अमेरिका से लौटकर पत्तल बनाना शुरू किया, इस साल कर चुके हैं 15 लाख का बिजनेस
साल 2003 से पहले ये कपल नौकरी के सिलसिले में बैंकॉक, मलेशिया, सिंगापुर और फिर अमेरिका में रहा। बाद में हैदराबाद लौट आया। वापस अपने मुल्क लौटे माधवी और वेणुगोपाल ने अपने कारोबार में गांव की 7 लड़कियों को रोजगार भी दिया रोज 7 हजार प्लेट्स बनती हैं, पहले साल महज 3 लाख का बिजनेस हुआ, इस साल 20 लाख टर्नओवर की उम्मीद
फार्मेसी और जेनेटिक्स में मास्टर्स माधवी और मैकेनिकल इंजीनियर वेणुगोपाल मूलत: हैदराबाद के रहने वाले हैं। साल 2003 से पहले ये कपल नौकरी के सिलसिले में बैंकॉक, मलेशिया, सिंगापुर और फिर अमेरिका में रहा। जब बच्चे बड़े होने लगे तो उन्हें लगा कि अगर बच्चों की परवरिश विदेश में हुई तो वो भारतीय संस्कृति से नहीं जुड़ पाएंगे। ऐसे में उन्होंने वापस अपने मुल्क लौटने का निर्णय लिया। साल 2003 में हैदराबाद आकर बस गए।
हैदराबाद लौटने के बाद एक दिन माधवी ने अपनी सोसाइटी के बाहर प्लास्टिक की प्लेट-कटोरियों का ढेर देखा, जहां कुछ गाय इसमें भोजन ढूंढ रही थीं। कुछ दिन बाद पता चला कि भोजन के साथ प्लास्टिक खाने की वजह से एक गाय की मौत हो गई। इस घटना से दोनों को बहुत दुख हुआ, इसके बाद उन्हें प्लास्टिक की प्लेट-कटोरियों का काेई इको-फ्रेंडली विकल्प तलाशने का विचार आया।
इस तरह 2019 में उन्होंने विसत्राकू की शुरुआत की, जहां माधवी और वेणु साल, सियाली और पलाश के पत्तों से 7 तरह के इको-फ्रेंडली प्लेट और कटोरी तैयार करके पर्यावरण संरक्षण में योगदान दे रहे हैं। तेलुगु भाषा में विसत्राकू का अर्थ पत्तल होता है।
अमेरिका से लौटकर 25 एकड़ जमीन ली, यहां 12 हजार किस्म के फलों के पेड़ लगाए
माधवी कहती हैं, ‘अमेरिका से लौटने पर हमने अपनी सेविंग्स से तेलंगाना के सिद्दिपेट में 25 एकड़ जमीन ले ली। यहां हमने 30 से भी ज्यादा किस्मों के फलों के 12 हजार से भी ज्यादा पेड़ लगाए। खेत में हमारा अक्सर आना-जाना रहता था। हमारे खेत पर कई पलाश के भी पेड़ भी हैं और एक दिन बातों-बातों में मेरी मां ने बताया कि पलाश के पत्तों से पहले पत्तल बनाए जाते थे। इसके बाद मैंने और वेणु ने पलाश के कुछ पत्ते इकट्ठा कर उनसे प्लेट बनाने की कोशिश की। हमें सफलता तो मिली लेकिन प्लेट्स काफी छोटी थीं।’
पर्यावरण के प्रति जागरूक रहने वाले वेणुगोपाल कहते हैं, ‘एक फेसबुक ग्रुप पर मुझे पता चला कि ओडिशा में आदिवासी समुदाय अभी भी साल और सियाली के पत्तों से इस तरह के पत्तल बनाते हैं और वो उसको खलीपत्र कहते हैं। तब समझ में आया कि इको-फ्रेंडली पत्तल, दोना आदि अभी भी बनते हैं। लेकिन इनका इस्तेमाल कम हो गया है और इसकी जगह सिंगल-यूज प्लास्टिक की क्रॉकरी ने ले ली है।
इसके बाद मैंने कई नैचुरोपैथ से भी इस बारे में बात की तो उन्होंने बताया कि पलाश या साल के पत्तल पर खाना खाने से सिर्फ पर्यावरण ही नहीं बल्कि हमारे स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा असर होता है। जब पत्तल पर खाना परोसा जाता है तो भोजन में एक प्राकृतिक स्वाद भरता है और इससे कीड़े-मकौड़े भी दूर भागते हैं।’
यह जानने के बाद वेणुगोपाल ने ओडिशा के ऐसे सप्लायर से संपर्क किया जो आदिवासी समुदायों के उत्थान के लिए काम करता था। अब वे ओडिशा से सियाली और साल और तेलंगाना से पलाश के पत्ते मंगवाते हैं। फिलहाल, उन्होंने अपने खेत पर ही इन पत्तों से लीफ प्लेट्स बनाने की यूनिट लगाई है, जहां वे पत्तल और कटोरी बनाते हैं।
इन इको-फ्रेंडली, सस्टेनेबल और प्राकृतिक प्लेट्स की मार्केटिंग वेणु और माधवी ने अपनी सोसाइटी से ही शुरू की। जिस भी दोस्त-रिश्तेदार ने अपने आयोजनों में इन प्लेट्स को इस्तेमाल किया, सभी ने सोशल मीडिया पर उनके बारे में लिखा और इस तरह उनके इस इनिशिएटिव को पहचान मिलने लगी। वेणुगोपाल बताते हैं कि अब उनके प्रोडक्ट्स भारत के अलावा अमेरिका और जर्मनी तक भी जा रहे हैं। वो कहते हैं कि भारत से ज्यादा विदेशों में लोग पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक हैं।
2010 में माधवी को ब्रेस्ट कैंसर हुआ, पर्यावरण से नजदीकी बढ़ाकर कैंसर को मात दी
माधवी कहती हैं, ‘साल 2010 में मुझे पता चला कि ब्रेस्ट कैंसर है, मैं हैरान थी कि मुझे कैंसर कैसे हो सकता है। उस वक्त मैं तीन योगा कैंप कर रही थी। फिर अचानक मुझे लगने लगा कि मैं अपने परिवार से दूर चली जाऊंगी। मेरे बच्चे उस समय 10वीं क्लास में थे और मैं उन पर अपनी बीमारी का बोझ नहीं डालना चाहती थी, लेकिन मैं उन सभी के साथ ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताना चाहती थी।
मेरे जेहन में यह बात थी कि यह कैंसर मुझे प्रदूषण की वजह से हुआ है। इसके बाद मैंने तय किया कि हम खेती करेंगे और हमने अपने खेत में सब्जियों और फलों के ढेर सारे पेड़-पौधे लगाए। यही से उगाए गए अनाज, फल-सब्जी ही हम खाने लगे। मैंने हंसते-हंसते कैंसर को मात दे दी लेकिन इस सफर ने मुझे बहुत कुछ सिखाया और इसी वजह से मैं पर्यावरण से और ज्यादा जुड़ गई।’
माधवी और वेणुगोपाल कहते हैं कि उन्होंने कभी भी स्टार्टअप के बारे में नहीं सोचा था, लेकिन जब उन्हें लगा कि वो विसत्राकू के माध्यम से पर्यावरण सरंक्षण में अपना योगदान दे सकते हैं तो इसी क्षेत्र में आगे बढ़ने का निर्णय लिया। शुरुआत में उन्हें यूनिट सेटअप करने में काफी परेशानी भी आई लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
पहले साल महज 3 लाख का बिजनेस हुआ, इस साल 20 लाख के टर्नओवर की उम्मीद
वेणुगोपाल कहते हैं, ‘विस्त्राकु की शुरुआत हुए महज दो साल ही हुए हैं। पहले साल में बमुश्किल 3 लाख रुपए का बिजनेस हुआ। लेकिन इस फाइनेंशियल ईयर में हम 20 लाख रुपए का बिजनेस कर लेंगे। अभी तक 15 लाख रुपए का बिजनेस कर चुके हैं। पिछले महीने ही हमें यूएस से एक बड़ा ऑर्डर मिला और एक कंटेनर माल हमने यूएस भेजा है।’
माधवी और वेणु की यूनिट में गांव की ही 7 लड़कियां काम कर रही हैं। इस यूनिट में हर दिन करीब 7 हजार लीफ प्लेट्स और कटोरियां बनतीं हैं। इसके प्रोसेस के बारे में वेणुगोपाल बताते हैं कि इसमें सबसे पहले पत्तों को फूड ग्रेड धागे से सिला जाता है और फिर उन्हें फूड ग्रेड कार्डबोर्ड के साथ मशीन के नीचे रख दिया जाता है।
मशीन का तापमान 60-90 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच होता है और इसे 15 सेकंड का प्रेशर दिया जाता है जो इन पत्तों को एक प्लेट का आकार देता है। माधवी का उद्देश्य है कि वे पत्तल पर खाने की संस्कृति को वापस लाएं और लोगों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक करने में एक अहम भूमिका निभाएं।
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