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क्रांतिकारी विज्ञापन आइडिया के ज़रिये 20 हज़ार से 32 करोड़ बनाने वाले रघु की कहानी

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शिमला के इस लड़के की जिंदगी कुछ अलग होती अगर वह लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से मास्टर डिग्री करने के अवसर को गवाँ नहीं देता l वीजा उसके हाथ में था और टिकट्स बुक हो चुकी थीं परंतु ट्रैफिक जाम की वजह से उनकी कहानी ने बिल्कुल ही एक अलग मोड़ ले लिया l यह कहानी उस व्यक्ति की है जिसने एक अनोखी कंपनी कैश योर ड्राइव के द्वारा भारत में क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए विज्ञापन का बिज़नेस केवल 20,000 रूपये से शुरू किया और आज उसकी कंपनी का वार्षिक टर्न-ओवर 32 करोड़ रूपये के पार है l

यह कहानी एक ऐसे लड़के की है जो अपने छठवीं की परीक्षा में दो विषय में फेल हो गया और दुबारा उसी क्लास में पढ़ने की नौबत आ गयी थी l असफलता के डर से उबर कर अपने स्कूल में आईआईटी क्रैक करने वाला वह पहला विद्यार्थी बना l उसको  सिविल इंजीनियरिंग ब्रांच मिला पर अपनी कड़ी मेहनत के द्वारा उसने इलेक्ट्रॉनिक कम्यूनिकेशन में अपना ब्रांच शिफ्ट करवा लिया l पढ़ाई ख़त्म होने के बाद उसे बहुत सारी आईटी कंपनियों से नौकरी के अवसर मिले और लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से उसे मास्टर डिग्री के लिए अवसर मिला l

रघु खन्ना एक संपन्न परिवार से थे इसलिए उन्हें लन्दन जाने के लिए कोई अड़चन नहीं थी पर जब वे एयरपोर्ट के लिए जा रहे थे तब वह ट्रैफिक जाम में फंस गए और उनके पास कोई चारा नहीं बचा, सिवाय इसके कि वे गाड़ियों के पीछे लिखी लाइन्स को पढता रहे l

यही वह पल था जब उनके मन में एक विचार आया कि गाड़ियों के पीछे का हिस्सा एडवर्टिज़मेंट के लिए सही जगह है और आज तक इसके बारे में सोचा नहीं गया है l वह एक ऐसा मॉडल तैयार करना चाहते थे जिसमे बड़ी-बड़ी कंपनियां अपनी कंपनी की ब्रांड वैल्यू के प्रचार के लिए गाड़ियों का इस्तेमाल करे और इसके लिए वे उसका मूल्य दे l पर रघु के पास अपना बिज़नेस शुरू करने के लिए पर्याप्त पूंजी नहीं थी l उन्होंने साल 2009 में अपने पिता से 20,000 रुपये उधार लेकर अपना बिज़नेस शुरू किया l

रघु ने अपने आइडिया पर काम करना शुरू कर दिया पर लोगों ने उनके इस प्रस्ताव को हँसी में उड़ा दिया क्योंकि उनको लगता था कि एडवर्टिज़मेंट केवल प्रिंट रूप में, रेडियो और टेलीविज़न के द्वारा ही संभव है l रघु ने एक वेबसाइट बनाई जिससे कुछ 1500 कार मालिकों का ध्यान आकर्षित किया और पहले ही हफ्ते 8 एडवरटाइजर मिले l इससे मिले प्रतिक्रिया से उसका विश्वास बढ़ा और उन्होंने एक बेकरी मालिक  को  अपने डिलीवरी गाड़ियों में स्टीकर्स चिपकाने को कहा l

वह दिन उनके संघर्ष के दिन थे और रघु पैसे बचाने के लिए एसी तक बंद कर देते थे l उनकी कंपनी पहली कंपनी थी जो एड ओन व्हील्स के कांसेप्ट पर काम कर रही थी उन्होंने बेंगलुरू स्थित डिजिटल प्रिंट्स नेटवर्क नामक कंपनी के साथ मिलकर काम किया l यह कंपनी विनाइल प्रिंटिंग के काम में एक्सपर्ट थी जिससे गाड़ियों के पेंट को कोई नुकसान नहीं होता था l कैंपेन की लंबाई, एडवर्टिज़मेंट की साइज और किस शहर में लगाना है इन सब के  द्वारा ही उनकी कमाई 10,000 से लेकर 60,000 के बीच निश्चित हो पाती थी l

एक लड़का जो कभी ग्रेस नम्बर के लिए टीचर के सामने हाथ जोड़े खड़ा था वही आज भारतीय बाज़ारों और विज्ञापन उद्योग के गेम चेंजर बन गए हैं l उनका यह कांसेप्ट जो ऑटो और कार से शुरू हुआ था वह अब ट्रक, ट्रेन, कार, बस और यहाँ तक की एयरप्लेन तक पहुँच चुका है l उनके ग्राहकों के लिस्ट में गूगल, पेप्सी, मोटोरोला, फ्लिपकार्ट, सब-वे, पिज़्ज़ा हट आदि शामिल हैं l उनका यह बिज़नेस 6,500 एयर पोर्ट कैब्स , 200,000 ऑटो और 4,500 प्राइवेट गाड़ियों में होता है और उनका टर्नओवर 32 करोड़ रूपये के पार है l

असफलता के डर से खुद को उबार कर आज इस मक़ाम पर पहुंचे हैं रघु l उनकी कहानी वाक़ई में प्रेरणा से भरी है l हमें यह समझना होगा कि बड़े से बड़े कारोबारी आइडिया भी हमारे आस-पास ही छिपे होते हैं बस जो उसे परख़ने में क़ामयाब हो जाता है, उसे सफल होने से कोई नहीं रोक पाता l

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