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तनाव ने रोका चीन के साथ व्यापार, पड़ोसी मुल्क ने उन्नत तकनीक से बढ़ाई निगरानी; भारतीय सेना मुस्तैद

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भारत और चीन के बीच तनाव का असर व्यापार पर भी पड़ा है। इस वर्ष सीमा पर स्थित शिपकिला में व्यापार मेला नहीं होगा। मेले में हिमाचल के किन्नौर के सीमावर्ती क्षेत्रों के लोग चीन के साथ वस्तुओं का आदान-प्रदान करते थे। हालांकि कोरोना वायरस भी इसका एक कारण है पर असली वजह तनाव को ही माना जा रहा है।

व्यापार मेला पहली जून से आरंभ होकर अक्टूबर के अंत तक चलता था। इसके लिए तिब्बत में ट्रेड सेंटर स्थापित किया जाता था। पिछले साल चार करोड़ रुपये की वस्तुओं का आदान-प्रदान हुआ था। बदले माहौल के बीच चीन ने भारतीय सीमा व आसपास के गांवों की उन्नत तकनीक से निगरानी बढ़ा दी है।

भारत तकनीक के तिलिस्म का तोड़ खोज रहा है। प्रशासनिक अधिकारियों की मानें तो इस मोर्चे पर चीन अपेक्षाकृत आगे है, लेकिन भारतीय सैनिकों के शौर्य के आगे पड़ोसी देश कहीं नहीं टिकता है। सीमा पर तैनात सैनिकों का मनोबल काफी ऊंचा है।

किन्नौर का शिपकिला हो या लाहुल का कौरिक, भौगोलिक दृष्टि से हम ऊंचाई पर हैं। इससे सीमा के उस पार की हर गतिविधि पर सेना, भारत  तिब्बत सीमा पुलिस (आइटीबीपी) की सीधी नजर रहती है। यह भारत का मजबूत पक्ष है। इसके बावजूद चीन कई बार हेलीकॉप्टर से भारतीय वायुसीमा में घुसपैठ कर हमारी तैयारियों का जायजा लेता रहता है। लाहुल-स्पीति में हाल ही में चीनी हेलीकॉप्टर की घुसपैठ पर भारत ने कड़ा एतराज जताया है।

किन्नौर के नमज्ञा गांव के बुजुर्ग देवी राम के अनुसार जब रामपुर रियासत के राजा केहर सिंह थे, तब लावो छै दर्रे पर तिब्बत के गोगे रियासत, लद्दाख और रामपुर के राजा के बीच मैत्री संधि हुई थी। बड़े पत्थर पर छेद कर चांदी और पीतल की वस्तुओं पर संधि पर मुहर लगाई थी। इस संधि को जमीन के नीचे कहीं गाड़ दिया गया था, ताकि नष्ट न हो सके। आजकल चीन इस संधि को ढ़ूंढ़ रहा है। संधि की शर्त यह थी कि तीनों राजाओं के बीच तब तक दोस्ती कायम रहेगी जब तक मानसरोवर झील सूख न जाए, कौवे के पंख सफेद न हो जाएं। तीसरा क्षेत्र का बड़ा पहाड़ मैदान न हो इसके बाद तिब्बत और भारत के बीच रामपुर में लवी मेले की शुरुआत की गई।  1950 के आसपास शिपकिला के पास हिमाचल और तिब्बत के गांवों के बीच व्यापार आरंभ हुआ।

ग्रामीणों के अनुसार 1958 तक तिब्बत बॉर्डर खुला था। सीमा की सुरक्षा का जिम्मा हिमाचल पुलिस का था। नमज्ञा में पुलिस का कैंप होता था। यहीं से शिपकिला तक गश्त होती होती थी। 1959 में यहां सेना तैनात की गई। 1970 के दौरान आइटीबीपी आई। 1958-59 में तिब्बत के छह-सात गावों की बैठक हुई। इसमें तय हुआ कि वे भारत जाना चाहते हैं। सतलुज नदी पर बने एक पुल तक हिमाचल के लोग घोड़े लेकर उन्हें लेने गए। बाद में पुल को जला दिया गया। ये एक माह तक पूह में रहे। इसके बाद शिमला के संजौली में रहे। बाद में इन्हें कर्नाटक में बसाया गया, अब भी वे वहीं रह रहे हैं।

भेड़-बकरी का आदान-प्रदान नहीं

शिपकिला में व्यापार के दौरान भेड़-बकरी नहीं बेची जाती हैं। चीन ने इन्हें बंद कर दिया है। चीनी वस्तुएं जैसे गलीचा, जूते इत्यादि की करीब 22 वस्तुएं वहां से इधर और राशन, तेल, खाने पीने की करीब 17 वस्तुएं वहां भेजी जाती हैं। व्यापार में करंसी का इस्तेमाल नहीं होता। प्रशासन व्यापारियों को परमिट जारी करता है। यहां के व्यापारी तिब्बत वाले क्षेत्र के ट्रेड सेंटर में जाते हैं। यहां के लोग सरकार से व्यापार मेला जारी रखने की मांग कर रहे हैं। इससे उनकी आजीविका जुड़ी है।

शिपकिला में बदल जाता है नेटवर्क

चीन ने मजबूत संचार सिस्टम सीमांत क्षेत्रों में लगाया है। शिपकिला में प्रवेश होते ही भारतीय सीमा में भी चीनी नेटवर्क आता है। यहां मोबाइल पर सब कुछ बदल जाता है। हालांकि भारत के क्षेत्रों में उसका मोबाइल नेटवर्क काफी कम है। नमज्ञा में भारतीय दूरसंचार निगम लिमिटेड (बीएसएनल) का नेटवर्क नहीं चल रहा है। लोगों ने सरकार से मोबाइल नेटवर्क दुरुस्त करने की मांग की है।

 

 

 

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