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कश्मीर में भाजपा पर आतंकी खौफ:एक महीने में 5 भाजपा कार्यकर्ताओं की आतंकियों ने हत्या की, डर से घाटी में भाजपा के 40 लोगों ने इस्तीफा दिया और राजनीति छोड़ी

पहले हमले नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस, पीडीपी में बंट जाते थे, अब भाजपा इकलौती पार्टी है जो कश्मीर में राजनीति कर रही है, जमीन पर नजर आ रही है कश्मीर में 1267 पंच और सरपंच हैं और ज्यादातर भाजपा से जुड़े हुए हैं, क्योंकि जब पिछले साल अक्टूबर में चुनाव हुए तो नेशनल कांफ्रेंस-पीडीपी के लोग नजरबंद थे

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पिछले एक महीने में घाटी में भारतीय जनता पार्टी के 6 से ज्यादा कार्यकर्ताओं पर आतंकी हमला हो चुका है। इनमें से 5 की मौत हो गई, जबकि एक अब भी अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच मौजूद हैं। जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा ने बुधवार को श्रीनगर के कुछ सरपंचों से मुलाकात की। उन्होंने कहा कि वो पंचायत से जुड़े राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या से दुखी हैं। ये भरोसा दिलाया कि प्रशासन पहले से ही सुरक्षा के लिए कदम उठा रहा है, इसे और बेहतर किया जाएगा।

कश्मीर घाटी में पिछले एक महीने में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं में 2 सरपंच, भाजपा का एक युवा नेता और उसका भाई और पिता शामिल हैं। 8 जुलाई की शाम नॉर्थ कश्मीर के बांडीपोरा में भाजपा के युवा नेता वसीम बारी, उनके पिता और उनके भाई की गोली मार कर हत्या कर दी गयी। इस हमले के बाद साउथ कश्मीर में 3 हमले हुए जिनमें भाजपा के 2 सरपंच मारे गए और एक घायल हुए हैं। पिछले रविवार को कश्मीर के बडगाम जिले में एक और सरपंच की गोली मार कर हत्या कर दी।

पिछले महीने नॉर्थ कश्मीर के बांडीपोरा में भाजपा के युवा नेता वसीम बारी, उनके पिता और उनके भाई की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी।

इन हमलों के डर से घाटी में भाजपा से जुड़े 40 लोगों ने इस्तीफा देने और राजनीति छोड़ने का ऐलान किया है। दक्षिण कश्मीर के कुलगाम जिले में रहने वाले सरपंच मुहम्मद इकबाल कहते हैं कि वो मरना नहीं चाहते। बोले, ‘मेरी पत्नी की मौत हो चुकी है। अब अगर मुझे कुछ हो गया तो मेरे बच्चों का कौन ख्याल रखेगा?’ इकबाल कहते हैं कि मैंने राजनीति से एक पैसा भी नहीं कमाया है। मैं अपना वक्त अपने काम में लगाना चाहता हूं। इकबाल ने कुछ दिन पहले वीडियो मैसेज के जरिए इस बात की जानकारी दी थी।

दूसरी तरफ भाजपा इन इस्तीफों को मौका परस्ती बता रही है। पार्टी के प्रवक्ता अल्ताफ ठाकुर कह चुके हैं कि जो लोग इस्तीफा दे रहे हैं, वे सिर्फ अपना फायदा देख रहे हैं। ये लोग अपने फायदे के लिए दल बदलते रहते हैं, इनके लिए देशहित की कोई वैल्यू नहीं है।उधर प्रशासन पंचायत से जुड़े सदस्यों की सुरक्षा के इंतजाम का दावा तो कर रहा है, लेकिन ज्यादातर सदस्य, इससे संतुष्ट नहीं है। इन सदस्यों में ज्यादातर भाजपा के हैं। प्रशासन इन्हें अलग-अलग सुरक्षित जगहों पर ले जा रहा है, भले ही वहां जाने की मर्जी सदस्यों की नहीं हो।

आर्टिकल 370 हटने के बाद से भाजपा के स्थानीय नेता आतंकियों के निशाने पर हैं। इस डर से पार्टी के कई नेता इस्तीफा दे रहे हैं।

1267 पंच-सरपंच, 68 बीडीसी काउंसिल हैं घाटी में। इनमें से ज्यादातर भाजपा के हैं। इन लोगों को अलग-अलग जिलों के मुताबिक सुरक्षित जगहों पर ले जाया जा रहा है। जैसे साउथ कश्मीर से पंच-सरपंचों को पहलगाम के होटल ले जाया गया है। कुछ को एमएलए होस्टल और कश्मीरी पंडितों की कॉलोनी में शिफ्ट किया है। श्रीनगर के आसपास के जिलों से कुछ सरपंच को गुलमर्ग के होटल में रखा है। भाजपा से जुड़े सरपंच मोहम्मद अमीन कहते हैं, ‘हमें जबरदस्ती ऐसी जगह पर रखा गया है, जहां न खाने का इंतेजाम है और न सोने का। मेरी बेटी का ऑपरेशन होना था, अभी वो अस्पताल में है। मुझे किसी अधिकारी से 5 मिनट के लिए मुलाकात का कहकर यहां लाया गया था। मुझे यहां आए हुए दो दिन हो गए, आखिर हमें जबरदस्ती बंद करके सरकार क्या जताना चाहती है।’ जम्मू-कश्मीर भाजपा के महासचिव अशोक कौल ने पहलगाम के एक होटल में ठहराए गए पंचायत सदस्यों से मुलाकात की। उनका कहना है कि इन लोगों को अच्छी सुरक्षा दी जाएगी। कुछ दिन के लिए इन्हें यहां रखा गया है। आगे सुरक्षित जगह पर ले जाया जाएगा।

हाल ही में मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर का उपराज्यपाल बनाया गया है। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में वे केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।

पंचायत के सारे लोग भाजपा से ही क्यों जुड़े हुए हैं ?
कश्मीर में पंचायत चुनाव अक्टूबर 2019 में हुए थे। उसमें यहां की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने हिस्सा नहीं लिया था। वजह ये कि उनके मुख्य नेता अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद हिरासत में थे। श्रीनगर के पत्रकार शाह अब्बास कहते हैं, ‘कश्मीर में 1267 पंच और सरपंच हैं और ज्यादातर भाजपा से जुड़े हुए हैं। हालांकि, इन चुनावों में लोग पार्टी के आधार पर नहीं, निर्दलीय ही लड़ते हैं। हालांकि, लोगों को पता होता है कि किसके तार कहां जुड़े हुए हैं। यही हाल ब्लॉक डेवलपमेंट काउंसिल का भी है, जहां ज्यादातर निर्वाचित हुए लोग भाजपा से ही जुड़े हुए हैं।’

कश्मीर घाटी में मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स से जुड़े लोगों की हत्या पहली घटना नहीं हैं, लेकिन अब तक भाजपा नेता इस हिंसा से बहुत कम प्रभावित हुए थे। सवाल यह है कि पहले भाजपा प्रभावित नहीं हुई थी तो अब क्यों? जम्मू-कश्मीर भाजपा के महासचिव अशोक कौल रविवार को आतंकी हमले में मारे गए सरपंच के घर गए थे। अपनी पार्टी के कुछ ब्लॉक डेवलपमेंट काउंसिल सदस्यों से मुलाकात के दौरान उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि वो आम लोगों और शासन के बीच की कड़ी बनें।

भारतीय जनता पार्टी की नेता रूमीसा रफीक ने 5 अगस्त को आर्टिकल 370 हटाने के एक साल पूरे होने पर अनंतनाग जिले में तिरंगा झंडा फहराया था।

जिस कड़ी की बात कौल कर रहे हैं, वही कश्मीर में भाजपा के लोगों की हत्या का कारण भी है। इसके पहले पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के लोग लोगों और एडमिनिस्ट्रेशन के बीच की कड़ी हुआ करते थे, जो अब कहीं दिखाई नहीं दे रहा। 2014 से पहले जम्मू-कश्मीर की राजनीति में भाजपा की भूमिका कम रही है, जिसका अंदाजा पहले के चुनावों में मिली सीटों से लगाया जा सकता है। 1987 के चुनाव में भाजपा को 2 सीटें मिली थीं, 1996 में 8, 2002 में 1 और 2011 में 11 सीटें। भाजपा को 2014 में 25 सीटें मिलीं थीं और पीडीपी के साथ उसने मिलकर सरकार बनाई थी। उस समय भी भाजपा को कश्मीर घाटी में कोई सीट नहीं मिली थी।

पिछले महीने भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव, जम्मू-कश्मीर भाजपा के अध्यक्ष रविंद्र रैना और केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह भाजपा नेता वसीम बारी के परिजनों से मिले थे।

अल्ताफ कहते हैं पिछले साल 5 अगस्त को अनुछेद 370 हटाए जाने के बाद चीज़ें बदल गयी हैं। कश्मीर घाटी में मुख्य धारा के नाम पर सिर्फ भाजपा ही बची है। इस समय सिर्फ कश्मीर घाटी में भाजपा के लगभग 7.5 लाख कार्यकर्ता हैं। हालांकि, ऐसा होना भाजपा को भारी भी पड़ रहा है। पहले जो हमले मुख्य धारा के लोगों पर कश्मीर में होते थे वो नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस, पीडीपी और बाकी अन्य पार्टियों में बंट जाते थे। अब भाजपा इकलौती पार्टी है जो जमीन पे दिख रही है, चाहे वो लोग काम कर रहे हों या नहीं। यह एक ही पार्टी है जो कश्मीर में राजनीति कर रही है।

महबूबा मुफ्ती अभी भी नज़रबंद हैं, उमर अब्दुल्ला को हाल ही में रिहा किया गया है। शाह फैसल, जो आईएएस छोड़ कर राजनीति में आए थे, अब राजनीति को अलविदा कह चुके हैं और कांग्रेस कहीं नजर नहीं आ रही है। इसके अलावा आर्टिकल 370 हटाए जाने को भारत सरकार से न जोड़कर भाजपा से जोड़ा जा रहा है, जो यहां हो रहे हमले की एक बड़ी वजह भी है।

भाजपा की महिला मोर्चा की जिला अध्यक्ष राबिया रसूल ने 5 अगस्त को गांदरबल में तिरंगा झंडा फहराया था।

इस तरह के हालात के बीच भी कुछ लोग हैं, जो बिना डरे पार्टी का काम कर रहे हैं और वो भी डंके की चोट पर। 5 अगस्त को भाजपा के एक सरपंच के मारे जाने के कुछ घंटे बाद, पार्टी की एक महिला कार्यकर्ता रूमेसा वानी ने अनंतनाग के लाल चौक में तिरंगा फहराया था, इसका विडियो सोशल मीडिया पर वायरल भी हुआ था।

रूमेसा कहती हैं, मैं किसी से डरती नहीं हूं, मुझे किसी चीज़ का खौफ नहीं है। यहां के लोग हमारे साथ हैं। मैंने भाजपा का काम देखकर पार्टी ज्वाइन की थी, मुझे कोई अफसोस नहीं है। रूमेसा के पति भी भाजपा के नेता हैं। रूमेसा पहली नेता नहीं हैं, जिन्होंने आर्टिकल 370 हटने की एनिवर्सरी मनाई। भाजपा के कई नेताओं ने सड़कों पर, दफ्तरों में और दूसरी जगहों पर 370 हटाए जाने की वर्षगांठ मनाई। लेकिन अब एक लकीर खींच गई है, एक तरफ भाजपा है और दूसरी तरफ कश्मीर के हालात, जहां हमेशा जान का खतरा रहता है।

कश्मीर से ग्राउंड रिपोर्ट:सख्त लॉकडाउन और कर्फ्यू से एक साल में कश्मीर में पर्यटन कम हुआ, नौकरियां गईं, लेकिन आतंकवाद भी कम हुआ

  • कश्मीर की डल झील पर शिकारे चलाने वाले सैकड़ों लोग एक साल से बेरोजगार, कोरोनावायरस ने आखिरी उम्मीद भी खत्म कर दी
  • 5 अगस्त से 3 दिसंबर 2019 के बीच कश्मीर की इकोनॉमी को 17,878 करोड़ का नुकसान, कोरोना लॉकडाउन के दो महीनों में 8 हजार करोड़ से ज्यादा का घाटा
  • 370 हटने के बाद कश्मीर में विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए 412 लोगों को पीएसए के तहत गिरफ्तार किया, इनमें तीन पूर्व मुख्यमंत्री भी शामिल
  • कश्मीर में आतंकी तंजीमों की भर्ती में भी कमी आई, इस साल 30 जून तक 74 कश्मीरी आतंकी बने, कारण ये है कि अब आतंकी कमांडर एनकाउंटर में मारे जा रहे

‘कश्मीर में अभी जैसे हालात हैं, वैसे कभी नहीं हुए।’ ये कहना है इस्माइल का। इस्माइल बचपन से ही डल झील में नाव चलाने का काम कर रहे हैं। स्थानीय भाषा में इन नावों को शिकारा या हाउसबोट भी कहते हैं। लेकिन, पिछले एक साल से इस्माइल और यही काम करने वाले सैकड़ों लोगों के पास कोई काम नहीं है।

पिछले साल 5 अगस्त को सरकार ने जम्मू-कश्मीर को खास दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को हटा दिया था। उससे दो दिन पहले ही केंद्र सरकार ने एडवाइजरी जारी कर बाहरी लोगों को कश्मीर से निकलने के आदेश दे दिए थे। 3 अगस्त तक यहां की डल झील टूरिस्ट से आबाद थी, लेकिन सरकारी आदेश आते ही हजारों की तादात में टूरिस्ट, स्टूडेंट्स घाटी छोड़कर चले गए थे।

एक अनुमान के मुताबिक, 5.20 लाख टूरिस्ट या बाहरी लोग घाटी छोड़कर चले गए थे। इसने कश्मीर की इकोनॉमी को बर्बाद कर दिया। हालांकि, तीन महीने बाद सरकार ने एडवाइजरी वापस ले ली, लेकिन उसके बाद भी ये टूरिस्ट को लुभाने में नाकाम ही रहा।

कश्मीर में वैसे तो लॉकडाउन लगना कोई नई बात नहीं है। लेकिन, पहले अनुच्छेद 370 और फिर कोरोनावायरस की वजह से लगे लॉकडाउन ने यहां की इकोनॉमी की कमर तोड़ दी।

इस्माइल जैसे लोगों को हालात सुधरने की थोड़ी उम्मीद भी थी, लेकिन फिर कोरोनावायरस की वजह से लॉकडाउन ने इस उम्मीद को भी खत्म कर दिया।

कोरोनावायरस और उससे लगे लॉकडाउन की वजह से डल झील पर शिकारा चलाने वाले लोगों को जो नुकसान हुआ, उसके लिए भी सरकार ने आर्थिक मदद करने का ऐलान किया था। सरकार की तरफ से लगातार तीन महीने तक हर शिकारे वाले को हर महीने 1 हजार रुपए देने की घोषणा हुई थी। हालांकि, नाव चलाने वालों का कहना है कि वो जिस भयानक बेरोजगारी का सामना कर रहे हैं, उससे निपटने के लिए ये मदद नाकाफी है।

इस्माइल का कहना है, ‘जो व्यक्ति हर दिन 1 हजार रुपए से ज्यादा की कमाई करता था, उसे हर महीने 1 हजार रुपए की मदद देने का क्या मतलब है?’

डल झील पर शिकारा चलाने वालों की कमाई पूरी तरह से टूरिज्म पर ही निर्भर है। लेकिन, पिछले एक साल से यहां शिकारे वाले तो आ रहे हैं, लेकिन टूरिस्ट नहीं।

हाउसबोट वेलफेयर ट्रस्ट एक चैरिटी संस्था है। ये चैरिटी हर महीने उन 600 शिकारे वालों की मदद करती है, जिनकी कमाई का जरिया सिर्फ टूरिज्म ही था। ट्रस्ट में वॉलेंटियर के रूप में काम करने वाले तारिक अहमद का कहना है कि हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं।

तारिक बताते हैं, ‘जो लोग पहले अच्छी कमाई कर रहे थे, अब उनकी आर्थिक हालत बहुत खराब हो गई है। ऐसे में हम उन परिवारों की मदद कर रहे हैं। उनकी पहचान उजागर न हो, इसके लिए हम उन्हें रात में रिलीफ मटैरियल पहुंचाते हैं।’

कालीन का काम भी पूरी तरह से ठप
इसके अलावा अनुच्छेद 370 पर सरकार के फैसले के बाद लगे लॉकडाउन ने न सिर्फ कश्मीरियों को प्रभावित किया, बल्कि उनकी आजीविका को भी प्रभावित किया। खासतौर से टूरिज्म और हैंडिक्राफ्ट सेक्टर को।

श्रीनगर से 25 किमी दूर एक गांव है। गांव का नाम है रख दसलिपोरा। इस गांव को कालीन बनाने वालों के गांव के नाम से भी जाना जाता है। यहां के ज्यादातर कार्पेट हैंडलूम्स अब बंद हो चुके हैं और कालीन बनाने वाले बुनकर भी इस काम को छोड़कर मजदूरी करने को मजबूर हैं।

कालीन बनाने वाले बुनकरों का कहना है कि पहले अनुच्छेद 370 और उसके बाद कोरोनावायरस ने यहां की हजारों करोड़ों की कार्पेट इंडस्ट्री को बड़ा झटका दिया है।

कश्मीर से हर साल पहले 500 करोड़ रुपए की कालीन एक्सपोर्ट होती थी, लेकिन पिछले एक साल से यहां कारोबार ठप पड़ा है।

गुलाम मोहम्मद सालों से अपने घर पर ही कालीन बनाने का काम करते थे। वो कहते हैं, कालीन बुनाई उनके परिवार के लिए कमाई का एकमात्र जरिया है। पूरा परिवार मिलकर साथ यही काम करता था। लेकिन, अब कोई खरीदार ही नहीं है, तो कालीन बनाने का काम भी बंद हो गया।

वो कहते हैं कि उनके परिवार के बच्चों ने अब स्कूल जाना छोड़ दिया है और मजदूरी करने लगे हैं, ताकि कुछ कमाई हो सके। गुलाम मोहम्मद कहते हैं, ‘पिछले एक साल से हमने कोई काम नहीं किया है। क्योंकि, अब कोई मार्केट नहीं बचा है, इसलिए कार्पेट खरीदने वाले भी कोई दिलचस्पी नहीं रखते।’

कार्पेट कारोबारी गुलाम हसन कहते हैं, ‘हम लोग अब आत्महत्या करने की कगार पर हैं। पहले अनुच्छेद 370 और फिर कोरोना की वजह से लगे लॉकडाउन के कारण टूरिस्ट यहां नहीं आ रहे हैं, इससे हमारे कारोबार पर बुरा असर पड़ा है।’

5 लाख नौकरियां गईं, 17,800 करोड़ से ज्यादा का नुकसान
अनुच्छेद 370 हटने के बाद 5 अगस्त से लेकर 3 दिसंबर 2019 के बीच कश्मीर घाटी को कितना नुकसान हुआ? इसको लेकर पिछले साल कश्मीर चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने एक रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 5 अगस्त से 3 दिसंबर के बीच 120 दिनों में घाटी को 17 हजार 878 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था। जबकि, 4.96 लाख नौकरियां गई थीं।

इन सबके अलावा 17 मई को आई कश्मीर इकोनॉमिक अलायंस की रिपोर्ट में कहा गया था कि कोरोनावायरस को फैलने से रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन की वजह से कश्मीर को शुरुआती दो महीनों में ही 8 हजार 416 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है।

कश्मीर में एक साल के भीतर लगे दो सख्त लॉकडाउन ने यहां की न सिर्फ इकोनॉमी तबाह की बल्कि लाखों रोजगार भी छीन लिए।

इंटरनेट की स्पीड भी इतनी धीमी, ऑनलाइन क्लास भी नहीं लग पा रही
एक साल से भी कम समय में कश्मीर में दो लॉकडाउन ने यहां के एजुकेशन सेक्टर को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। अनुच्छेद 370 हटने के बाद कर्फ्यू जैसी पाबंदियों की वजह से स्टूडेंट्स स्कूल-कॉलेज नहीं जा सके थे। उन्होंने मार्च में ही क्लासेस जाना शुरू किया था, लेकिन कोरोना की वजह से दोबारा सभी स्कूल-कॉलेज बंद हो गए। स्कूल में ऑनलाइन क्लासेस शुरू तो हुईं, लेकिन इंटरनेट की धीमी स्पीड ने इसको भी प्रभावित किया।

न सिर्फ एजुकेशन बल्कि धीमे इंटरनेट ने यहां के हेल्थ वर्कर्स और डॉक्टर्स के काम को भी कठिन बना दिया है, जो कोरोना के लड़ाई में फ्रंटलाइन पर खड़े हैं।

श्रीनगर के एक डॉक्टर का कहना है कि कोरोनावायरस पर नई जानकारी हासिल करने में कश्मीर दुनिया से पीछे है। वो कहते हैं कि हाई स्पीड इंटरनेट पर लगातार बैन न सिर्फ काम में बाधा डाल रहा है, बल्कि और चीजों को भी बदतर बना रहा है।

डॉक्टर कहते हैं, ‘हम वीडियो लेक्चर को एक्सेस नहीं कर सकते। मुझे उन वीडियो को देखना जरूरी है, लेकिन हाई स्पीड इंटरनेट नहीं होने से मैं ऐसा नहीं कर सकता।’ उनका कहना है कि ये नया वायरस है और हर दूसरे दिन रिसर्च, स्टडी, गाइडलाइन, अपडेट्स बदल रहे हैं।

एक साल में 662 लोगों पर पीएसए लगा
अनुच्छेद 370 हटाने के बाद कश्मीर में विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए न सिर्फ कम्युनिकेशन ब्लॉक किया गया, बल्कि सख्त लॉकडाउन भी लगाया गया था। राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती समेत कई राजनेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।

कुछ महीनों बाद फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला को तो रिहा कर दिया गया, लेकिन महबूबा मुफ्ती हिरासत में ही रहीं। उन पर पब्लिक सेफ्टी एक्ट यानी पीएसए लगाया गया था। 31 जुलाई को ही उनकी हिरासत तीन महीने के लिए और बढ़ा दी गई।

जम्मू-कश्मीर के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती पर पीएसए लगा था।

पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1978 में जम्मू-कश्मीर में लागू कर दिया गया था। पहले तो यह कानून लकड़ी की तस्करी करने वालों के खिलाफ बना था, लेकिन धीरे-धीरे इसका इस्तेमाल अन्य आपराधिक मामलों में भी होने लगा। पीएसए के तहत किसी को भी बिना ट्रायल के दो साल तक हिरासत में रखा जा सकता है।

जम्मू-कश्मीर सिविल सोसायटी के एक राइट्स ग्रुप ने ह्यूमन राइट्स पर एक रिव्यू रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि 2019 में 662 लोगों को पीएसए के तहत हिरासत में लिया गया था। इनमें से 412 लोग अनुच्छेद 370 हटने के बाद हिरासत में लिए गए थे।

3 लाख लोगों के बसने का रास्ता साफ
अनुच्छेद 370 की वजह से पहले बाहरी राज्यों के लोगों को यहां बसने, सरकारी नौकरी करने और जमीन खरीदने की मनाही थी। इससे जम्मू-कश्मीर की अलग पहचान थी। लेकिन, हाल ही में यहां बाहरी लोगों को बसाने के लिए नया डोमेसाइल कानून लागू हुआ है। हालांकि, ये कानून ऐसे समय में लागू हुआ है, जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रहा है।

इस नए कानून के तहत उन लोगों को डोमेसाइल स्टेटस (मूलनिवासी) देता है, जो राज्य में पिछले 15 साल से रह रहे हैं। इसके साथ ही उन स्टूडेंट्स को भी इससे फायदा है, जो पिछले 7 साल से जम्मू-कश्मीर में रहकर पढ़ाई कर रहे हैं और हाई स्कूल एग्जाम में अपीयर हुए हैं। इस कानून ने 100 से ज्यादा कानूनों को बदल दिया है।

हालांकि, इस नए कानून के आने के बाद यहां के लोगों में डर भी पैदा कर दिया है। इस कानून से यहां की डेमोग्राफी बदलने का डर है। जम्मू-कश्मीर की 68.3% आबादी मुस्लिम है। जबकि, 30% आबादी हिंदू, 2% सिख और 1% बौद्ध आबादी है।

अनुच्छेद 370 हटने के बाद उन 3 लाख लोगों के यहां बसने का रास्ता साफ हो गया है, जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान छोड़कर जम्मू आ गए थे और 72 सालों से शरणार्थी के तौर पर रह रहे थे।

2019 के आम चुनावों में भाजपा ने इन शरणार्थी वोटों को हासिल करने की काफी कोशिश की थी।

ये तस्वीर श्रीनगर के लाल चौक की है। (फोटो क्रेडिटः आबिद बट)

आखिर में अच्छी बात, नए आतंकियों की भर्ती में कमी आई
पिछले 30 साल से आतंकवाद झेल रहे कश्मीर में अब आतंकी तंजीमों की भर्ती में कमी आनी शुरू हो गई है। इसका सीधा-सीधा मतलब यही हुआ कि कश्मीर की जो नई पीढ़ी है, वो भी शांति ही चाहती है।

सुरक्षा एजेंसियों से मिला डेटा बताता है कि कश्मीर में अब नए आतंकियों की भर्ती में कमी आने लगी है। 2018 में 219 कश्मीरी आतंकी बने थे। 2019 में इनकी संख्या घटकर 119 पर पहुंच गई। इसी साल 30 जून तक 74 कश्मीरी आतंकी तंजीमों से जुड़े हैं।

स्थानीय आतंकियों में कमी आने की भी एक खास वजह है और वो ये कि अब ज्यादातर आतंकी संगठनों के टॉप कमांडरों को एनकाउंटर में मार दिया जा रहा है। आंकड़े बताते हैं कि 2018 में 215 आतंकी और 2019 में 152 आतंकी मारे गए थे।

इसी साल 30 जुलाई तक सुरक्षाबलों ने 148 आतंकियों को ढेर कर दिया है। इनमें से भी 116 आतंकी अप्रैल के बाद मारे गए है।

 

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