अमेरिका के सेंट लुईस में वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन ने कोविड-19 से रिकवर हो चुके मरीजों पर एक स्टडी की है। इसके आधार पर रिसर्चर्स ने दावा किया कि माइल्ड लक्षणों से रिकवर करने के कुछ महीनों बाद भी शरीर में इम्यून सेल्स वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी बना रहे हैं। ये सेल्स जिंदगीभर शरीर में रहेंगे और इस दौरान कोविड-19 इन्फेक्शन के खिलाफ एंटीबॉडी बनाते रहेंगे। यानी ये सेल्स कोविड-19 इन्फेक्शन के खिलाफ पूरी जिंदगी प्रोटेक्शन देते रहेंगे।
यह स्टडी किसी खुशखबरी से कम नहीं है। खासकर, जब पूरी दुनिया यह पता लगाने की कोशिश कर रही है कि इन्फेक्शन या वैक्सीन से मिली एंटीबॉडी कितने दिन तक असर दिखाएगी। हमने इस स्टडी और इससे जुड़े मसलों पर देश के जाने-माने महामारी विशेषज्ञ डॉ. चंद्रकांत लहारिया से बातचीत की। डॉ. लहारिया ने डॉ. गगनदीप कंग और डॉ. रणदीप गुलेरिया के साथ मिलकर कोविड-19 के खिलाफ भारत की रणनीति पर एक किताब लिखी है- ‘टिल वी विन’।
आइए हम भी समझते हैं कि यह स्टडी किसने, क्यों की? इसके नतीजे का हमारे लिए क्या मतलब है?
एंटीबॉडी पर की गई यह नई स्टडी क्या कहती है?
- यह स्टडी 24 मई को मेडिकल जर्नल नेचर में छपी है। इसके नतीजे बताते हैं कि कोविड-19 के माइल्ड लक्षणों से रिकवर हो चुके मरीजों को हमेशा के लिए एंटीबॉडी प्रोटेक्शन मिल गया है। अब वे बार-बार बीमार नहीं पड़ेंगे। यह प्रोटेक्शन उन्हें जिंदगी भर के लिए मिल गया है।
क्यों की गई यह स्टडी?
- अब तक यह किसी को नहीं पता कि जिन्हें कोविड-19 इन्फेक्शन हो चुका है, उनके शरीर में बनी एंटीबॉडी कितने दिन तक कायम रहेगी। उन्हें कितने दिन तक रीइन्फेक्शन का खतरा नहीं है। अलग-अलग देशों में यह पता करने की कोशिशें हो रही हैं ताकि हर्ड इम्युनिटी का अंदाजा लगाया जा सके।
- स्टडी के मुख्य रिसर्चर प्रोफेसर अली एलेबेडी के मुताबिक पिछले साल रिपोर्ट्स आई कि इन्फेक्शन खत्म होते ही एंटीबॉडी भी गायब हो जाती है। इसका मतलब यह निकला कि इम्युनिटी जिंदगीभर के लिए नहीं है। डेटा को लेकर यह सही समझ नहीं थी। इन्फेक्शन के खत्म होने के बाद एंटीबॉडी लेवल्स कम होना सामान्य है। पर वे कभी शून्य के स्तर पर नहीं पहुंचते। हमने लोगों में इन्फेक्शन के 11 महीने बाद भी एंटीबॉडी बनाने वाले सेल्स देखे हैं। जब तक व्यक्ति जिंदा रहेगा, तब तक यह सेल्स जीवित रहेंगे और कोविड-19 से लड़ने के लिए एंटीबॉडी बनाते रहेंगे। यह जिंदगीभर के लिए इम्युनिटी का तगड़ा सबूत है।
इस स्टडी के दावे का आधार क्या है?
- आम तौर पर वायरल इन्फेक्शन होने पर एंटीबॉडी बनाने वाले इम्यून सेल्स तेजी से मल्टीप्लाई होते हैं। ब्लड में सर्कुलेट होते हैं। एंटीबॉडी लेवल्स बढ़ जाते हैं। जब इन्फेक्शन खत्म हो जाता है तो इस तरह के ज्यादातर सेल्स खुद-ब-खुद खत्म हो जाते हैं। ब्लड में एंटीबॉडी के लेवल्स कम हो जाते हैं।
- पर उसी समय एंटीबॉडी बनाने वाले कुछ सेल्स बोन मैरो में चले जाते हैं। वे वहीं जाकर बस जाते हैं। ऐसे सेल्स को लॉन्ग-लिव्ड प्लाज्मा सेल्स कहते हैं। यह सेल्स पूरी जिंदगी कम मात्रा में एंटीबॉडी बनाते रहते हैं ताकि भविष्य में वायरस के संभावित हमले का मजबूती से जवाब दे सकें।
- कोविड-19 के खिलाफ शरीर में एंटीबॉडी जिंदगीभर बनेगी या नहीं, इसका जवाब भी बोन मैरो में ही है, यह सोचकर एलेबेडी ने और रिसर्चर्स को साथ लिया। पता लगाया कि माइल्ड लक्षणों से रिकवर हुए कोविड-19 मरीजों के बोन मैरो में लॉन्ग-लिव्ड प्लाज्मा सेल्स हैं, जो SARS-CoV-2 की वजह से होने वाले कोविड-19 इन्फेक्शन को खत्म करने के लिए जिंदगीभर एंटीबॉडी बनाएंगे।
यह स्टडी कैसे की गई?
- रिसर्चर्स की टीम ने 77 प्रतिभागियों को स्टडी में शामिल किया। उनके इन्फेक्ट होने के एक महीने बाद से ब्लड सैंपल कलेक्ट किए गए। ज्यादातर को माइल्ड लक्षण थे। सिर्फ 6 को अस्पताल में भर्ती किया गया था।
- रिसर्चर्स ने इन्फेक्शन से रिकवर होने के 7-8 महीने बाद 18 प्रतिभागियों का बोन मैरो हासिल किया। पांच ने चार महीने बाद दूसरी बार बोन मैरो सैंपल दिए। तुलना करने के लिए 11 ऐसे लोगों के बोन मैरो लिए गए, जिन्हें कभी कोविड-19 नहीं हुआ था।
- ब्लड सैंपल की जांच में एंटीबॉडी का लेवल कम होता गया। फिर बिल्कुल ही कम हो गया। 11 महीने बाद कुछ में ही एंटीबॉडी डिटेक्ट हो रही थी। पर बोन मैरो सैम्पल्स में ऐसे सेल्स मिले जो कोविड-19 इन्फेक्शन को निशाना बनाने वाली एंटीबॉडी बना रहे थे। जिन पांच लोगों से दूसरा सैंपल लिया गया, उनमें भी वह सेल्स मिले। वहीं, जिन 11 लोगों को कभी कोविड-19 नहीं हुआ था, उनमें से किसी के भी बोन मैरो में ये एंटीबॉडी बनाने वाले सेल्स नहीं मिले।
स्टडी के नतीजों का हमारे लिए क्या मतलब है?
- डॉ. लहारिया की माने तो इस स्टडी के नतीजे हम सभी के लिए अच्छी खबर है। अब तक हमें यह नहीं पता था कि कोविड-19 इन्फेक्शन के खिलाफ बनी एंटीबॉडी कितने समय तक टिकेगी। अलग-अलग स्टडी में 7 से 11 महीने तक एंटीबॉडी बनने का दावा किया गया था। इस स्टडी से पता चला है कि टी सेल्स हमारे शरीर में हमेशा मौजूद रहेंगे। पर वह कितनी मात्रा में रहेंगे और गंभीर लक्षणों से बचाएंगे या नहीं, इस पर अभी और स्टडी करने की जरूरत है।
- उनका कहना है कि वॉशिंगटन के रिसर्चर्स ने माइल्ड लक्षणों वाले मरीजों के सैंपल को स्टडी किया है। अभी हमें यह नहीं पता कि यह एंटीबॉडी वैरिएंट्स से बचाएगी या नहीं। हमें यह भी नहीं पता कि गंभीर लक्षणों से जूझ रहे मरीजों के शरीर में एंटीबॉडी का स्तर क्या होगा।
तो क्या जिन्हें इन्फेक्शन हो गया, उन्हें वैक्सीन की जरूरत नहीं होगी?
- नहीं। यह सोचना पूरी तरह गलत है। यह एक स्टडी है। और भी कई स्टडी करने की जरूरत है। जिसके आधार पर यह कहा जा सकेगा कि वैक्सीन की जरूरत पड़ेगी या नहीं। बेहतर होगा कि वैक्सीन उपलब्ध हो रही है तो उसे लगवा लें।
- एक और महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या वैक्सीन से बनने वाली एंटीबॉडी भी जिंदगीभर टिकेगी? इसका जवाब तलाशने के लिए वॉशिंगटन के रिसर्चर्स की टीम ने नई स्टडी शुरू कर दी है। कुछ महीने बाद इसका जवाब भी मिल जाएगा।