बंगाल में दुर्गा पूजा का 3000 करोड़ का कारोबार का बाजार 25% सिमट जाएगा, 8 महीने पहले शुरू होती थी तैयारी, अब तक सिर्फ सन्नाटा
इस बार 200 मूर्तियां बनाने वालों के पास मुश्किल से 10-20 आर्डर हैं, वह भी छोटे आकार की मूर्तियों के कौशिक घोष ने कुछ दिन पहले एक मूर्ति ऑस्ट्रेलिया और दूसरी कनाडा भेजी है, 7 और तैयार की है, उम्मीद है शायद सिंगापुर या दुबई से कोई ऑनलाइन आर्डर आ जाए यहां 200 से अधिक मूर्तिकारों और उनसे जुड़े 900 से ज्यादा कारीगर साल भर मिट्टी की मूर्ति गढ़ने का काम करते हैं
कोलकाता की दुर्गा पूजा दुनियाभर में प्रसिद्ध है। अमूमन यहां पूजा की तैयारियां 6-7 महीने पहले शुरू हो जाती है। सरस्वती पूजा के बाद से ही यहां तैयारियां शुरू हो जाती हैं। लेकिन, इस बार चौतरफा सन्नाटा पसरा है। पूजा समितियों के लोग बस एक ही बात कहते हैं, अक्टूबर में पूजा तो होगी लेकिन स्वरूप क्या और कैसा होगा हम बता नहीं सकते। बस इतना ही कह सकते हैं कि पहले जैसी भव्यता इस बार नहीं होगी। कारण कोरोना है। शहर में छोटी-बड़ी 400 से अधिक पूजा समितियां हैं। कई तो 85 साल से ज्यादा पुरानी हैं। सबका अपना इतिहास है।
आयोजन के स्वरूप के लिए सरकार को लिखा है पत्र
जतिन दास पार्क, हाजरा क्रॉसिंग की 75 साल पुरानी दुर्गा पूजा की शुरुआत नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के दलितों के लिए की थी। तब उन्हें पूजा में शरीक नहीं होने दिया जाता था। यहां आज भी पूजा होती है। लेकिन, इस बार कोरोना के कारण आकार छोटा होगा। कारोबारी कहते हैं कि हमें दीवार पर लिखी इबारत अभी से दिख रही है।
पूजा का रूप क्या होगा, अभी तय नहीं है, क्योंकि 150 पूजा समितियों के संगठन वेस्ट बंगाल दुर्गा पूजा फोरम ने राज्य सरकार को आयोजन के स्वरूप तय करने को लेकर पत्र लिखा है। ताकि समय रहते जरूरी एहतियात बरत लिए जाए। लेकिन, अभी सरकार का जवाब नहीं आया है।
बड़े पैमाने पर विदेशोें से आते थे ऑर्डर
मूर्ति निर्माण के लिए प्रसिद्ध कोलाकाता की कुम्हार टोली में शिल्पकारों के संगठन ‘कुम्हारटोली मृत शिल्प संस्कृति समिति’, के बाहर टंगे फ्लेक्स पर ‘लाल’ अक्षरों में लिखा है ’फॉरेनर्स नॉट अलाउड’।’फॉरेनर्स’ की बात इसलिए कि दूसरे देशों में भी यहां के कारीगरों की पारंपरिक ढंग से बनाई मूर्तियों की मांग है और हर साल बड़े पैमाने पर विदेशी यहां मूर्तियों का आर्डर देने आते हैं।
जय दुर्गा भंडार के कौशिक घोष बताते हैं कि फरवरी-मार्च से ही फॉरेन से आर्डर बुक होने लगते थे। उसी समय हमें दो आर्डर मिले, उसके बाद एक भी नहीं। घोष, फाइबर से बनी मूर्तियां विदेश भेजते हैं। अभी कुछ दिन पहले ही उन्होंने 1 मूर्ति ऑस्ट्रेलिया और दूसरी कनाडा भेजी है।
कीमत 2 से 2.5 लाख रुपए मिली। उन्होंने ऐसी ही सात मूर्तियां इस उम्मीद में तैयार कर रखीं हैं कि शायद सिंगापुर या दुबई से आने वाले दिनों में कोई ऑनलाइन या टेलीफोन पर आर्डर आ जाए। 2019 में घोष ने 35 मूर्तियां विदेश भेजीं थीं। कहते हैं, इस बार 10 तक भी संख्या नहीं पहुंचेगी। कमाई की बात तो छोड़िए, लेबर खर्च भी निकलना मुश्किल होगा।
कुम्हारटोली की फाइबर की मूर्तियों की भले विदेशों में मांग हो लेकिन असली पहचान मिट्टी के काम की है। यहां 200 से ज्यादा मूर्तिकार और उनसे जुड़े 900 से अधिक कारीगर साल भर मिट्टी की मूर्ति गढ़ते हैं। इनकी साल भर की जीविका दुर्गा पूजा से ही जुटती है। कुम्हारटोली के कारीगरों के ठप कारखाने बयां कर रहे हैं कि इस बार कोलकाता की दुर्गा पूजा फीकी-फीकी सी होगी। आम तौर पर मार्च-अप्रैल में कुम्हारटोली के कारीगरों को मूर्तियां बनाने का आर्डर मिल जाता था, सभी किसी न किसी समिति से दशकों से जुड़े हैं।
लॉकडाउन की वजह से पूंजी फंस गई
200 मूर्तियां बनाने वालों के पास मुश्किल से 10-20 आर्डर हैं, वह भी छोटे आकार की मूर्तियों के। शिल्पी कार्तिक पाल बताते हैं कि हमारे पास काम नहीं है। करारा झटका लगा है। जिस मूर्ति की कीमत 1.5 लाख है, उसे लोग आधे दाम में खरीदना चाहते हैं। लागत निकलना भी मुश्किल है। ऊपर से परेशानी यह है कि प्रतिमा बनाने के लिए गंगा की जिस मिट्टी का प्रयोग होता है, वह महंगी हो गई है। बांस, पुआल और दूसरी जरूरी चीजों की भी कीमत बढ़ गई है। हमने अन्नपूर्णा की 100 मूर्तियां बनाई थी। एक भी नहीं बिकी। अन्नपूर्णा पूजा 1 अप्रैल को थी। लॉकडाउन में पूंजी फंस गई।
मोहन साव कारीगर हैं। पहले कटपिस के कपड़े की फेरी लगाते थे। नोटबंदी में धंधा चौपट हुआ तो कुम्हारटोली में काम खोजा। कहते हैं कि रोजाना 250 रुपए मजदूरी मिलती थी, अब जो मिल जाता है वही ठीक है। और दूसरा काम भी तो नहीं है बाजार में। प्रतापचंद्र दास की मूर्तियों के साजो-सामान की दुकान है। बीते 3 महीने में चार हजार की भी बिक्री नहीं हुई है। पूजा से उम्मीद थी, लेकिन अब वह भी जाती रही क्योंकि शिल्पियों के पास आर्डर नहीं हैं।
किसी को नहीं पता क्या होगा पूजा का स्वरूप
85 साल पुरानी संतोष मित्रा स्क्वायर में बीते साल पूजा के आयोजन में 3 करोड़ रु. खर्च हुए थे। सोने की प्रतिमा, चांदी का रथ और हीरा व रत्न जड़ित साड़ियों से देवी का श्रृंगार हुआ था। खर्च कॉरपोरेट घरानों ने उठाया था। यहां सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात कॉरपोरेट से जुड़े लोग ही देते हैं। पूजा के बाद ले जाते हैं। इस बार सब मौन हैं। पूजा समिति के सचिव सजल घोष कहते हैं कि हम जनवरी-फरवरी से ही तैयारी शुरू कर देते थे , लेकिन इस बार पंडाल कैसा होगा, थीम क्या होगी, नहीं जानते। तैयारी बस पूजा को बचाने की है। अभी तक हमने बस मूर्ति बनाने का एडवांस दिया है। और कुछ भी नहीं किया, बचे हुए 100 दिन में क्या कर लेंगे?
बुकिंग में हो गई है कमी
1969 से लगातार आयोजन कर रही उत्तरी कोलकाता की नामी मो.अली पूजा समिति के सचिव अशोक ओझा कहते हैं कि तैयारी कुछ भी नहीं है। 2019 में 40 लाख खर्च हुआ था, इस साल इसका 40% चंदा जुट जाए बहुत है। कोरोना के कारण पूजा का स्वरूप क्या होगा, कोई नहीं जानता। हम सरस्वती पूजा के बाद ही दुर्गा पूजा की तैयारी प्रारंभ कर देते थे। बुकिंग, पंडाल डेकोरेशन आदि का शुरू हो जाता था, लेकिन इस बार कहीं कोई बुकिंग नहीं हुई है। लेकिन पूजा होगी, बिल्कुल छोटे स्वरूप में। यह भी संभव है कि हम सिर्फ कलश स्थापना तक ही अपने को सीमित रखें। अभी हमने मूर्ति बनाने तक का आर्डर नहीं दिया है।
इस बार मूर्तियों का आकार छोटा होगा
62 साल पुरानी बड़ाबाजार तुलापट्टी सार्वजनिक दुर्गा पूजोत्सव कमेटी के महेश शर्मा कहते हैं कि हमने मूर्ति का आकार छोटा कर दिया है। पिछले साल प्रतिमा 14 फीट की थी, इस साल 5-7 फीट ऊंची होगी।पिछले साल 22 लाख खर्च हुआ था। इस साल आधा भी जुट जाए तो बहुत है। सावन के बाद तैयारी शुरू होगी क्योंकि व्यापारियों की हालत खराब है। दमदम पार्क तरुण संघ पूजा समिति, देबराज सिकदर ने बताया बीते वर्ष 45 लाख का बजट था। इस बार 10-12 लाख भी जुट जाए तो बहुत है। कारण, न तो स्टॉल बिकेगी, न ही कोई चंदा देगा। पूजा पंडालों से इतर यहां घरों में भी दुर्गा पूजा की सदियों पुरानी परंपरा है।
राजा राममोहन राय के गांव के बरुण मल्लिक के घर में 165 साल पुराना पूजा का इतिहास है। पूजा की खासियत है कि यह इकलौती जगह है जहां अष्टमी को कुमारी पूजा के साथ ‘सधवा पूजा’ होती है। यानी मातृस्वरूपा बाल-बच्चों वाली ब्राह्मणी की पूजा, तर्क यह है कि देवी को मातृरूप में हम पूजते हैं इसलिए पुरखों ने मातृरूप को पूजा में शामिल किया। यह शास्त्रीय विधान नहीं है, फिर भी हम पुरखों की परंपरा निभा रहे हैं। इस पूजा से मूर्तिकार से लेकर कहार व ढाकी तक पीढ़ियों से जुड़े हैं।
प्रतिमा कुम्हार टोली के ही स्वपन पाल बना रहे हैं। यह उनकी तीसरी पीढ़ी है। जगन्नाथ जी की रथयात्रा 23 मई के दिन ही हमने काठ पूजा (फ्रेम) कर उन्हें बयाना दे दिया। महालया के दिन प्रतिमा कहार कंधे से लेकर आएंगे, विसर्जन भी इसी प्रकार होगा। कोरोना के कारण इस बार नाते-रिश्तेदार तो कम आएंगे ही, स्वपन पाल के पास कारीगर नहीं हैं, वह प्रतिमा नहीं बना पाएगा तो प्रतिमा की जगह सिर्फ घट पूजा (कलश पूजन) से ही अनुष्ठान संपन्न करना होगा।
पहले तीन हजार करोड़ का कारोबार होता था
कॉन्फेडरेशन ऑफ वेस्ट बंगाल ट्रेड एसोसिएशंस के अध्यक्ष सुशील पोद्दार कहते हैं, बंगाल में दुर्गा पूजा के दौरान लगभग 3000 करोड़ रुपए का कारोबार होता था। इनमें पूजा पंडाल के निर्माण से लेकर बाजार में खरीदारी शामिल हैं, लेकिन कोरोना के कारण सुस्त अर्थव्यवस्था और बाजार की स्थिति को देखते हुए यह कारोबार 20 से 25 फीसदी तक सिमट जाने की संभावना है।
आज लोगों के पास खर्च करने के पैसे नहीं हैं। सोशल डिस्टेसिंग का पालन करना है। ऐसी स्थिति में बहुत कम ही उम्मीद है कि पहले की तरह भव्यता इस साल पूजा की पूजा में दिखे। यदि पूजा के आयोजन पूर्व की तरह नहीं होंगे, तो कारोबार भी पहले की तरह नहीं होगा।
इस्टर्न रीजन ट्रैवेल एजेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के चेयरमैन अनिल पंजाबी कोलकाता दुर्गा पूजा उत्सव का टूरिस्ट पोटेंशियल समझाते हैं। कहते हैं ‘दिस टाइम ऑफ टिल नाउ इट्स अ बिग जीरो’। कोरोना की मार ऐन मौके मार्च में पड़ी जब बच्चों के रिजल्ट आते हैं। पेरेंट्स बच्चों से प्रॉमिस करते हैं। होटल की बुकिंग शुरू हो जाती थी।
पंजाबी इन दिनों लोगों को समझाने में जुटें हैं। इंस्टालमेंट तक में टूरिस्ट बुकिंग की बात करते हैं। कहते हैं मंत्रालय से लेकर इंडस्ट्री तक को समझा रहे हैं कि लुभावने ऑफर दें। लेकिन, पंजाबी यहीं रुक जाते हैं। इसमें उम्मीद और नाउम्मीदी दोनों हैं।