बाबरी से सब बरी:28 साल बाद आडवाणी-मुरली समेत 32 आरोपी बरी, कोर्ट ने कहा- CBI सबूत ही नहीं ला सकी, ढांचा अज्ञात लोगों ने गिराया; पढ़ें 2300 पन्नों के फैसले की 10 बड़ी बातें
तुलसी रचित दो पंक्तियां हैं- ‘प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि। गए सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।’ मोटे तौर पर इसका अर्थ है कि रघुनाथ यानी राम दया के समुद्र हैं। शरण में आने वाले का सब अपराध भुला देते हैं।
सही ही कहा है तुलसी बाबा ने…! बाबरी मस्जिद ढांचा ढहाए जाने के 265 दिन बाद मामले की जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपा गया। उसे पता करना था कि किसने साजिश रची, किसने ढांचा गिराया। सीबीआई टीम करीब 3 साल जांच करती रही। फिर सीबीआई के स्पेशल कोर्ट में ही सुनवाई शुरू हुई। आखिरकार 30 सितंबर को फैसला आ गया। बाबरी से सब बरी कर दिए गए।
सब यानी सभी 32 आरोपी, जो जिंदा हैं। वैसे कुल 48 आरोपी थे। इनमें से 16 अब नहीं हैं। घटना के 28 साल बाद फैसला सुनाने वाले सीबीआई कोर्ट के जज एसके यादव ने 2300 पन्ने लिखे हैं। ये उनका आखिरी फैसला है। आज ही रिटायर भी हो रहे हैं।
फैसले में जज ने कहा कि सीबीआई किसी के भी खिलाफ एक भी आरोप साबित नहीं कर सकी। इसलिए लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती समेत सभी आरोपी बरी किए जाते हैं। ये सब राम मंदिर आंदोलन के प्रमुख चेहरे थे। ये इत्तेफाक ही है कि इसी बाबरी मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का फैसला भी 30 सितंबर को ही आया था। लेकिन 10 साल पहले।
सीबीआई की स्पेशल कोर्ट के फैसले की 10 बड़ी बातें
- इस मामले में किसी भी तरह की साजिश के सबूत नहीं मिले।
- जो कुछ हुआ, वह अचानक था और किसी भी तरह से यह घटना साजिशन नहीं थी।
- आरोपी बनाए गए लोगों का विवादित ढांचा गिराने के मामले से कोई लेना-देना नहीं था।
- विवादित ढांचा अज्ञात लोगों ने गिराया। कार सेवा के नाम पर लाखों लोग अयोध्या में जुटे थे और उन्होंने आक्रोश में आकर विवादित ढांचा गिरा दिया।
- सीबीआई 32 आरोपियों का गुनाह साबित करते सबूत पेश करने में नाकाम रही।
- अशोक सिंघल ढांचा सुरक्षित रखना चाहते थे क्योंकि वहां मूर्तियां थीं।
- विवादित जगह पर रामलला की मूर्ति मौजूद थी, इसलिए कारसेवक उस ढांचे को गिराते तो मूर्ति को भी नुकसान पहुंचता। कारसेवकों के दोनों हाथ व्यस्त रखने के लिए जल और फूल लाने को कहा गया था।
- अखबारों में लिखी बातों को सबूत नहीं मान सकते। सबूत के तौर पर कोर्ट को सिर्फ फोटो और वीडियो पेश किए गए।
- ऑडियो टेप के साथ छेड़छाड़ की गई थी। वीडियो टेम्पर्ड थे, उनके बीच-बीच में खबरें थीं, इसलिए इन्हें भरोसा करने लायक सबूत नहीं मान सकते।
- चार्टशीट में तस्वीरें पेश की गईं, लेकिन इनमें से ज्यादातर के निगेटिव कोर्ट को मुहैया नहीं कराए गए। इसलिए फोटो भी प्रमाणिक सबूत नहीं हैं।
इस केस में अब आगे क्या?
इस मामले में बाबरी एक्शन कमेटी के संयोजक और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य जफरयाब जिलानी का बड़ा बयान आया है। दैनिक भास्कर से बातचीत में उन्होंने कहा कि वे कोर्ट के फैसले से संतुष्ट नहीं हैं और हाईकोर्ट जाएंगे। वे सीबीआई से भी दोबारा जांच या मुकदमे की अपील करेंगे।
कौन थे 32 आरोपी
लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा, महंत नृत्य गोपाल दास, डॉ. राम विलास वेदांती, चंपत राय, महंत धर्मदास, सतीश प्रधान, पवन कुमार पांडेय, लल्लू सिंह, प्रकाश शर्मा, विजय बहादुर सिंह, संतोष दुबे, गांधी यादव, रामजी गुप्ता, ब्रज भूषण शरण सिंह, कमलेश त्रिपाठी, रामचंद्र खत्री, जय भगवान गोयल, ओम प्रकाश पांडेय, अमरनाथ गोयल, जयभान सिंह पवैया, साक्षी महाराज, विनय कुमार राय, नवीन भाई शुक्ला, आरएन श्रीवास्तव, आचार्य धर्मेंद्र देव, सुधीर कुमार कक्कड़ और धर्मेंद्र सिंह गुर्जर।
फैसले पर किसने क्या कहा?
- भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा- ‘यह हम सभी के लिए खुशी का पल है। कोर्ट के निर्णय ने मेरी और पार्टी की रामजन्मभूमि आंदोलन को लेकर प्रतिबद्धता और समर्पण को सही साबित किया है।’ फैसला आने के बाद आडवाणी ने जय श्रीराम का नारा भी लगाया
- मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया। साबित हो गया कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में कोई साजिश नहीं हुई।
- एआईएमआईएम के चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने कहा- ‘मेरा मानना है कि यह भारतीय न्यायपालिका का काला दिन है।’
- शिवसेना नेता और सांसद संजय राउत ने कहा कि मैं इस फैसले का स्वागत करता हूं। साथ ही आडवाणी, मुरली मनोहर, उमा भारती और उन लोगों को बधाई देता हूं, जो इस केस बरी हो गए।
- राजनाथ सिंह ने कहा कि देर से ही सही मगर न्याय की जीत हुई है।
- कांग्रेस सांसद अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि देश ज्यूडिशियरी (स्वतंत्र न्यायपालिका) से मोदीशियरी (मोदी से प्रभावित न्यायपालिका) की तरफ बढ़ रहा है।
6 नेता वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से जुड़े
लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, शिवसेना के पूर्व सांसद सतीश प्रधान, महंत नृत्य गोपाल दास और पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से कोर्टरूम से जुड़े। इनके अलावा अन्य सभी 26 आरोपी कोर्टरूम में मौजूद थे। बाबरी केस विशेष जज एसके यादव के कार्यकाल का अंतिम फैसला रहा। वे 30 सितंबर 2019 को रिटायर होने वाले थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें 30 सितंबर 2020 तक (फैसला सुनाने तक) सेवा विस्तार दिया।
6 दिसम्बर 1992 को 10 मिनट के अंतराल पर दर्ज हुईं दो एफआईआर
- पहली एफआईआर मुकदमा संख्या 197/92 को प्रियवदन नाथ शुक्ल ने शाम 5:15 पर बाबरी मस्जिद ढहाने के मामले में तमाम अज्ञात लोगों के खिलाफ धारा 395, 397, 332, 337, 338, 295, 297 और 153ए में मुकदमा दर्ज हुई।
- दूसरी एफआईआर मुकदमा संख्या 198/92 को चौकी इंचार्ज गंगा प्रसाद तिवारी की तरफ से आठ नामजद लोगों के खिलाफ दर्ज हुई, जिसमें भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, तत्कालीन सांसद और बजरंग दल प्रमुख विनय कटियार, तत्कालीन वीएचपी महासचिव अशोक सिंघल, साध्वी ऋतंभरा, विष्णु हरि डालमिया और गिरिराज किशोर शामिल थे। इनके खिलाफ धारा 153ए, 153बी, 505 में मुकदमा लिखा गया।
- बाद में जनवरी 1993 में 47 अन्य मुकदमे दर्ज कराए गए, जिनमें पत्रकारों से मारपीट और लूटपाट जैसे आरोप थे।
1993 में हाईकोर्ट के आदेश पर लखनऊ में बनी विशेष अदालत
इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर 1993 में लखनऊ में विशेष अदालत बनाई गई थी, जिसमें मुकदमा संख्या 197/92 की सुनवाई होनी थी। इस केस में हाईकोर्ट की सलाह पर 120बी की धारा जोड़ी गई, जबकि मूल एफआईआर में यह धारा नहीं जोड़ी गई थी। अक्टूबर 1993 में सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में 198/92 मुकदमे को भी जोड़कर संयुक्त चार्जशीट फाइल की। क्योंकि दोनों मामले जुड़े हुए थे।
उसी चार्जशीट नाम बाल ठाकरे, नृत्य गोपाल दास, कल्याण सिंह, चम्पत राय जैसे 48 नाम जोड़े गए। केस से जुड़े वकील मजहरुद्दीन बताते हैं कि सीबीआई की सभी चार्जशीट मिला लें तो दो से ढाई हजार पन्नों की चार्जशीट रही होगी।
यूपी सरकार की एक गलती से अलग-अलग जिलों में हुई सुनवाई
अक्टूबर 1993 में जब सीबीआई ने संयुक्त चार्जशीट दाखिल की तो कोर्ट ने माना कि दोनों केस एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसलिए दोनों केस की सुनवाई लखनऊ में बनी विशेष अदालत में होगी, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी समेत दूसरे आरोपियों ने इसे हाईकोर्ट में चुनौती दे दी।
दलील में कहा गया कि जब लखनऊ में विशेष कोर्ट का गठन हुआ तो अधिसूचना में मुकदमा संख्या 198/92 को नहीं जोड़ा गया था। इसके बाद हाईकोर्ट ने सीबीआई को आदेश दिया कि मुकदमा संख्या 198/92 में चार्जशीट रायबरेली कोर्ट में फाइल करे।
जब कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया
2003 में सीबीआई ने चार्जशीट तो दाखिल की, लेकिन आपराधिक साजिश की धारा 120 बी नहीं जोड़ सके। चूंकि, दोनों मुकदमे अलग थे, ऐसे में रायबरेली कोर्ट ने आठ आरोपियों को इसलिए बरी कर दिया, क्योंकि उनके खिलाफ मुकदमे में पर्याप्त सबूत नहीं थे। इस मामले में दूसरा पक्ष हाईकोर्ट चला गया तो इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2005 में रायबरेली कोर्ट का आर्डर रद्द किया और आदेश दिया कि सभी आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलता रहेगा।
2007 से शुरू हुआ ट्रायल, हुई पहली गवाही
इसके बाद मामले में ट्रायल शुरू हुआ और 2007 में पहली गवाही हुई। केस से जुड़े वकील केके मिश्रा बताते हैं कि कुल 994 गवाहों की लिस्ट थी, जिसमें से 351 की गवाही हुई। इसमें 198/92 मुकदमा संख्या में 57 गवाहियां हुईं, जबकि मुकदमा संख्या 197/92 में 294 गवाह पेश हुए। कोई मर गया, किसी का एड्रेस गलत था तो कोई अपने पते पर नहीं मिला।
जून 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एक साथ मामले की सुनवाई के आदेश दिए
हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ 2011 में सीबीआई सुप्रीम कोर्ट गई। अपनी याचिका में उसने दोनों मामलों में संयुक्त रूप से लखनऊ में बनी विशेष अदालत में चलाने और आपराधिक साजिश का मुकदमा जोड़ने की बात कही। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चलती रही। जून 2017 में हाईकोर्ट ने सीबीआई के पक्ष में फैसला सुनाया।
यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने दो साल में इस केस को खत्म करने की समय सीमा भी तय कर दी। 2019 अप्रैल में वह समय सीमा खत्म हुई तो नौ महीने की डेडलाइन फिर मिली। इसके बाद कोरोना संकट को देखते हुए 31 अगस्त तक सुनवाई पूरी करने का और 30 सितंबर को फैसला सुनाने का समय दिया गया है।
17 साल चली लिब्रहान आयोग की जांच, 48 बार मिला विस्तार
6 दिसंबर 1992 के 10 दिन बाद केंद्र सरकार ने लिब्रहान आयोग का गठन कर दिया, जिसे तीन महीने में अपनी रिपोर्ट सौंपनी थी, लेकिन आयोग की जांच पूरी होने में 17 साल लग गए। जानकारी के मुताबिक, इस दौरान तकरीबन 48 बार आयोग को विस्तार मिला।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, आयोग पर आठ से दस करोड़ रुपए भी खर्च किए गए। 30 जून 2009 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। जांच रिपोर्ट का कोई भी प्रयोग मुकदमे में नहीं हो पाया न ही सीबीआई ने आयोग के किसी सदस्य का बयान लिया।
- फैसला कहता है कि उत्तर प्रदेश के आईजी को इंटेलिजेंस रिपोर्ट मिली थी कि पाकिस्तान में बने एक्सप्लोसिव दिल्ली के रास्ते अयोध्या पहुंचे हैं
सीबीआई की स्पेशल कोर्ट ने बाबरी ढांचा गिराए जाने के मामले में आखिरकार फैसला सुना दिया। 28 साल बाद सभी 32 आरोपी बरी कर दिए गए। वह भी सबूतों के अभाव में। भास्कर ने जब 2300 पन्नों के फैसले को खंगालने की कोशिश की, तो पाया कि सीबीआई का पूरा केस वीडियो, फोटो, मीडिया में छपी खबरों और गवाहों पर टिका था। इनके जरिए सीबीआई ऐसे सबूत कोर्ट में पेश नहीं कर पाई, जो लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं की बाबरी ढांचा तोड़े जाने में सीधे भूमिका होने की बात साबित कर सकें।
CBI की चार्जशीट में शामिल सबूत इन 4 बातों पर टिके थे, जिन्हें कोर्ट ने नकारा
- वीडियो: जो वीडियो पेश किए गए, वे एडिटेड थे। उनसे छेड़छाड़ की गई थी।
- फोटो: जो फोटो पेश हुए, वे साफ तौर पर यह नहीं दिखाते थे कि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता ढांचा तोड़े जाने में सीधे तौर पर शामिल थे। सीबीआई उनके निगेटिव भी कोर्ट को मुहैया नहीं करा सकी।
- मीडिया में छपी खबरें: बाबरी की घटना से जुड़ी खबरें एडिट होने के बाद अखबारों में आईं। ज्यादातर खबरों की ओरिजनल और अनएडिटेड कॉपी सीबीआई पेश नहीं कर पाई।
- गवाह: बयानों में कोर्ट ने विरोधाभास पाया। ये साबित नहीं हुआ कि 32 आरोपियों ने ढांचा गिराने की साजिश रची या ढांचा गिराया।
वह 2 लाइनें, जो आरोपियों के बरी होने का आधार बनीं
- कोर्ट ने कहा कि ऐसा कोई सबूत नहीं मिला, जो बताता हो कि सभी आरोपियों ने किसी कमरे में बैठकर विवादित ढांचा गिराने की कोई योजना बनाई हो।
- उकसाने के बाद घटना होना और आपराधिक साजिश के तहत घटना होना, ये एकसाथ नहीं हो सकता।
कोर्ट के फैसले के जरिए इन बातों को सिलसिलेवार तरीके से समझते हैं
मनमोहन सिंह के इंटरव्यू का वीडियो भी शामिल
फैसले के मुताबिक, गवाहों ने खुद कबूल किया कि अदालत में जो भी वीडियो कैसेट्स पेश किए गए, वे एडिटेड थे। मुख्य जांच अधिकारी ने भी यह बात मानी थी। इनमें ऐसे भी वीडियो थे, जिनका 6 दिसंबर 1992 की घटना से कोई संबंध नहीं है। कोर्ट में 10 कैसेट पेश किए गए।
फैसले में पेज नंबर 2126 में कहा गया है कि एक वीडियो कैसेट में अयोध्या के अलावा बाकी फुटेज भी डाले गए हैं। जैसे- मनमोहन सिंह का 1993 का कहीं और का इंटरव्यू भी डाला गया है। यह फुटेज इस वीडियो में कैसे आया, गवाह खुद भी इस बात से हैरत में है। कहने का मतलब यह है कि ये कैसेट्स एडिटेड हैं और इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
तस्वीरों के निगेटिव कोर्ट को नहीं मिल पाए
जज ने कहा कि आरोपियों की विवादित परिसर में मौजूदगी थी, लेकिन उस वक्त की तस्वीरों से यह साफ नहीं होता कि वे ही विवादित ढांचे को गिरा रहे थे। जो फोटोग्राफ बतौर सबूत पेश किए गए, वे निगेटिव से एनलार्ज कर बनाए गए थे, लेकिन उनके निगेटिव अदालत में पेश नहीं किए गए। इसलिए इन सबूतों को माना नहीं जा सकता।
गवाहों के अलग-अलग बयान
फैसले के पेज नंबर 2234 पर कहा गया है कि जो लोग मौके पर मौजूद थे, जो सरकारी कर्मचारी थे और जो आम लोग थे, इनके बयानों में विरोधाभास पाया गया। कोर्ट में कई गवाहों ने अपने बयान में ऐसी बहुत सी बातें कहीं, जो कोर्ट को पहली बार बताई गई और पहले सीबीआई को नहीं बताई गई थी। इसलिए इन्हें गवाहों का सुधरा हुआ बयान माना गया। किसी भी गवाह ने साफ तौर पर यह नहीं बताया कि आरोपी विवादित ढांचे को तोड़ रहे थे। जो बयान सामने आए और साक्ष्य पेश किए गए, वे इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचा गिराने की कोई योजना नहीं थी।
फैसले में पाकिस्तान का जिक्र
फैसला कहता है कि उत्तर प्रदेश के आईजी को इंटेलिजेंस रिपोर्ट मिली थी कि पाकिस्तान में बने एक्सप्लोसिव दिल्ली के रास्ते अयोध्या पहुंचे हैं। ऐसी ही एक रिपोर्ट में कहा गया है कि करीब 100 लोग जम्मू-कश्मीर के उधमपुर से रवाना हुए हैं और कारसेवकों के भेष में अयोध्या आ रहे हैं। इतनी अहम जानकारी के बावजूद कोई जांच नहीं की गई।
…तो 6 दिसंबर 1992 काे हुआ क्या?
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि सबूतों से साफ है कि घटना के दिन लगभग 12 बजे तक विवादित परिसर में सब कुछ सामान्य था। कुछ लोग कारसेवा के लिए सरयू से एक मुट्ठी बालू और जल लाकर राम चबूतरा पर चढ़ा रहे थे। विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने जब कारसेवकों से कहा कि प्रतीकात्मक कार सेवा के लिए सरयू नदी से एक मुट्ठी बालू और जल लाएं तो उसी समय कारसेवकों के समूह में से एक समूह भड़क गया और विवादित ढांचे के पीछे से पथराव करने लगा। कुछ लोग बैरिकेडिंग तोड़कर विवादित ढांचे पर चढ़ गए। पथराव से दूसरे कारसेवक घायल होने लगे। इसके बाद ढांचा तोड़ दिया गया।
क्या कारसेवकों ने ढांचा नहीं तोड़ा?
कोर्ट ने इस बारे में भी बातें लिखी हैं। फैसला कहता है कि कारसेवकों का एक अलग समूह था, जो निश्चित तौर उपद्रवी था। अशोक सिंघल कह रहे थे कि विवादित ढांचा भी मंदिर ही है और उसकी रक्षा करनी है। जब उपद्रवी ढांचे को गिरा रहे थे, तब अंदर गर्भगृह में स्थापित रामलला की मूर्ति को सतेंद्र दास नाम के एक व्यक्ति ने अपने हाथ में उठाकर किसी तरह बचाया। ऐसे में कारसेवकों के इस अराजक समूह को रामभक्त नहीं कहा जा सकता।
कोर्ट ने कहा कि इन्हीं अराजक कारसेवकों ने विवादित ढांचा गिराया, जिससे देशभर में साम्प्रदायिक तानाबाना प्रभावित हुआ। इसलिए कारसेवकों के इन दो समूहों को एक समूह का हिस्सा कैसे माना जा सकता है? कारसेवकों का एक समूह अचानक उत्तेजित होकर हमलावर हो गया था, इन्हें अराजक तत्व ही कहा जा सकता है।