को बिना बताए ट्रेन में बैठ गए थे। कहां जाना है, क्या करना है, कहां रहना है, ये कुछ नहीं जानते थे। बस मन में यही था कि कुछ करना है। 150 रुपए लेकर घर से निकले थे। आज दो कंपनियों के मालिक हैं, जिनका टर्नओवर 40 करोड़ रुपए से ज्यादा है। उन्होंने खुद बताई शून्य से 40 करोड़ रुपए तक के टर्नओवर तक पहुंचने की कहानी।

6-7 महीने तो फुटपाथ पर ही गुजरे

मेरे मां-बाप दोनों ही किसानी करते थे। बचपन में ही सोच लिया था कि कुछ करना है। राजस्थान से अधिकतर लोग बिजनेस के लिए साउथ जाया करते थे। उन लोगों को देखकर एक दिन घर में बिना किसी को बताए मैं भी अहमदाबाद जा रही ट्रेन में बैठ गया। जेब में 150 रुपए थे। ट्रेन में ही कुछ लोग मुंबई जाने की बात कर रहे थे, उनकी बात सुनकर मैं भी मुंबई चला गया। 40 रुपए किराये में चले गए, जब मुंबई पहुंचा तब 110 रुपए पास में थे।

कभी फुटपाथ पर रहने वाले दुर्गाराम आज दो कंपनियों के मालिक हैं। जब 21 साल के थे, तब उन्हें काम का करीब 10 साल का अनुभव हो चुका था।
कभी फुटपाथ पर रहने वाले दुर्गाराम आज दो कंपनियों के मालिक हैं। जब 21 साल के थे, तब उन्हें काम का करीब 10 साल का अनुभव हो चुका था।

वो बताते हैं- मुंबई में शुरूआती 6-7 महीने फुटपाथ पर ही निकले। सीपी टैंक में एक मंदिर था, वहां जो प्रसाद बंटता था, उसी से मैं पेट भरता था। मंदिर के नजदीक आर्य समाज का हॉल था, जहां शादियां होती थीं। वहां वेटर का काम शुरू कर दिया। एक शादी में काम करने के 15 रुपए मिलते थे। कई दिनों तक ये सिलसिला चलते रहा। आर्य समाज हॉल के पास ही एक दुकानदार थे। उन्होंने मेरी छोटी उम्र देखकर मुझे एक घर में हाउस बॉय का काम दिलवा दिया। ढाई साल वहां काम किया। खाना बनाना और घर संभालना सीख गया। फिर वहीं से एक डॉक्टर के घर यही काम करने लगा।

“मन में हमेशा चलता था कि गांव में सबको पता चलेगा कि मुंबई आकर खाना बनाता हूं तो कोई इज्जत नहीं करेगा इसलिए खाना तो नहीं बनाना है। खाना बनाना छोड़कर एक इलेक्ट्रिशियन की दुकान पर काम करने लगा। मकसद था काम सीखना। लेकिन दो महीने बाद वो दुकान बंद हो गई। जिस बिल्डिंग में वो दुकान थीं, वहां उस समय वीनस कंपनी के मालिक गणेश जैन रहा करते थे। वो राजस्थान से ही थे। मैडम से थोड़ी जान-पहचान हो गई थी तो उन्होंने अपने घर पर काम पर रख लिया। फिर वहां खाना बनाने लगा। एक दिन उन्हें मैंने कहा कि सर मैं ये खाना बनाने का काम नहीं करना चाहता। मैं कुछ सीखना चाहता हूं। तो उन्होंने मुझे अपनी कंपनी में कैसेट पैकिंग का काम दे दिया और कहा कि वहां मेरे लिए खाना भी बनाना और काम भी सीखना। डेढ़ साल तक वहीं काम करते रहा। कुछ पैसे जोड़ लिए थे तो नया काम ढूंढ़ने का सोचकर 1996 में वो काम छोड़ दिया।”

टी-सीरीज में सीखा कैसेट का मार्केट

दुर्गाराम ने बताया- वीनस में काम करने वाली एक मैडम टी-सीरीज में काम करने लगीं थीं। उनके रेफरेंस से मुझे भी टी-सीरीज में काम मिल गया। वहां मुझे कैसेट का मार्केट पता चला। काम कैसे होता है, ये देखा। नौकरी करते हुए ही ख्याल आया कि जॉब के साथ ही मैं खुद भी मार्केट से कैसेट खरीदकर बाहर बेच सकता हूं। मैंने नौकरी के बाद वाले टाइम में कैसेट बेचना शुरू कर दीं। हर रोज मार्केट जाता। 10-12 कैसेट खरीदता और उन्हें फुटपाथ किनारे बेचा करता था। ये नौकरी के साथ चल रहा था। एक कैसेट पर दस से पंद्रह रुपए तक का कमीशन मिल जाता था।

बहुत से अवॉर्ड भी उन्हें मिल चुके हैं। कहते हैं, टाइम के साथ हम अपनी स्ट्रेटजी लगातार बदल रहे हैं।
बहुत से अवॉर्ड भी उन्हें मिल चुके हैं। कहते हैं, टाइम के साथ हम अपनी स्ट्रेटजी लगातार बदल रहे हैं।

उन्होंने कहा, “इस तरह रोज के डेढ़-दो सौ रुपए सैलरी के अलावा मिलने लगे। कुछ महीने बाद एक छोटी सी दुकान भी किराये पर ले ली। फिर वहां से कैसेट बेचने लगा। घर से निकलने के 9 साल बाद 2000 में घरवालों से बात हुई और उन्हें बताया कि मैं मुंबई में हूं और नौकरी कर रहा हूं। 2002 में मैंने टी-सीरीज छोड़ दी, क्योंकि उसी समय रिलायंस कम्युनिकेशन शुरू हो रहा था। उन्हें ऐसे बंदे चाहिए थे, जो इंडस्ट्री की समझ रखते हों, प्रोड्यूसर के साथ कोआर्डिनेट कर सकें। टी-सीरीज में काम करते-करते मेरे काफी प्रोड्यूसर, एक्टर-एक्ट्रेस से रिलेशन बन गए थे। सभी के ऑफिस में जाना होता था। इसलिए मुझे रिलायंस में काम मिल गया। रिलायंस की नौकरी के साथ ही 2004 तक मेरी दो कैसेट की दुकानें हो चुकी थीं।”

“2005 में रिंगटोन और कॉलर ट्यून का ट्रेंड आया। एक गाना लाखों में डाउनलोड होता था, लेकिन सभी गाने बॉलीवुड के होते थे। मैं गुजराती, राजस्थानी, भोजपुरी गानों की कैसेट सालों से बेच रहा था और मैंने देखा कि इनकी कैसेट बॉलीवुड के गानों से भी ज्यादा बिकती हैं। दिमाग में आया कि जब बॉलीवुड के गाने इतने ज्यादा डाउनलोड हो रहे हैं तो रीजनल के कितने होंगे। जिन लोगों से कैसेट लेता था, उन्हें बोलना शुरू किया कि आप मुझे गाने दो, मैं इन्हें डिजीटल में कन्वर्ट करवाऊंगा। ये गाने फोन पर प्ले होंगे। कई दिनों तक किसी ने रिस्पॉन्स नहीं दिया।”

कंपनी को ढूंढ़ते हुए मेहसाणा तक पहुंच गए

वो बताते हैं कि 2006 में एक गुजराती गाना आया, जो काफी हिट हो रहा था। मैं उसे तैयार करने वाली कंपनी को ढूंढ़ते हुए मेहसाणा तक पहुंच गया। उन्हें समझाया कि इस गाने के राइट्स आप मुझे दो। हम इसे डिजिटल में ले जाएंगे। फायदा हो या न हो, लेकिन नुकसान कुछ नहीं होगा। वो तैयार हो गए। अब दिक्कत ये थी कि मैं नौकरी कर रहा था, इसलिए उनसे एग्रीमेंट नहीं कर सकता था। मैंने हंगामा कंपनी में बात की। वहां मेरे कुछ दोस्त थे। उनके जरिए गुजरात की कंपनी से एग्रीमेंट किया। वो लोग भी रीजनल गाना अपलोड करने के लिए तैयार नहीं थे, मेरी काफी रिक्वेस्ट के बाद माने। डेढ़ साल में ही उस गाने को 3 लाख 75 हजार बार डाउनलोड किया गया। इस डील में मैंने 20 लाख रुपए रॉयल्टी कमाई। 20 लाख रुपए गुजरात की कंपनी को दिलवाए और 30 परसेंट कमीशन हंगामा कंपनी को मिला।”

दुर्गाराम की कंपनी में आज 65 लोग काम करते हैं। 2012 में उन्होंने खुद की कंपनी शुरू की थी।
दुर्गाराम की कंपनी में आज 65 लोग काम करते हैं। 2012 में उन्होंने खुद की कंपनी शुरू की थी।

दुर्गाराम कहते हैं- बस इसके बाद हंगामा ने मेरा सारा कंटेंट अपलोड करना शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे नौकरी भी ऑफर कर दी। मैंने कहा कि नौकरी इसी शर्त पर करूंगा कि राजस्थान, गुजरात का जो मेरा काम है, वो मेरे पास ही रहेगा। वो मान गए। जो भी गाना हिट होता था, मैं उस कंपनी तक पहुंचता था। उससे बात करके गाने को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लाता था। ये सब करते-करते 2012 आ गया। यूट्यूब का जमाना आ चुका था। हंगामा वाले यूट्यूब पर जाने के लिए बहुत उत्साहित नहीं थे तो मैंने नौकरी छोड़ दी और खुद की कंपनी शुरू की।

“फिर जीरो से शुरूआत करना पड़ी, क्योंकि रीजनल के मेरे जितने भी पार्टनर थे, उन सभी को हंगामा के साथ जोड़ चुका था। फिर उन कंपनी के मालिकों से मिला। उन्हें समझाया कि मैंने अपनी कंपनी शुरू की है। आप अपना कंटेंट दीजिए, हम यूट्यूब पर लाएंगे। सभी ने मुझे सपोर्ट किया। रीजनल कंटेंट तेजी से हम यूट्यूब पर लाए। राजस्थान की कई छोटी कंपनियों को हमने एक्वायर कर लिया। कोलकाता, असम, उड़ीसा भी पहुंचे। वहां के रीजनल गानों को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लाए। 2017 में एनिमेशन फर्म भी इस काम के साथ शुरू कर दी। आज मेरे पास 65 एम्पलाई हैं और दोनों कंपनियों का मिलाकर टर्नओवर 40 करोड़ से ज्यादा है।”

3 दोस्तों ने लाखों की नौकरी छोड़ जीरो इन्वेस्टमेंट से शुरू की ट्रेकिंग कंपनी, एक करोड़ टर्नओवर

  • एक इवेंस्टमेंट बैंकर, दूसरा आईआईटी ग्रेजुएट और तीसरा मांउटेनर, तीनों अपनी नौकरी छोड़ एक कंपनी में ट्रेक लीडर बनने आए
  • ओशांक कहते हैं- सर्विस सेक्टर में पहले पैसे आते हैं फिर हम सर्विस प्रोवाइड करते हैं, इसलिए हमारी कंपनी जीरो इन्वेस्टमेंट से शुरू हुई

ओशांक, हर्षित और मोहित… आज की कहानी इन तीन दोस्तों की, जो अपनी-अपनी कमाऊ नौकरी से बोर हो चुके थे और लाइफ में कुछ अलग करना चाहते थे। 2014 से पहले ये तीनों एक-दूसरे को जानते तक नहीं थे। बस तीनाें में कॉमन ये था कि जब भी ये अपने काम से ऊब जाते तो सब छोड़कर कुछ दिनों के लिए ट्रेकिंग पर निकल जाते थे।

फिर रिफ्रेश होकर अपने रुटीन में वापस लौट आते थे। ट्रेकिंग के इसी पैशन के चलते 2017 में ये तीनों मिले, फिर इनमें दोस्ती हुई और तीनों ने मिलकर एक स्टार्टअप ‘ट्रेकमंक’ की शुरुआत की। पिछले फाइनेंशियल ईयर में इनकी कंपनी का टर्नओवर 1 करोड़ तक पहुंच गया।

जब हमने इन दोस्तों से बात की तो उस वक्त हर्षित और मोहित ग्रुप्स के साथ ट्रेक पर थे और अपने दिल्ली बेस्ड ऑफिस से मैनेजमेंट संभाल रहे थे। इस बातचीत में ओशांक ने ट्रेकमंक के शुरू हाेने की पूरी जर्नी हमसे शेयर की।

तीन दोस्त; एक इनवेस्टमेंट बैंकर, दूसरा आईआईटी ग्रेजुएट और तीसरा मांउटेनर

32 साल के ओशांक पेशे से इनवेस्टमेंट बैंकर थे। 2014 में काम के दबाव से थककर अपना बैग पैक किया और कोलकाता निकल गए। 28 साल के मोहित आईआईटी खड़गपुर से इंजीनियरिंग ग्रेजुएट हैं, लेकिन उन्हें हमेशा यही लगता था कि जो वो करना चाहते हैं, वो नहीं कर पा रहे हैं। यही वजह थी कि उन्होंने छह महीने के अंदर तीन नौकरियां बदलीं।

ओशांक, हर्षित और मोहित तीनों ने मिलकर 2016 में ट्रेकमंक की शुरुआत की।
ओशांक, हर्षित और मोहित तीनों ने मिलकर 2016 में ट्रेकमंक की शुरुआत की।

28 साल के हर्षित ने 19 की उम्र में ही अकेले घूमना शुरू कर दिया था, केरल में एक बाइक एक्सीडेंट में उनके पांव की दो हड्डियां टूट गईं थीं। साल भर बाद डॉक्टर्स ने कहा कि वो कभी भी पहले की तरह नहीं चल पाएंगे लेकिन हर्षित ने अपनी इच्छा शक्ति के सामने डॉक्टर्स की बात को गलत साबित किया और लद्दाख में स्टोक कांगड़ी पर अकेले ट्रेक किया।

ऋषिकेश में एक नौकरी इंटरव्यू में तीनों की मुलाकात हुई

2015 में ये तीनों ऋषिकेश बेस्ड एक ट्रेवल ऑर्गेनाइजेशन में ट्रेक लीडर की नौकरी के लिए इंटरव्यू देने आए थे, इसी दौरान ये एक-दूसरे से मिले। नौकरी के दौरान तीनों ने नोटिस किया कि इस कंपनी में काफी कमियां हैं जिसे वो ठीक कर सकते हैं। इस बारे में उन्होंने हायर अथॉरिटी से भी बात की, लेकिन उन्होंने उनकी बातों को नजरअंदाज कर दिया।

ओशांक बताते हैं कि ‘जब हर्षित और मैंने नौकरी को छोड़ने का फैसला किया उस वक्त मोहित कंपनी में ही था। हम उस कंपनी के वर्क कल्चर से खुश नहीं थे इसलिए हमने अपनी बाइक उठाई और वलसाड से कन्याकुमारी की ओर हर्षित के होमटाउन की ओर निकल गए।’

2015 में ये तीनों ऋषिकेश बेस्ड एक ट्रेवल ऑर्गेनाइजेशन में ट्रेक लीडर की नौकरी के लिए इंटरव्यू देने आए थे, इसी दौरान ये एक-दूसरे से मिले।
2015 में ये तीनों ऋषिकेश बेस्ड एक ट्रेवल ऑर्गेनाइजेशन में ट्रेक लीडर की नौकरी के लिए इंटरव्यू देने आए थे, इसी दौरान ये एक-दूसरे से मिले।

इस एक महीने की यात्रा के दौरान दोनों ने अपने पैशन को पूरा करते हुए पैसे कमाने का प्लान बनाया। इसी बीच में उन्हें ‘ट्रेकमंक’ का आइडिया आया। इस जर्नी के दौरान वो काफी लोगों से मिले और लोगों को बताना शुरू किया कि जल्द ही वो एक ट्रेकिंग कंपनी शुरू करने जा रहे हैं। जो सभी तरह के ग्रुप्स के लिए ऑफबीट ट्रेक ऑर्गनाइज करेगी। नवंबर 2016 में दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने अपने स्टार्टअप को रजिस्टर्ड कराया। इसके बाद मोहित भी ऋषिकेश बेस्ड टूर एजेंसी की नौकरी छोड़कर इसमें शामिल हो गए।

हमारा ट्रेकमंक में जीरो इंवेस्टमेंट था

ओशांक बताते हैं कि शुरुआत में हमारे पास कुछ नहीं आ रहा था। हम फ्री ऑफ कॉस्ट काम कर रहे थे। हम बस री-इनवेस्ट करते जा रहे थे। ट्रेकमंक को शुरू करने में हमारा जीरो इंवेस्टमेंट था।’ हम पहला ग्रुप 6 जनवरी 2017 को चादर ट्रेक पर लेकर गए थे। इसमें फर्स्ट बैच में 6 लोग थे, सेकंड बैच में 9 और थर्ड बैच में 10 लोग थे। हमने एक ट्रेक से शुरुआत की और आज हम 100 से ज्यादा ऑफबीट ट्रेक कराते हैं।’

ओशांक कहते हैं कि ‘सर्विस सेक्टर में हमेशा प्रॉफिट मार्जिन रहता है। हमारे ट्रेक पैकेज में करीब 30 प्रतिशत का मार्जिन रहता है और यह पैसा हमारी जेब में ही आता है। हम इन पैसों से इक्यूपमेंट, टैंट्स आदि खरीद लेते थे, आगे के बैचेस की तैयारियों में ये पैसा इंवेस्ट कर लेते थे। किसी भी ट्रेक में हमें कभी घाटा नहीं हुआ, बस हम हमेशा अपने प्रॉफिट को बिजनेस में लगाते रहे।’ वो कहते हैं कि ‘कोविड के बाद सितंबर से हमने दोबारा ट्रेकिंग शुरू की है लेकिन अब काफी कुछ बदल गया है। पहले हम 16 लोगों का बैच लेकर जाते थे, अब सिर्फ 10 लोगों का बैच ही ले जाते हैं।

3500 रुपए से शुरू हुआ काम 2 करोड़ तक पहुंच गया, पूंजी नहीं थी इसलिए ऐसा काम चुना जिसमें कोई लागत नहीं हो

यूपी के कानपुर की रहने वाली प्रेरणा वर्मा लेदर ट्रेंडिंग का काम करती हैं। इन्होंने अपनी कंपनी भी बनाई है। दुनिया के 25 से ज्यादा देशों में प्रोडक्ट सप्लाई करती हैं।
  • 10वीं क्लास से ही जॉब करने लगी थीं, जब बिजनेस शुरू करने का सोचा, तब सिर्फ 3500 रुपए पास में थे
  • घर के कमरे से शुरू किया था ट्रेडिंग का काम, अब 25 से ज्यादा देशों में करती हैं बिजनेस

कानपुर की प्रेरणा वर्मा ने जब 10वीं पास भी नहीं की थी, तभी उन्हें जॉब शुरू करना पड़ा क्योंकि घर के हालात बहुत अच्छे नहीं थे। मां ने अकेले बेटी और बेटे की परवरिश की थी। प्रेरणा बड़ी थीं, तो उन्होंने घर की जिम्मेदारी समझी और एक इंपोर्टर की कंपनी में कम्प्यूटर ऑपरेटर की नौकरी शुरू की। प्रेरणा को हर महीने 1,200 रुपए सैलरी मिलती थी।

नौकरी के साथ- साथ पढ़ाई भी चल रही थी। सुबह 6 से 10 क्लास अटैंड करती थीं। सुबह 10 से शाम के 6 बजे तक जॉब करती थीं। इसके बाद शाम साढ़े सात बजे तक ट्यूशन लेती थीं और फिर घर आकर खुद पढ़ती थीं और अगले दिन की तैयारी करती थीं। सायबर कैफे भी जाया करती थीं और सर्च करती थीं कि करियर में कहां और क्या किया जा सकता है।

घर के हालात ठीक नहीं थे, इसलिए प्रेरणा कम उम्र से ही जॉब करने लगी थीं। इस दौरान वो अपनी पढ़ाई भी करती थीं।
घर के हालात ठीक नहीं थे, इसलिए प्रेरणा कम उम्र से ही जॉब करने लगी थीं। इस दौरान वो अपनी पढ़ाई भी करती थीं।

एक दिन कैफे में ही लेदर प्रोडक्ट्स का बिजनेस करने वाला मिला और उसने प्रेरणा को लेदर प्रोडक्ट्स की मार्केटिंग करने का ऑफर दिया। बात ये हुई थी कि धंधा अच्छा सेट हुआ तो पार्टनरशिप में आ जाएंगे। लेकिन प्रेरणा को न लेदर प्रोडक्ट्स के बारे में कुछ पता था और न ही उन्हें मार्केटिंग करनी आती थी। इसके बावजूद उन्होंने मार्केटिंग करना शुरू कर दिया।

कहती हैं, मेरा काम लोगों को प्रोडक्ट खरीदने के लिए राजी करना था। एक महीने में ही मैंने कई ग्राहकों को जोड़ लिया। मैं ऑर्डर जनरेट करने लगी तो मेरे पार्टनर को शायद अच्छा नहीं लगा और उसका बिहेवियर बदलने लगा तो मैंने फिर उसका काम छोड़ दिया।

2010 में प्रेरणा को यूपी सरकार ने आउटस्टैंडिंग परफॉर्मेंस के लिए अवॉर्ड दिया। वो कई कॉलेजों और सेमिनार में बतौर स्पीकर और एक्सपर्ट स्पीच देने जाती हैं।
2010 में प्रेरणा को यूपी सरकार ने आउटस्टैंडिंग परफॉर्मेंस के लिए अवॉर्ड दिया। वो कई कॉलेजों और सेमिनार में बतौर स्पीकर और एक्सपर्ट स्पीच देने जाती हैं।

इसके बाद मेरे पास कोई काम नहीं था। पैसे भी नहीं थे। सब मिलाकर साढ़े तीन हजार रुपए की सेविंग की थी। डेढ़ महीने लेदर प्रोडक्ट्स की मार्केटिंग करके ये समझ आ गया था कि मैं ग्राहक तो जोड़ सकती हूं। इसलिए सोचा कि कुछ ऐसा काम किया जाए, जिसमें शुरू में पूंजी न लगाना पड़े और अपना काम भी शुरू हो जाए।

तो लेदर प्रोडक्ट्स की ट्रेडिंग शुरू करने का आइडिया आया। लेकिन ऑफिस खोलने के लिए पैसे नहीं थे। इसलिए घर के ही एक कमरे को ऑफिस बना लिया। घर की पुरानी टेबल रखी। कम्प्यूटर रखा और ट्रेडिंग शुरू कर दी।

प्रेरणा की कंपनी आज 25 से ज्यादा देशों में फैशन, फुटवियर, लेदर गुड्स, हैंडीक्रॉफ्ट में डील करती हैं। 3500 रुपए से शुरू हुआ सफर 2 करोड़ रुपए के टर्नओवर तक पहुंच चुका है।
प्रेरणा की कंपनी आज 25 से ज्यादा देशों में फैशन, फुटवियर, लेदर गुड्स, हैंडीक्रॉफ्ट में डील करती हैं। 3500 रुपए से शुरू हुआ सफर 2 करोड़ रुपए के टर्नओवर तक पहुंच चुका है।

प्रेरणा कहती हैं, मैं लेदर प्रोडक्ट्स की ट्रेडिंग किया करती थी। जिसको जो जरूरत होती थी, उस तक वो सामान पहुंचाती थी। मार्केट भी घूमती थी। लोगों को ऑनलाइन भी जोड़ रही थी। शुरू के सालों में जितना खर्चा होता था, उतना ही पैसा भी आता था। कोई प्रॉफिट नहीं था लेकिन मैं इंडस्ट्री को समझ रही थी। थोड़े क्लाइंट जुड़े तो फिर मैने घर से निकलकर दो कमरों का ऑफिस बना लिया और वहां से ट्रेडिंग करने लगी।

धीरे-धीरे मेरी सोर्सिंग होने लगी थी। क्लाइंट बनने लगे थे। मैं पांच साल ट्रेडिंग करते रही। लेदर इंडस्ट्री मेल डॉमिनेट होती है। यहां के मार्केट में घूमना और लोगों से बात करना भी किसी चुनौती से कम नहीं था लेकिन मेरा फोकस क्लियर था। मुझे सिर्फ अपने काम से मतलब था इसलिए बिना सोचे में लगी रहती थी।

प्रेरणा ने बताया कि 3500 सौ रुपए से 2010 में ही मैंने खुद की फैक्ट्री शुरू की। कम पैसे की वजह से घर के कमरे को ही ऑफिस बना लिया। बाद में कई अवॉर्ड्स भी मिले।
प्रेरणा ने बताया कि 3500 सौ रुपए से 2010 में ही मैंने खुद की फैक्ट्री शुरू की। कम पैसे की वजह से घर के कमरे को ही ऑफिस बना लिया। बाद में कई अवॉर्ड्स भी मिले।

डोमेस्टिक मार्केट का अच्छा नॉलेज होने के बाद मैंने 2007 में पहली बार सामान बाहर भेजा। मुझे एक रिफरेंस से इंग्लैंड का ऑर्डर मिला था। वहां कुछ लेदर प्रोडक्ट्स पहुंचाने थे। मैंने टाइम पर वो प्रोजेक्ट पूरा किया। बस यहीं से मेरे बिजनेस को ग्रोथ मिलना शुरू हुई। मैं विदेशों में एक्सपोर्ट करने लगी। कभी रिस्क लेने से डरी नहीं।

यदि पता चलता था कि कहीं थोड़ी रिस्क है, लेकिन फायदा भी है तो मैं रिस्क ले लेती थी। 2010 में मुझे यूपी सरकार ने आउटस्टैंडिंग परफॉर्मेंस के लिए अवॉर्ड दिया। यह मेरे लिए किसी सपने की तरह था। इस अवॉर्ड से मेरा कॉन्फिडेंस बहुत तेजी से बढ़ा और मेरा अपने बिजनेस पर फोकस और ज्यादा हो गया।

प्रेरणा ने बताया कि शुरुआती एक महीने में ही मैंने कई ग्राहकों को जोड़ा। डोमेस्टिक मार्केट का अच्छा नॉलेज होने के बाद मैंने 2007 में पहली बार सामान बाहर भेजा।
प्रेरणा ने बताया कि शुरुआती एक महीने में ही मैंने कई ग्राहकों को जोड़ा। डोमेस्टिक मार्केट का अच्छा नॉलेज होने के बाद मैंने 2007 में पहली बार सामान बाहर भेजा।

2010 में ही मैंने खुद की फैक्ट्री शुरू की। हालांकि तब भी मुझे बैंक से लोन नहीं मिल पाया था क्योंकि उन्हें कुछ गिरवी रखना था, जो मेरे पास था नहीं। फिर मैंने जितना कैपिटल इकट्ठा किया था वो पूरा फैक्ट्री में लगा दिया और लेदर प्रोडक्ट्स का उत्पादन शुरू कर दिया। आज 25 से ज्यादा देशों में फैशन, फुटवियर, लेदर गुड्स, हैंडीक्रॉफ्ट में मेरी कंपनी डील करती हूं। 3500 रुपए से शुरू हुआ सफर 2 करोड़ रुपए के टर्नओवर तक पहुंच चुका है।

मैंने न एमबीए किया, न लेदर मार्केटिंग की कोई ट्रेनिंग ली। मेरा तो आर्ट्स में ग्रेजुएशन और इकोनॉमिक्स में पीजी हुआ है। पढ़ाई भी हिंदी मीडियम में हुई। लेकिन मुझे सिर्फ अपना कुछ करना था, इसलिए मैं ये सब कर पाई और मेहनत के साथ सक्सेस मिलती चली गई। अब एमबीए, बीटेक के स्टूडेंट्स को मोटिवेट करने के लिए मुझे बुलाया जाता था। एक्सपर्ट पर लेक्चर देने जाती हूं। यही सब मेरी उपलब्धि है।

79 साल की उम्र में शुरू किया चाय मसाले का बिजनेस, रोज मिल रहे 800 ऑर्डर, वॉट्सऐप ग्रुप से की थी शुरुआत

78 साल की उम्र है, लेकिन मसालों की मिक्सिंग खुद ही करती हैं। कहती हैं कि कुछ भी कम ज्यादा हो गया तो पूरा टेस्ट ही बदल जाता है।
  • मुंबई के सांताक्रूज वेस्ट में रहने वाली 79 साल की कोकिला पारेख गुजराती फैमिली से हैं
  • कोकिला सालों से चाय मसाला घर में तैयार करती रही हैं, लॉकडाउन में बेटे-बहू ने बिजनेस प्लान किया

79 साल की हैं कोकिला पारेख। मुंबई के सांताक्रूज वेस्ट में रहती हैं। सालों से घर आए मेहमानों को अपनी स्पेशल मसाला चाय पिलाती रही हैं। जो चाय पीता था, वही पूछता था कि आखिर इसमें डाला क्या है। लॉकडाउन में बेटा, बहू घर पर ही थे तो प्लान किया कि क्यों न मां के हाथों का टेस्ट पूरी दुनिया तक पहुंचाया जाए।

इस तरह घर से ही शुरू हो गया चाय मसाला बेचने का बिजनेस। महीनेभर के अंदर ही दिनभर में 700 से 800 ऑर्डर मिलने लगे। पढ़ें कोकिला पारेख की सक्सेस की कहानी…

रिलेटिव, फ्रेंड्स को फ्री में देती थीं
कोकिला बताती हैं कि मैं अहमदाबाद की रहने वाली हूं, शादी के बाद मुंबई में बस गई। गुजराती फैमिली में चाय में मसाला डाला ही जाता है। हमारे घर तो पीढ़ियों से चाय मसाला बनते आ रहा है। मुंबई आने के बाद मैं यहां भी मसाला बनाया करती थी। हम बहुत से रिलेटिव, फैमिली फ्रेंड्स को यूं ही मसाला दिया भी करते थे। कुछ लोग तो खास तौर पर मसाला लेने ही आते थे।

कोकिला पारेख सालों से चाय मसाला बनाती आ रही हैं, लेकिन पहले उन्होंने कभी इसे कमर्शियल तौर पर लॉन्च करने का नहीं सोचा था।
कोकिला पारेख सालों से चाय मसाला बनाती आ रही हैं, लेकिन पहले उन्होंने कभी इसे कमर्शियल तौर पर लॉन्च करने का नहीं सोचा था।

वो कहती हैं- लॉकडाउन में बेटे तुषार का काम घर से ही चल रहा था। एक दिन बातों-बातों में ही ये बात निकली कि क्यों न इस चाय मसाले को कमर्शियल किया जाए। बेटे और बहू प्रीति ने पैकेजिंग, डिजाइनिंग और वेंडर तक मसाला पहुंचाने की जिम्मेदारी ली। मुझे सिर्फ अच्छा मसाला तैयार करवाना था। हमने सोचा कोशिश करने में क्या बुराई है।

वॉट्सऐप ग्रुप पर पोस्ट किया
हमने सितंबर में ये सब प्लान किया और अक्टूबर के पहले वीक में ज्यादा क्वांटिटी में मसाला तैयार किया। बहू और बेटे ने वॉट्सऐप ग्रुप में मसाले के बारे में पोस्ट किया। जो लोग पहले से ले जाते रहे हैं, उन्हें भी बताया कि हमने कमर्शियल प्रोडक्शन शुरू किया है, आप चाहें तो ऑर्डर कर सकते हैं।

पोस्ट करते ही हमें अच्छा रिस्पॉन्स मिला। सितंबर के आखिर तक हर रोज 250 ऑर्डर तक पहुंच चुके थे। न कहीं प्रमोशन किया, न विज्ञापन दिया। बस वॉट्सऐप ग्रुप और फैमिली फ्रेंड्स तक मैसेज फॉरवर्ड किया था।

कोकिला कहती हैं, मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि मेरे मसाले का टेस्ट अब कई लोगों तक पहुंच रहा है।
कोकिला कहती हैं, मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि मेरे मसाले का टेस्ट अब कई लोगों तक पहुंच रहा है।

वो बताती हैं, “माउथ पब्लिसिटी से ही मुंबई के साथ ही गुड़गांव, दिल्ली, अहमदाबाद से भी ऑर्डर मिलने लगे। जब ऑर्डर बढ़े तो एक हेल्पर रख लिया, लेकिन मसाले की मिक्सिंग का काम अब भी मैं ही करती हूं। प्रोडक्शन का पूरा काम बहु ने अपने हाथों में ले लिया और बेटा ऑर्डर से जुड़े काम देखने लगा। अब दिन के 700 से 800 ऑर्डर मिल रहे हैं। हम कुरियर के जरिए सीधे घर तक मसाला पहुंचा रहे हैं। इस मसाले से टेस्ट तो बढ़ता ही है, साथ ही यह इम्यूनिटी और डाइजेशन को भी इम्प्रूव करता है।”

पैकेजिंग और लोगो पर काम किया

बहू प्रीति बताती हैं- मां को जब हमने बोला कि मसाला कमर्शियल लॉन्च करना है तो वो बहुत खुश हो गईं। वो इस बात से खुश थीं कि उनका मसाला देशभर में जाएगा। कमर्शियल लॉन्चिंग के पहले हमने पैकेजिंग और लोगो पर काफी काम किया। पैकिंग के लिए एयरटाइट पैकेट चुना, ताकि मसाला खराब न हो और महक न जाए।

उन्होंने बताया- शुरुआत में रेग्युलर मिक्सर ग्राइंडर ही इस्तेमाल कर रहे थे, जब प्रोडक्शन बढ़ा तो कमर्शियल मिक्सिंग यूनिट खरीद ली। हमने केटी चाय मसाला के नाम से अपनी कंपनी रजिस्टर्ड करवा ली है। अभी काम घर से ही चल रहा है, लेकिन जल्द ही एक छोटी कमर्शियल यूनिट शुरू करेंगे, जहां से पूरा काम होगा। डिस्ट्रीब्यूटरशिप के जरिए काम कर रहे हैं। बिना किसी पब्लिसिटी के श्रीनगर से लेकर अंडमान तक के ऑर्डर आ रहे हैं।

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