किसी क्लास में फेल होने पर बेहतर भविष्य की राहें बंद नहीं हो जातीं। नई चुनौती यहीं से शुरू होती है। जो खुद को साबित करता है वह सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचता है। उत्तर प्रदेश के उन्नाव के रहने वाले राज सिंह पटेल की कहानी बेहद अनोखी है और हौसले व जज्बे की उड़ान वाली है। उनका संघर्ष और कामयाबी किसी फिल्मी सरीखी है। दसवीं में फेल हो गए, लेकिन हार नहीं माना। भागकर हरियाणा के रोहतक आ गए। कई रातें भूखे रह कर गुजारी तो काफी समय तक भटकते, लेकिन मेहनत और हिम्मत से आज उस मंजिल पर हैं कि जहां पहुंचना आसान नहीं होता। आज उनका तीन देशों में कारोबार है।
उन्नाव के राज सिंह पटेल की कंपनी का सालाना पांच करोड़ का टर्नओवर
रोहतक में संघर्ष के दौरान नट-बोल्ट की एक कंपनी में खराद की मशीन पर काम किया। बाद में 75 हजार रुपये का कर्जा लेकर खुद की मशीनों से जॉब वर्क शुरू किया। अपनी कंपनी तक खड़ी की और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। कभी पाई-पाई को मोहताज रहे राज सिंह अपनी कहानी सुनाते हुए भावुक हो गए।
राज सिंह के पिता सुंदरलाल किसान हैं। पिता के लिए पांच भाई और एक बहन की परवरिश करना मुश्किल था। 1986 की उस घटना को जिंदगी का सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट बताते हुए राज सिंह ने कहा कि दसवीं का परिणाम उम्मीद के विपरीत आया। डांट पड़ी तो आठ-दस दिन खाना तक नहीं खाया।
ताइवान से मशीन का वीडियो बनाकर लाए, जुगाड़ से बना डाली मशीन
दिमाग में गलत विचार भी आने लगे। पिता ने आर्थिक तंगी का हवाला देते हुए आगे पढ़ाने से इनकार कर दिया। कुछ दिनों तक खेती का काम किया। मन नहीं लगा तो अचानक अपने एक जानकार के पास रोहतक आ गए। यहीं से जिंदगी का नया पड़ाव शुरू हुआ।
सुबह छह बजे से रात 11 बजे तक ड्यूटी करते
पुराने दिनों की यादें ताजा होते ही राज सिंह की आंखे नम हो जाती हैं। उन्होंने कहा है कि उन्नाव से रोहतक पहुंचने पर हिसार रोड स्थित एक फैक्ट्री में जानकार के साथ खराद की मशीन पर काम करने लगे। दो साल तक संघर्ष चलता रहा। कई बार ऐसे भी मौके आए जब भूखे पेट सोना पड़ा। 1988 में एक फैक्ट्री में नौकरी मिली।
वह बताते हैं कि सुबह छह बजे से रात 10-11 बजे तक ड्यूटी करते। 1995 में आइडिया आया कि खुद का काम शुरू किया जाए। जिस नट-बोल्ट फैक्ट्री में कार्य करते थे वहीं किराए पर मशीनें लेकर कार्य शुरू किया। राज सिंह दिन-रात मेहनत करते। पत्नी आशा पटेल पार्ट गिनने, पैकिंग करने व दूसरे कार्यों में सहयोग करतीं।
2010-11 में 18 लाख की मशीन साढ़े तीन लाख में बना डाली
1999 में खुद की मशीनें लगाने की ठानी, इसलिए सस्ती मशीनों की तलाश में ताइवान चले गए। 2003 में अन्य मशीनें लगाकर कार्य शुरू किया। 2007 से अमेरिका से मशीनें लाए। कारोबार सरपट दौड़ने लगा। 2010-11 में फिर से ताइवान गए। उस दौरान 18 लाख की मशीन खरीदी। बाद में साढ़े तीन लाख रुपये खर्च करके खुद ही एक मशीन तैयार कर दी। उस मशीन से ऑटोमैटिक सभी कार्य होने लगे। मार्केट में उस मशीन की कीमत कई गुना तक थी।
सस्ती मशीनें देश में बनें तभी उद्योग पकड़ेगा रफ्तार
राज सिंह कहते हैं कि अमेरिका, जापान, जर्मनी, ताइवान और चीन में नट-बोल्ट की मशीनें तैयार होती हैं। सरकार को सुझाव दिया है कि यदि मदद मिले तो वह नट-बोल्ट की सस्ती और ऑटोमैटिक मशीनें तैयार कर सकते हैं। इनका कहना है कि मशीनें देश में न बनने के कारण नए उद्योग लगाने में लोग दिलचस्पी नहीं लेते।
कहा- चीन की मशीनरी सबसे खराब
देश में उद्यमियों को सस्ती और बेहतर मशीनें तैयार करने के लिए भी प्रेरित किया है। राज सिंह का दावा है कि चीन की मशीनें सबसे खराब होती हैं, लेकिन सस्ते के फेर में कई बार उद्यमी वहां से मशीनें लाने के लिए मजबूर होते हैं। इन्होंने सुझाव दिया है कि बड़ी, मध्यम और छोटी मशीनें तैयार हों तो गांव स्तर पर उद्योग खड़े होंगे।