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फैक्ट की कसौटी पर परखें तो कई मामलों में ‘नेहरू’ से काफी आगे निकल चुके हैं ‘मोदी’

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पहले प्रधानमंत्री, पहले राष्ट्रपति, पहली महिला प्रधानमंत्री, पहली बार चांद पर जाने वाला व्यक्ति, पहला विश्वकप….आदि-आदि. पहला ही क्यों ? तीसरा, पांचवा या सातवां क्यों नहीं? किसी से देश के पहले प्रधानमंत्री का नाम पूछा जाए तो वह तुरंत बता देगा, जबकि छठे प्रधानमंत्री के बारे में सोचकर बतायेगा या संभव है नहीं भी बता पाए. लोगों में ‘पहले’ को लेकर एक अदृश्य इमोशन होता है, जो ‘पहला’ है वो अलहदा है, यह ग्रंथि मन में बैठ ही जाती है.

इस ‘ग्रंथि’ का भारत की राजनीति में सर्वाधिक लाभ कांग्रेस के परिवार विशेष को मिला है. देश के ‘पहले’ प्रधानमंत्री नेहरू और ‘पहली’ महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उसी परिवार से आते हैं. आजादी के बाद के इतिहास में इन दोनों नेताओं को ‘फैक्ट’ की कसौटी पर कम और ‘भावनाओं’ के बहाव में आकर अधिक परखा गया है. किंतु सभी भावनाएं ‘फैक्ट’ भी हों, कतई जरूरी नहीं.

अगर कहा जाए कि आजादी के बाद भारत के जनमानस को नरेंद्र मोदी ने नेहरू और इंदिरा से अधिक प्रभावित किया है, तो कई लोग इसे अतिरंजना बताएंगे. किंतु फैक्ट की कसौटी पर इस तुलना को परखना जरूरी है.

जनाधार बढ़ाने में सबसे आगे
पहले आम चुनाव से अब तक के इतिहास में 2019 से पहले सिर्फ दो बार ऐसे अवसर आये. जब कोई प्रधानमंत्री अपने पिछले चुनाव से अधिक बड़ा जनादेश हासिल कर दोबारा चुना गया हो. 1957 में नेहरू तथा 1971 में इंदिरा को ऐसा अवसर मिला था. 1984 के चुनाव में कांग्रेस 1980 से बड़ा जनादेश लेकर आई थी, किंतु वो चुनाव इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति से उभरी परछाई में हुआ था. नेहरू जब 1957 में दोबारा चुनकर आये तो उन्हें पिछली बार की तुलना में 2 फीसद अधिक वोट मिले थे. वहीं 1971 में जब इंदिरा दोबारा चुनकर आईं तब उन्हें 1967 की तुलना में 2.9 फीसद की बढ़त हासिल हुई थी. दल के लिहाज से भी देखें तो 1984 में कांग्रेस को 1980 की तुलना में 5.4 फीसद की बढ़त मिली थी.

आंकड़ों की कसौटी पर इतिहास का कोई नेता मोदी के आगे नहीं टिकता. मोदी के नेतृत्व में हुए 2019 में के चुनाव में भाजपा ने 2014 की तुलना में 6.4 फीसद तथा एनडीए 6.7 फीसद की बढ़त का जनादेश हासिल किया है. यह बढ़त नेहरू और इंदिरा से ही नहीं, बल्कि इंदिरा गांधी की हत्या से उभरे सहानुभूति की परछाई में हुए 1984 के चुनाव में कांग्रेस को मिली बढ़त से भी अधिक है. एक तथ्य और समझना चाहिए कि 1957 और 1971 में कांग्रेस देशव्यापी थी और विपक्षी दल तुलनात्मक रूप से कमजोर स्थिति में सिमटे हुए थे. आज विपक्ष का विस्तार उस तुलना में अधिक है. बावजूद इसके नरेंद्र मोदी का दूसरी बार चुनाव में जाकर इतिहास के किसी भी नेता से अधिक जनाधार हासिल करना, राजनीति को करीब से समझने वालों के लिए मामूली बात नहीं है.

विचारधाराओं की धुरी बने मोदी
मोदी इस मामले में भी इतिहास के बड़े नेताओं में अलग हैं, क्योंकि उनके दौर में विचारधाराओं की सीमाएं लचर हो चुकी हैं. नेहरू और इंदिरा के दौर में विचारधाराओं की सीमाएं नहीं टूटी थीं. दलों की अपनी विचारधारा थी. उन विचारधाराओं के आधार पर विरोध अथवा सहमति के विषय तय होते थे. आज स्थिति वैसी नहीं है. मोदी के समर्थन अथवा विरोध की विचारधारा सिर्फ इस पर निर्भर करने लगी है कि मोदी सोच क्या रहे हैं, बोल क्या रहे हैं, कर क्या रहे हैं?

अगर नरेंद्र मोदी ने कोई ऐसी पहल शुरू कर दी जो ‘साम्यवादी’ विचारों के करीब हो तो भारत के साम्यवादी और समाजवादी उसका विरोध करते-करते चरम पूंजीवाद तक जाने में परहेज नहीं करते हैं. देश की हर विचारधारा की राजनीति करने वालों का किसी मुद्दे पर रुख इससे तय नहीं होता कि उनकी वैचारिक आस्था क्या है, बल्कि इससे तय होने लगा है कि नरेंद्र मोदी इसको लेकर क्या रुख अपनाने जा रहे हैं. वैचारिक विविधताओं की गति को नरेंद्र मोदी ने अपने धुरी में केन्द्रित कर लिया है. 70 के दशक में कांग्रेसी इंदिरा गांधी के लिए कहा करते थे कि ‘इंदिरा इज इंडिया’, आज मोदी के विरोधियों ने ‘मोदी इज मुद्दा, मुद्दा इज मोदी’ जैसी स्थिति बना दी है.

जनमानस पर व्यापक असर छोड़ने वाले नेता
मोदी इसलिए भी अधिक लोकप्रिय कहे जायेंगे क्योंकि जनता के बीच अपनी अपील मात्र से बहस का रुख तथा घटनाओं का चरित्र बदल देने में अद्भुत सफलता अर्जित कर चुके हैं. बहुदलीय व्यवस्था के प्रभाव के बीच जनभागीदारी और जनविश्वास की ऐसी अनोखी मिसाल इतिहास में किसी नेता को लेकर नहीं मिलती है. भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश को अपनी एक अपील से ‘लॉकडाउन’ की स्थिति में लाकर उन्होंने दुनिया को चौंका दिया है. इससे पहले ‘विमुद्रीकरण’ के फैसले पर भी दुनिया अचरज की निगाह से 125 करोड़ जनता वाले लोकतंत्र को देख रही थी.
कोविड के इस दौर में मोदी ने जिस ढंग से निर्णय लिए हैं और लोकप्रियता बरकरार रखी है. वह निश्चित ही चकित करने वाली है. इस कठिन दौर में जब ज्यादातर दफ्तर बंद हैं तब देश के 25 करोड़ से अधिक लोगों को ‘डीबीटी’ के माध्यम आर्थिक संबल देने का काम मोदी को ‘गरीबी हटाओ’ का असली नायक बनाता है. मोदी की करिश्माई छवि है कि उनकी अपील पर देश विकट स्थिति में भी एकजुट नजर आता है. यह उन्हें भारत का सर्वमान्य नेतृत्वकर्ता बनाता है. एक ऐसा सर्वमान्य नेता, जिसके खिलाफ विपक्ष की एकजुटता भी असरहीन नजर आती है. विपक्ष की एकजुटता पर ऐसी विजय 70 के दशक में इंदिरा गांधी भी नहीं हासिल कर पाई थीं.

वैश्विक धारा से अलग चलने का साहस
कोविड-19 की इस विकट घड़ी में मोदी ने विश्व के शक्ति संपन्न देशों की राह पर न चलते हुए ‘देशबंदी’ करके मानव जीवन के महत्व को आर्थिक हितों के ऊपर प्राथमिकता दी थी. उसके लाभ क्या हैं, इस पर पर्याप्त चर्चा हो चुकी है. उन्होंने इस आपदा के दौर में मानव संवेदना के उन पहलुओं को तरजीह दी है, जिसकी दुनिया ने अनदेखी की है. यह मानव कल्याण के प्रति उनकी संवेदनशील दृष्टि को दिखाता है. कोविड-19 से उबरने के बाद निश्चित ही भारत की साख दुनिया में ऐतिहासिक तौर पर बहुत आगे बढ़ेगी. नए अवसरों वाला ‘आत्मनिर्भर भारत’ जटिल परिस्थितियों में दुनिया का नेतृत्वकर्ता बनकर उभरेगा, ऐसा भरोसा नेतृत्व ने कठिन घड़ी में देशवासियों को दिलाया है.

सोहनलाल द्विवेदी की गांधी के व्यक्तित्व पर लिखी कविता, ‘चल पड़े जिधर दो डग मग में- चल पड़े कोटि पग उसी ओर’, वर्तमान परिवेश में नरेंद्र मोदी पर चरितार्थ हो रही है. वैसे तो अनेक ऐसे अवसर हैं, जहां मोदी ने अपने व्यक्तित्व और आभा से लोगों को अचंभित किया है. ये वो कारण हैं जो मोदी को आजाद भारत के इतिहास में सर्वाधिक लोकप्रिय, असरकारक और जनमानस को छूने वाला जननेता बनाते हैं. मोदी बेशक देश के ‘पहले’ प्रधानमंत्री नहीं हैं, किंतु अपने तरह के ‘पहले’ जननेता जरूर बन चुके हैं.

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